Saturday, December 16, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा, ओव्या ४७० ते ५२५









ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा, संत ज्ञानेश्वर ओव्या ४७० ते ५२५



द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १६॥


मग तो म्हणे गा सव्यसाची | पैं इये संसारपाटणींची |
वस्ती साविया टांची | दुपुरुषीं ॥ ४७१ ॥

पाटणींची=शहराची(त)  साविया=सोबत  टांची=लहान उणी
दुपुरुषीं=दोन पुरुष

जैसी आघवांचि गगनीं | नांदत दिवोरात्री दोन्ही |
तैसे संसार राजधानीं | दोन्हीचि हे ॥ ४७२ ॥

आणिकही तिजा पुरुष आहे | परी तो या दोहींचें नांव न साहे |
जो उदेला गांवेंसीं खाये | दोहींतें ययां ॥ ४७३ ॥

परी ते तंव गोठी असो | आधीं दोन्हींची हे परियेसों |
जें संसारग्रामा वसों | आले असती ॥ ४७४ ॥

एक आंधळा वेडा पंगु | येर सर्वांगें पुरता चांगु |
परी ग्रामगुणें संगु | घडला दोघां ॥ ४७५ ॥

तया एका नाम क्षरु | येरातें म्हणती अक्षरु |
इहीं दोहींचि परी संसारु | कोंदला असे ॥ ४७६ ॥

आतां क्षरु तो कवणु | अक्षरु तो किं लक्षणु |
हा अभिप्रायो संपूर्णु | विवंचूं गा ॥ ४७७ ॥

तरी महदहंकारा- | लागुनियां धनुर्धरा |
तृणांतींचा पांगोरा- | वरी पैं गा ॥ ४७८ ॥

जें कांहीं सानें थोर | चालतें अथवा स्थिर |
किंबहुना गोचर | मनबुद्धींसि जें ॥ ४७९ ॥

जेतुलें पांचभौतिक घडतें | जें नामरूपा सांपडतें |
गुणत्रयाच्या पडतें | कामठां जें ॥ ४८० ॥

कामठां=टाकसाळ कारखाना

भूताकृतीचें नाणें | घडत भांगारें जेणें |
काळासि जूं खेळणें | जिहीं कवडां ॥ ४८१ ॥

कवडां=कवड्या (धन )

जाणणेंचि विपरीतें | जें जें कांहीं जाणिजेतें |
जें प्रतिक्षणीं निमतें | होऊनियां ॥ ४८२ ॥

जाणणेंचि विपरीतें=विपरीत ज्ञानाने

अगा काढूनि भ्रांतीचे दांग | उभवी सृष्टीचें आंग |
हें असो बहु जग | जया नाम ॥ ४८३ ॥

दांग=वन

पैं अष्टधा भिन्न ऐसें | जें दाविलें प्रकृतिमिसें |
जें क्षेत्रद्वारां छत्तिसें | भागी केलें ॥ ४८४ ॥

हें मागील सांगों किती | अगा आतांचि जें प्रस्तुतीं |
वृक्षाकार रूपाकृती | निरूपिलें ॥ ४८५ ॥

तें आघवेंचि साकारें | कल्पुनी आपणपयां पुरे |
जालें असें तदनुसारें | चैतन्यचि ॥ ४८६ ॥

पुरे=सारखे

जैसा कुहां आपणचि बिंबें | सिंह प्रतिबिंब पाहतां क्षोभे |
मग क्षोभला समारंभें | घाली तेथ ॥ ४८७ ॥

समारंभें=आवेशाने उडी

कां सलिलीं असतचि असे | व्योमावरी व्योम बिंबे जैसें |
अद्वैत होऊनि तैसें | द्वैत घेपे ॥ ४८८ ॥

व्योम=आकाश

अर्जुना गा यापरी | साकार कल्पूनि पुरीं |
आत्मा विस्मृतीचि करी | निद्रा तेथ ॥ ४८९ ॥

पैं स्वप्नीं सेजार देखिजे | मग पहुडणें जैसें तेथ कीजे |
तैसें पुरीं शयन देखिजे | आत्मयासी ॥ ४९० ॥

सेजार=बिछाना

पाठीं तिये निद्रेचेनि भरें | मी सुखी दुःखी म्हणत घोरें |
अहंममतेचेनि थोरें | वोसणायें सादें ॥ ४९१ ॥

वोसणायें=बरळणे  सादें=मोठ्याने

हा जनकु हे माता | हा मी गौर हीन पुरता |
पुत्र वित्त कांता | माझें हें ना ॥ ४९२ ॥

गौर=गोरा

ऐसिया वेंघोनि स्वप्ना | धांवत भवस्वर्गाचिया राना |
तया चैतन्या नाम अर्जुना | क्षर पुरुषु गा ॥ ४९३ ॥

वेंघोनि=स्वार होणे

आतां ऐक क्षेत्रज्ञु येणें | नामें जयातें बोलणें |
जग जीवु कां म्हणे | जिये दशेतें ॥ ४९४ ॥

जो आपुलेनि विसरें | सर्व भूतत्वें अनुकरें |
तो आत्मा बोलिजे क्षरें | पुरुष नामें ॥ ४९५ ॥

जे तो वस्तुस्थिती पुरता | म्हणौनि आली पुरुषता |
वरी देहपुरीं निदैजतां | पुरुषनामें ॥ ४९६ ॥

वस्तुस्थिती=स्वरूप

आणि क्षरपणाचा नाथिला | आळु यया ऐसेनि आला |
जे उपाधींचि आतला | म्हणौनियां ॥ ४९७ ॥

नाथिला=नसलेला

जैसी खळाळीचिया उदका- | सरसीं आंदोळे चंद्रिका |
तैसा विकारां औपाधिका | ऐसाचि गमे ॥ ४९८ ॥

