ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ५४९ ते ५८५
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२॥
(देह)
हेच काय ते एक असे समजून तत्वार्थ न जाणता विनाकारण गुंतून पडते ते तामस ज्ञान
तरी किरीटी जें ज्ञान | हिंडे विधीचेनि वस्त्रेंहीन |
श्रुति पाठमोरी नग्न | म्हणौनि तया ॥ ५४९ ॥
तरी किरीटी जें ज्ञान | हिंडे विधीचेनि वस्त्रेंहीन |
श्रुति पाठमोरी नग्न | म्हणौनि तया ॥ ५४९ ॥
येरींही शास्त्र बटिकरीं | जें निंदेचे विटाळवरी |
बोळविलेंसे डोंगरीं | म्लेंच्छधर्माच्या ॥ ५५० ॥
बटिकरीं=दास विटाळवरी=दोष लागेल म्हणून
म्लेंच्छ=अनार्य धर्म
जें गा ज्ञान ऐसें | गुणग्रहें तामसें |
घेतलें भवें पिसें | होऊनियां ॥ ५५१ ॥
गुणग्रहें=पिशाच्य लागल्याने पिसें=वेडे
जें सोयरिकें बाधु नेणें | पदार्थीं निषेधु न म्हणे |
निरोविलें जैसें सुणें | शून्यग्रामीं ॥ ५५२ ॥
निरोविलें=सोडले शून्यग्रामीं=रिकाम्या गावात
तया तोंडीं जें नाडळे | कां खातां जेणें पोळे |
तेंचि येक वाळे | येर घेणेचि ॥ ५५३ ॥
नाडळे=घेवू न शकणे मिळणे वाळे=टाळणे
पैं सोनें चोरितां उंदिरु | न म्हणे थरुविथरु |
नेणे मांसखाइरु | काळें गोरें ॥ ५५४ ॥
थरुविथरु =चांगले वाईट, शुद्ध अशुद्ध मांसखाइरु=मांसाहारी
नाना वनामाजीं बोहरी | कडसणी जेवीं न करी |
कां जीत मेलें न विचारी | बैसतां माशी ॥ ५५५ ॥
बोहरी = वणवा कडसणी=निवड
अगा वांता कां वाढिलेया | साजुक कां सडलिया |
विवेकु कावळिया | नाहीं जैसा ॥ ५५६ ॥
तैसें निषिद्ध सांडूनि द्यावें | कां विहित आदरें घ्यावें |
हें विषयांचेनि नांवें | नेणेंचि जें ॥ ५५७ ॥
जेतुलें आड पडे दिठी | तेतुलें घेचि विषयासाठीं |
मग तें स्त्री\-द्रव्य वाटी | शिश्नोदरां ॥ ५५८ ॥
तीर्थातीर्थ हे भाख | उदकीं नाहीं सनोळख |
तृषा वोळे तेंचि सुख | वांचूनियां ॥ ५५९ ॥
भाख=भाषा सनोळख=ओळख वोळे=भागेन
तयाचिपरी खाद्याखाद्य | न म्हणे निंद्यानिंद्य |
तोंडा आवडे तें मेध्य | ऐसाचि बोधु ॥ ५६० ॥
मेध्य=पवित्र
आणि स्त्रीजात तितुकें | त्वचेंद्रियेंचि वोळखे |
तियेविषयीं सोयरिकें | एकचि बोधु ॥ ५६१ ॥
पैं स्वार्थीं जें उपकरे | तयाचि नाम सोयिरें |
देहसंबंधु न सरे | जिये ज्ञानीं ॥ ५६२ ॥
उपकरे =उपयोगी पडतो देहसंबंधु =नातेवाईक
मृत्यूचें आघवेंचि अन्न | आघवेंचि आगी इंधन |
तैसें जगचि आपलें धन | तामसज्ञाना ॥ ५६३ ॥
ऐसेनि विश्व सकळ | जेणें विषयोचि मानिलें केवळ |
तया एक जाण फळ | देहभरण ॥ ५६४ ॥
आकाशपतिता नीरा | जैसा सिंधुचि येक थारा |
तैसें कृत्यजात उदरा\- | लागिंचि बुझे ॥ ५६५ ॥
