ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा,
संत ज्ञानेश्वर ओव्या ४७० ते
५२५
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १६॥
मग तो म्हणे गा सव्यसाची | पैं इये संसारपाटणींची |
वस्ती साविया टांची | दुपुरुषीं ॥ ४७१ ॥
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १६॥
मग तो म्हणे गा सव्यसाची | पैं इये संसारपाटणींची |
वस्ती साविया टांची | दुपुरुषीं ॥ ४७१ ॥
पाटणींची=शहराची(त) साविया=सोबत टांची=लहान उणी
दुपुरुषीं=दोन पुरुष
जैसी आघवांचि गगनीं | नांदत दिवोरात्री दोन्ही |
तैसे संसार राजधानीं | दोन्हीचि हे ॥ ४७२ ॥
आणिकही तिजा पुरुष आहे | परी तो या दोहींचें नांव न साहे |
जो उदेला गांवेंसीं खाये | दोहींतें ययां ॥ ४७३ ॥
परी ते तंव गोठी असो | आधीं दोन्हींची हे परियेसों |
जें संसारग्रामा वसों | आले असती ॥ ४७४ ॥
एक आंधळा वेडा पंगु | येर सर्वांगें पुरता चांगु |
परी ग्रामगुणें संगु | घडला दोघां ॥ ४७५ ॥
तया एका नाम क्षरु | येरातें म्हणती अक्षरु |
इहीं दोहींचि परी संसारु | कोंदला असे ॥ ४७६ ॥
आतां क्षरु तो कवणु | अक्षरु तो किं लक्षणु |
हा अभिप्रायो संपूर्णु | विवंचूं गा ॥ ४७७ ॥
तरी महदहंकारा- | लागुनियां धनुर्धरा |
तृणांतींचा पांगोरा- | वरी पैं गा ॥ ४७८ ॥
जें कांहीं सानें थोर | चालतें अथवा स्थिर |
किंबहुना गोचर | मनबुद्धींसि जें ॥ ४७९ ॥
जेतुलें पांचभौतिक घडतें | जें नामरूपा सांपडतें |
गुणत्रयाच्या पडतें | कामठां जें ॥ ४८० ॥
कामठां=टाकसाळ कारखाना
भूताकृतीचें नाणें | घडत भांगारें जेणें |
काळासि जूं खेळणें | जिहीं कवडां ॥ ४८१ ॥
कवडां=कवड्या (धन )
जाणणेंचि विपरीतें | जें जें कांहीं जाणिजेतें |
जें प्रतिक्षणीं निमतें | होऊनियां ॥ ४८२ ॥
जाणणेंचि विपरीतें=विपरीत ज्ञानाने
अगा काढूनि भ्रांतीचे दांग | उभवी सृष्टीचें आंग |
हें असो बहु जग | जया नाम ॥ ४८३ ॥
दांग=वन
पैं अष्टधा भिन्न ऐसें | जें दाविलें प्रकृतिमिसें |
जें क्षेत्रद्वारां छत्तिसें | भागी केलें ॥ ४८४ ॥
हें मागील सांगों किती | अगा आतांचि जें प्रस्तुतीं |
वृक्षाकार रूपाकृती | निरूपिलें ॥ ४८५ ॥
तें आघवेंचि साकारें | कल्पुनी आपणपयां पुरे |
जालें असें तदनुसारें | चैतन्यचि ॥ ४८६ ॥
पुरे=सारखे
जैसा कुहां आपणचि बिंबें | सिंह प्रतिबिंब पाहतां क्षोभे |
मग क्षोभला समारंभें | घाली तेथ ॥ ४८७ ॥
समारंभें=आवेशाने उडी
कां सलिलीं असतचि असे | व्योमावरी व्योम बिंबे जैसें |
अद्वैत होऊनि तैसें | द्वैत घेपे ॥ ४८८ ॥
व्योम=आकाश
अर्जुना गा यापरी | साकार कल्पूनि पुरीं |
आत्मा विस्मृतीचि करी | निद्रा तेथ ॥ ४८९ ॥
पैं स्वप्नीं सेजार देखिजे | मग पहुडणें जैसें तेथ कीजे |
तैसें पुरीं शयन देखिजे | आत्मयासी ॥ ४९० ॥
सेजार=बिछाना
पाठीं तिये निद्रेचेनि भरें | मी सुखी दुःखी म्हणत घोरें |
अहंममतेचेनि थोरें | वोसणायें सादें ॥ ४९१ ॥
वोसणायें=बरळणे सादें=मोठ्याने
हा जनकु हे माता | हा मी गौर हीन पुरता |
पुत्र वित्त कांता | माझें हें ना ॥ ४९२ ॥
गौर=गोरा
ऐसिया वेंघोनि स्वप्ना | धांवत भवस्वर्गाचिया राना |
तया चैतन्या नाम अर्जुना | क्षर पुरुषु गा ॥ ४९३ ॥
वेंघोनि=स्वार होणे
आतां ऐक क्षेत्रज्ञु येणें | नामें जयातें बोलणें |
जग जीवु कां म्हणे | जिये दशेतें ॥ ४९४ ॥
जो आपुलेनि विसरें | सर्व भूतत्वें अनुकरें |
तो आत्मा बोलिजे क्षरें | पुरुष नामें ॥ ४९५ ॥
जे तो वस्तुस्थिती पुरता | म्हणौनि आली पुरुषता |
वरी देहपुरीं निदैजतां | पुरुषनामें ॥ ४९६ ॥
वस्तुस्थिती=स्वरूप
आणि क्षरपणाचा नाथिला | आळु यया ऐसेनि आला |
