Saturday, December 29, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या ३१५ ते ३५३



ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ३१५ ते ३५३


अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥ १४॥

देह(अधिष्ठान), कर्ता, करण(साधन), कृती, दैव या पाच कारणाने कर्म घडते

तैसीं यथा लक्षणें | आइकें कर्म\-कारणें |
तरी देह हें मी म्हणें | पहिलें एथ ॥ ३१५ ॥

ययातें अधिष्ठान ऐसें | म्हणिजे तें याचि उद्देशें |
जे स्वभोग्येंसीं वसे | भोक्ता येथ ॥ ३१६ ॥

अधिष्ठान =आधार   भोक्ता =जीव 
स्वभोग्येंसीं= स्वत:च्या भोगासावे

इंद्रियांच्या दाहें हातीं | जाचोनियां दिवोराती |
सुखदुःखें प्रकृती | जोडीजती जियें ॥ ३१७ ॥

दाहें=दहा  जाचोनियां=कष्टाने, त्रासाणे
जोडीजती=मिळवली जातात

तियें भोगावया पुरुखा | आन ठावोचि नाहीं देखा |
म्हणौनि अधिष्ठानभाखा | बोलिजे देह ॥ ३१८ ॥

भाखा= या शब्दात (असे ही)

हें चोविसांही तत्वांचें | कुटुंबघर वस्तीचें |
तुटे बंधमोक्षाचें | गुंथाडे एथ ॥ ३१९ ॥

गुंथाडे=गुंतागुंत

किंबहुना अवस्थात्रया | हें अधिष्ठान धनंजया |
म्हणौनि देहा यया | हेंचि नाम ॥ ३२० ॥

अवस्थात्रया=जागृती ,निद्रा सुषुप्ती

आणि कर्ता हें दुजें | कर्माचें कारण जाणिजे |
प्रतिबिंब म्हणिजे | चैतन्याचें जें ॥ ३२१ ॥

आकाशचि वर्षे नीर | तें तळवटीं बांधे नाडर |
मग बिंबोनि तदाकार | होय जेवीं ॥ ३२२ ॥

नाडर=डबके ,सरोवर

कां निद्राभरें बहुवें | राया आपणपें ठाउवें नव्हे |
मग स्वप्नींचिये सामावे | रंकपणीं ॥ ३२३ ॥

सामावे=तद्रूप होवून

तैसें आपुलेनि विसरें | चैतन्यचि देहाकारें |
आभासोनि आविष्करें | देहपणें जें ॥ ३२४ ॥

जया विसराच्या देशीं | प्रसिद्धि गा जीवु ऐसी |
जेणें भाष केली देहेंसी | आघवाविषयीं ॥ ३२५ ॥

प्रकृति करी कर्में | तीं म्यां केलीं म्हणे भ्रमें |
येथ कर्ता येणें नामें | बोलिजे जीवु ॥ ३२६ ॥

मग पातेयांच्या केशीं | एकीच उठी दिठी जैसी |
मोकळी चवरी ऐसी | चिरीव गमे ॥ ३२७ ॥

पातेयांच्या=पापण्या  चिरीव=भेदलेली

कां घराआंतुल एकु | दीपाचा तो अवलोकु |
गवाक्षभेदें अनेकु | आवडे जेवीं ॥ ३२८ ॥

कां एकुचि पुरुषु जैसा | अनुसरत नवां रसां |
नवविधु ऐसा | आवडों लागे ॥ ३२९ ॥

तेवीं बुद्धीचें एक जाणणें | श्रोत्रादिभेदें येणें |
बाहेरी इंद्रियपणें | फांके जें कां ॥ ३३० ॥

तें पृथग्विध करण | कर्माचें इया कारण |
तिसरें गा जाण | नृपनंदना ॥ ३३१ ॥

पृथग्विध=वेगवेगळे

आणि पूर्वपश्चिमवाहणीं | निघालिया वोघाचिया मिळणी |
होय नदी नद पाणी | एकचि जेवीं ॥ ३३२ ॥