बुझे=मानतो
वांचूनि स्वर्गु नरकु आथी | तया हेतु प्रवृत्ति निवृत्ती |
इये आघवियेचि राती | जाणिवेची जें ॥ ५६६ ॥
जाणिवेची=ज्ञान
जें देहखंडा नाम आत्मा | ईश्वर पाषाणप्रतिमा |
ययापरौती प्रमा | ढळों नेणें ॥ ५६७ ॥
प्रमा=बुद्धी
म्हणे पडिलेनि शरीरें | केलेनिसीं आत्मा सरे |
मा भोगावया उरे | कोण वेषें | ॥ ५६८ ॥
केलेनिसीं=कर्मासवे केलेल्या कर्मनिशी
ना ईश्वरु पाहातां आहे | तो भोगवी हें जरी होये |
तरी देवचि खाये | विकूनियां ॥ ५६९ ॥
देवचि =देव प्रतिमा
गांवींचें देवळेश्वर | नियामकचि होती साचार |
तरी देशींचे डोंगर | उगे कां असती ? ॥ ५७० ॥
ऐसा विपायें देवो मानिजे | तरी पाषाणमात्रचि जाणिजे |
आणि आत्मा तंव म्हणिजे | देहातेंचि ॥ ५७१ ॥
येरें पापपुण्यादिकें | तें आघवेंचि करोनि लटिकें |
हित मानी अग्निमुखे | चरणें जें कां ॥ ५७२ ॥
अग्निमुखे =पोटातील अग्नि
जें चामाचे डोळे दाविती
| जें इंद्रियें गोडी लाविती
|
तेंचि साच हे प्रतीती | फुडी जया ॥ ५७३ ॥
तेंचि साच हे प्रतीती | फुडी जया ॥ ५७३ ॥
दाविती=दाखवती
किंबहुना ऐसी प्रथा | वाढती देखसी पार्था |
धूमाची वेली वृथा | आकाशीं जैसी ॥ ५७४ ॥
कोरडा ना वोला | उपेगा आथी गेला |
तो वाढोनि मोडला | भेंडु जैसा ॥ ५७५ ॥
भेंडु=एक निरुपयोगी झाड
नाना उंसांचीं कणसें | कां नपुंसकें माणुसें |
वन लागलें जैसें | साबरीचें ॥ ५७६ ॥
साबरीचें=काटे निवडुंग
नातरी बाळकाचें मन | कां चोराघरींचें धन |
अथवा गळास्तन | शेळियेचे ॥ ५७७ ॥
तैसें जें वायाणें | वोसाळ दिसे जाणणें |
तयातें मी म्हणें | तामस ज्ञान ॥ ५७८ ॥
तयातें मी म्हणें | तामस ज्ञान ॥ ५७८ ॥
वायाणें =व्यर्थ वोसाळ=स्वैर टाकलेले खालच्या स्तरचे
तेंही ज्ञान इया भाषा | बोलिजे तो भावो ऐसा |
जात्यंधाचा कां जैसा | डोळा वाडु ॥ ५७९ ॥
जात्यंधाचा डोळा नावापुरतच वाडु=मोठाले
कां बधिराचे नीट कान | अपेया नाम पान |
तैसें आडनांव ज्ञान | तामसा तया ॥ ५८० ॥
हें असो किती बोलावें | तरी ऐसें जें देखावें |
तें ज्ञान नोहे जाणावें | डोळस तम ॥ ५८१ ॥
एवं तिहीं गुणीं | भेदलें यथालक्षणीं |
ज्ञान श्रोतेशिरोमणी | दाविलें तुज ॥ ५८२ ॥
आतां याचि त्रिप्रकारा | ज्ञानाचेनि धनुर्धरा |
प्रकाशें होती गोचरा | कर्तयांच्या क्रिया ॥ ५८३ ॥
म्हणौनि कर्म पैं गा | अनुसरे तिहीं भागां |
मोहरे जालिया वोघा | तोय जैसे ॥ ५८४ ॥
मोहरे=मार्गी
तेंचि ज्ञानत्रयवशें | त्रिविध कर्म जें असे |
तेथ सात्विक तंव ऐसें | परीसे आधीं ॥ ५८५ ॥
by dr. vikrant tikone
d
No comments:
Post a Comment