जे उपाधींचि आतला | म्हणौनियां ॥ ४९७ ॥
नाथिला=नसलेला
जैसी खळाळीचिया उदका- | सरसीं आंदोळे चंद्रिका |
तैसा विकारां औपाधिका | ऐसाचि गमे ॥ ४९८ ॥
औपाधिका=उपाधी
कां खळाळु मोटका शोषे | आणि चंद्रिका तैं सरिसींच भ्रंशे |
तैसा उपाधिनाशीं न दिसे | उपाधिकु ॥ ४९९ ॥
ऐसें उपाधीचेनि पाडें | क्षणिकत्व यातें जोडे |
तेणें खोंकरपणें घडे | क्षर हें नाम ॥ ५०० ॥
खोंकरपणें=क्षणभंगुर,नष्ट होणारे
एवं जीवचैतन्य आघवें | हें क्षर पुरुष जाणावें |
आतां रूप करूं बरवें | अक्षरासी ॥ ५०१ ॥
तरी अक्षरु जो दुसरा | पुरुष पैं धनुर्धरा |
तो मध्यस्थु गा गिरिवरां | मेरु जैसा ॥ ५०२ ॥
जे तो पृथ्वी पाताळ स्वर्गीं | इहीं न भेदे तिहीं भागीं |
तैसा दोहीं ज्ञानाज्ञानांगीं | पडेना जो ॥ ५०३ ॥
ना यथार्थज्ञानें एक होणें | ना अन्यथात्वें दुजें घेणें |
ऐसें निखिळ जें नेणणें | तेंचि तें रूप ॥ ५०४ ॥
एक होणें=(ब्रह्म स्वरूपी)
पांसुता निःशेष जाये | ना घटभांडादि होये |
तया मृत्पिंडा ऐसें आहे | मध्यस्थ जें ॥ ५०५ ॥
पांसुता=धूळपणा मृत्पिंडा=मातीचा गोळा
पैं आटोनि गेलिया सागरु | मग तरंगु ना नीरु |
तया ऐशी अनाकारु | जे दशा गा ॥ ५०६ ॥
पार्था जागणें तरी बुडे | परी स्वप्नाचें कांहीं न मांडे |
तैसिये निद्रे सांगडें | न्याहाळणें जें ॥ ५०७ ॥
सांगडें=सारखे
विश्व आघवेंचि मावळे | आणि आत्मबोधु तरी नुजळे |
तिये अज्ञानदशे केवळे | अक्षरु नाम ॥ ५०८ ॥
सर्वां कळीं सांडिलें जैसें | चंद्रपण उरे अंवसे।
रूप जाणावें तैसें | अक्षराचें ॥ ५०९ ॥
पैं सर्वोपाधिविनाशें। हे जीवदशा जेथ पैसे |
फळपाकांत जैसें | झाड बीजीं ॥ ५१० ॥
तैसें उपाधी उपहित | थोकोनि ठाके जेथ |
तयातें अव्यक्त | बोलती गा ॥ ५११ ॥
उपहित =विरहीत थोकोनि=थांबून
घन अज्ञान सुषुप्ती | तो बीजभावो म्हणती |
येर स्वप्न हन जागृती | फळभावो तयाचा ॥ ५१२ ॥
जयासी कां बीजभावो | वेदांतीं केला ऐसा आवो |
तो तया पुरुषा ठावो | अक्षराचा ॥ ५१३ ॥
आवो=प्रतिष्ठा
जेथूनि अन्यथाज्ञान | फांकोनि जागृति स्वप्न |
नानाबुद्धीचें रान | रिगालें असे ॥ ५१४ ॥
जीवत्व जेथुनी किरीटी | विश्व उठतचि उठी |
ते उभय भेदांची मिठी | अक्षरु पुरुषु ॥ ५१५ ॥
येरु क्षर पुरुषु कां जनीं | जिहीं खेळे जागृतीं स्वप्नीं |
तिया अवस्था जो दोन्ही | वियाला गा ॥ ५१६ ॥
पैं अज्ञानघनसुषुप्ती | ऐसैसी जे कां ख्याती |
या उणी एकी प्राप्ती | ब्रह्माची जे ॥ ५१७ ॥
साचचि पुढती वीरा | जरी न येतां स्वप्न जागरा |
तरी ब्रह्मभावो साचोकारा | म्हणों येता ॥ ५१८ ॥
परी प्रकृतिपुरुषें दोनी | अभ्रें जालीं जियें गगनीं |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञु स्वप्नीं | देखिला जियें ॥ ५१९ ॥
हें असो अधोशाखा | या संसाररूपा रुखा |
मूळ तें रूप पुरुषा | अक्षराचें ॥ ५२० ॥
हा पुरुषु कां म्हणिजे | जे पूर्णपणेंचि निजें |
पैं मायापुरीं पहुडिजे | तेणेंही बोलें ॥ ५२१ ॥
आणि विकारांची जे वारी | ते विपरीत ज्ञानाची परी |
नेणिजे जिये माझारीं | ते सुषुप्ती गा हा ॥ ५२२ ॥
म्हणौनि यया आपैसें | क्षरणें या नसे |
आणिकेंही हा न नाशे | ज्ञानाउणें ॥ ५२३ ॥
ज्ञानाउणें=ज्ञाना वाचून
यालागीं हा अक्षरु | ऐसा वेदांतीं डगरु |
केला देशी थोरु | सिद्धांताच्या ॥ ५२४ ॥
डगरु=कीर्ती प्रसिद्धी
ऐसें जीवकार्य कारण | जया मायासंगुचि लक्षण |
अक्षर पुरुषु जाण | चैतन्य तें ॥ ५२५ ॥
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by dr. vikrant tikone
जरा अवघडच आहे समजायला!
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