तैसी क्रियाशक्ति पवनीं | असे जे अनपायिनी |
ते पडिली नानास्थानीं | नाना होय ॥ ३३३ ॥

पवनीं=वायू (प्राण)  अनपायिनी=क्रमप्राप्त

जैं वाचे करी येणें | तैं तेंचि होय बोलणें |
हाता आली तरी घेणें | देणें होय ॥ ३३४ ॥

अगा चरणाच्या ठायीं | तरी गति तेचि पाहीं |
अधोद्वारीं दोहीं | क्षरणें तेचि ॥ ३३५ ॥

कंदौनि हृदयवरी | प्रणवाची उजरी |
करितां तेचि शरीरीं | प्राणु म्हणिजे ॥ ३३६ ॥

कंदौनि=नाभी पासून

मग उर्ध्वींचिया रिगानिगा | पुढती तेचि शक्ति पैं गा |
उदानु ऐसिया लिंगा | पात्र जाहली ॥ ३३७ ॥

लिंगा=नावाला

अधोरंध्राचेनि वाहें | अपानु हें नाम लाहे |
व्यापकपणें होये | व्यानु तेचि ॥ ३३८ ॥

आरोगिलेनि रसें | शरीर भरी सरिसें |
आणि न सांडितां असे | सर्वसंधीं ॥ ३३९ ॥

सर्वसंधीं=सांधे

ऐसिया इया राहटीं | मग तेचि क्रिया पाठीं |
समान ऐसी किरीटी | बोलिजे गा ॥ ३४० ॥

आणि जांभई शिंक ढेंकर | ऐसैसा होतसे व्यापार |
नाग कूर्म कृकर | इत्यादि होय ॥ ३४१ ॥

एवं वायूची हे चेष्टा | एकीचि परी सुभटा |
वर्तनास्तव पालटा | येतसे जे ॥ ३४२ ॥

पालटा=बदल

तें भेदली वृत्तिपंथें | वायुशक्ति गा एथें |
कर्मकारण चौथें | ऐसें जाण ॥ ३४३ ॥

आणि ऋतु बरवा शारदु | शारदीं पुढती चांदु |
चंद्री जैसा संबंधु | पूर्णिमेचा ॥ ३४४ ॥

कां वसंतीं बरवा आरामु | आरामींही प्रियसंगमु |
संगमीं आगमु | उपचारांचा ॥ ३४५ ॥

नाना कमळीं पांडवा | विकासु जैसा बरवा |
विकासींही यावा | परागाचा ॥ ३४६ ॥

वाचे बरवें कवित्व | कवित्वीं बरवें रसिकत्व |
रसिकत्वीं परतत्व | स्पर्शु जैसा ॥ ३४७ ॥

तैसी सर्ववृत्तिवैभवीं | बुद्धिचि एकली बरवी |
बुद्धिही बरव नवी | इंद्रियप्रौढी ॥ ३४८ ॥

बरव=चांगली  इंद्रियप्रौढी=इंद्रियसामर्थे शोभा

इंद्रियप्रौढीमंडळा | शृंगारु एकुचि निर्मळा |
जैं अधिष्ठात्रियां कां मेळा | देवतांचा जो ॥ ३४९ ॥

अधिष्ठात्रियां=आधारभूत

म्हणौनि चक्षुरादिकीं दाहें | इंद्रियां पाठीं स्वानुग्रहें |
सूर्यादिकां कां आहे | सुरांचें वृंद ॥ ३५० ॥

स्वानुग्रहें=कृपेने

तें देववृंद बरवें | कर्मकारण पांचवें |
अर्जुना एथ जाणावें | देवो म्हणे ॥ ३५१ ॥

एवं माने तुझिये आयणी | तैसी कर्मजातांची हे खाणी |
पंचविध आकर्णीं | निरूपिली ॥ ३५२ ॥

आयणी=आकलन होईल असे

आतां हेचि खाणी वाढे | मग कर्माची सृष्टि घडे |
जिहीं ते हेतुही उघडे | दाऊं पांचै ॥ ३५३ ॥

by dr. vikrant tikone


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