औपाधिका=उपाधी

कां खळाळु मोटका शोषे | आणि चंद्रिका तैं सरिसींच भ्रंशे |
तैसा उपाधिनाशीं न दिसे | उपाधिकु ॥ ४९९ ॥

ऐसें उपाधीचेनि पाडें | क्षणिकत्व यातें जोडे |
तेणें खोंकरपणें घडे | क्षर हें नाम ॥ ५०० ॥

खोंकरपणें=क्षणभंगुर,नष्ट होणारे

एवं जीवचैतन्य आघवें | हें क्षर पुरुष जाणावें |
आतां रूप करूं बरवें | अक्षरासी ॥ ५०१ ॥

तरी अक्षरु जो दुसरा | पुरुष पैं धनुर्धरा |
तो मध्यस्थु गा गिरिवरां | मेरु जैसा ॥ ५०२ ॥

जे तो पृथ्वी पाताळ स्वर्गीं | इहीं न भेदे तिहीं भागीं |
तैसा दोहीं ज्ञानाज्ञानांगीं | पडेना जो ॥ ५०३ ॥

ना यथार्थज्ञानें एक होणें | ना अन्यथात्वें दुजें घेणें |
ऐसें निखिळ जें नेणणें | तेंचि तें रूप ॥ ५०४ ॥

एक होणें=(ब्रह्म स्वरूपी)
 
पांसुता निःशेष जाये | ना घटभांडादि होये |
तया मृत्पिंडा ऐसें आहे | मध्यस्थ जें ॥ ५०५ ॥

पांसुता=धूळपणा   मृत्पिंडा=मातीचा गोळा

पैं आटोनि गेलिया सागरु | मग तरंगु ना नीरु |
तया ऐशी अनाकारु | जे दशा गा ॥ ५०६ ॥

पार्था जागणें तरी बुडे | परी स्वप्नाचें कांहीं न मांडे |
तैसिये निद्रे सांगडें | न्याहाळणें जें ॥ ५०७ ॥

सांगडें=सारखे

विश्व आघवेंचि मावळे | आणि आत्मबोधु तरी नुजळे |
तिये अज्ञानदशे केवळे | अक्षरु नाम ॥ ५०८ ॥

सर्वां कळीं सांडिलें जैसें | चंद्रपण उरे अंवसे।
रूप जाणावें तैसें | अक्षराचें ॥ ५०९ ॥

पैं सर्वोपाधिविनाशें। हे जीवदशा जेथ पैसे |
फळपाकांत जैसें | झाड बीजीं ॥ ५१० ॥

तैसें उपाधी उपहित | थोकोनि ठाके जेथ |
तयातें अव्यक्त | बोलती गा ॥ ५११ ॥

उपहित =विरहीत  थोकोनि=थांबून

घन अज्ञान सुषुप्ती | तो बीजभावो म्हणती |
येर स्वप्न हन जागृती | फळभावो तयाचा ॥ ५१२ ॥

जयासी कां बीजभावो | वेदांतीं केला ऐसा आवो |
तो तया पुरुषा ठावो | अक्षराचा ॥ ५१३ ॥

आवो=प्रतिष्ठा

जेथूनि अन्यथाज्ञान | फांकोनि जागृति स्वप्न |
नानाबुद्धीचें रान | रिगालें असे ॥ ५१४ ॥

जीवत्व जेथुनी किरीटी | विश्व उठतचि उठी |
ते उभय भेदांची मिठी | अक्षरु पुरुषु ॥ ५१५ ॥

येरु क्षर पुरुषु कां जनीं | जिहीं खेळे जागृतीं स्वप्नीं |
तिया अवस्था जो दोन्ही | वियाला गा ॥ ५१६ ॥

पैं अज्ञानघनसुषुप्ती | ऐसैसी जे कां ख्याती |
या उणी एकी प्राप्ती | ब्रह्माची जे ॥ ५१७ ॥

साचचि पुढती वीरा | जरी न येतां स्वप्न जागरा |
तरी ब्रह्मभावो साचोकारा | म्हणों येता ॥ ५१८ ॥

परी प्रकृतिपुरुषें दोनी | अभ्रें जालीं जियें गगनीं |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञु स्वप्नीं | देखिला जियें ॥ ५१९ ॥

हें असो अधोशाखा | या संसाररूपा रुखा |
मूळ तें रूप पुरुषा | अक्षराचें ॥ ५२० ॥

हा पुरुषु कां म्हणिजे | जे पूर्णपणेंचि निजें |
पैं मायापुरीं पहुडिजे | तेणेंही बोलें ॥ ५२१ ॥

आणि विकारांची जे वारी | ते विपरीत ज्ञानाची परी |
नेणिजे जिये माझारीं | ते सुषुप्ती गा हा ॥ ५२२ ॥

म्हणौनि यया आपैसें | क्षरणें या नसे |
आणिकेंही हा न नाशे | ज्ञानाउणें ॥ ५२३ ॥

ज्ञानाउणें=ज्ञाना वाचून

यालागीं हा अक्षरु | ऐसा वेदांतीं डगरु |
केला देशी थोरु | सिद्धांताच्या ॥ ५२४ ॥

डगरु=कीर्ती प्रसिद्धी

ऐसें जीवकार्य कारण | जया मायासंगुचि लक्षण |
अक्षर पुरुषु जाण | चैतन्य तें ॥ ५२५ ॥

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by dr. vikrant tikone


1 comment:

  1. जरा अवघडच आहे समजायला!

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