ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ३१५ ते ३५३
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥ १४॥
देह(अधिष्ठान),
कर्ता, करण(साधन), कृती, दैव
या पाच कारणाने कर्म घडते
तैसीं यथा लक्षणें | आइकें कर्म\-कारणें |
तरी देह हें मी म्हणें | पहिलें एथ ॥ ३१५ ॥
तैसीं यथा लक्षणें | आइकें कर्म\-कारणें |
तरी देह हें मी म्हणें | पहिलें एथ ॥ ३१५ ॥
ययातें अधिष्ठान ऐसें | म्हणिजे तें याचि उद्देशें |
जे स्वभोग्येंसीं वसे | भोक्ता येथ ॥ ३१६ ॥
अधिष्ठान
=आधार भोक्ता =जीव
स्वभोग्येंसीं= स्वत:च्या भोगासावे
इंद्रियांच्या दाहें हातीं | जाचोनियां दिवोराती |
सुखदुःखें प्रकृती | जोडीजती जियें ॥ ३१७ ॥
दाहें=दहा जाचोनियां=कष्टाने, त्रासाणे
जोडीजती=मिळवली जातात
तियें भोगावया पुरुखा | आन ठावोचि नाहीं देखा |
म्हणौनि अधिष्ठानभाखा | बोलिजे देह ॥ ३१८ ॥
भाखा= या शब्दात (असे ही)
हें चोविसांही तत्वांचें | कुटुंबघर वस्तीचें |
तुटे बंधमोक्षाचें | गुंथाडे एथ ॥ ३१९ ॥
गुंथाडे=गुंतागुंत
किंबहुना अवस्थात्रया | हें अधिष्ठान धनंजया |
म्हणौनि देहा यया | हेंचि नाम ॥ ३२० ॥
अवस्थात्रया=जागृती ,निद्रा
सुषुप्ती
आणि कर्ता हें दुजें | कर्माचें कारण जाणिजे |
प्रतिबिंब म्हणिजे | चैतन्याचें जें ॥ ३२१ ॥
आकाशचि वर्षे नीर | तें तळवटीं बांधे नाडर |
मग बिंबोनि तदाकार | होय जेवीं ॥ ३२२ ॥
नाडर=डबके ,सरोवर
कां निद्राभरें बहुवें | राया आपणपें ठाउवें नव्हे |
मग स्वप्नींचिये सामावे | रंकपणीं ॥ ३२३ ॥
सामावे=तद्रूप होवून
तैसें आपुलेनि विसरें | चैतन्यचि देहाकारें |
आभासोनि आविष्करें | देहपणें जें ॥ ३२४ ॥
जया विसराच्या देशीं | प्रसिद्धि गा जीवु ऐसी |
जेणें भाष केली देहेंसी | आघवाविषयीं ॥ ३२५ ॥
प्रकृति करी कर्में | तीं म्यां केलीं म्हणे भ्रमें |
येथ कर्ता येणें नामें | बोलिजे जीवु ॥ ३२६ ॥
मग पातेयांच्या केशीं | एकीच उठी दिठी जैसी |
मोकळी चवरी ऐसी | चिरीव गमे ॥ ३२७ ॥
पातेयांच्या=पापण्या चिरीव=भेदलेली
कां घराआंतुल एकु | दीपाचा तो अवलोकु |
गवाक्षभेदें अनेकु | आवडे जेवीं ॥ ३२८ ॥
कां एकुचि पुरुषु जैसा | अनुसरत नवां रसां |
नवविधु ऐसा | आवडों लागे ॥ ३२९ ॥
तेवीं बुद्धीचें एक जाणणें | श्रोत्रादिभेदें येणें |
बाहेरी इंद्रियपणें | फांके जें कां ॥ ३३० ॥
तें पृथग्विध करण | कर्माचें इया कारण |
तिसरें गा जाण | नृपनंदना ॥ ३३१ ॥
पृथग्विध=वेगवेगळे
आणि पूर्वपश्चिमवाहणीं | निघालिया वोघाचिया मिळणी |
होय नदी नद पाणी | एकचि जेवीं ॥ ३३२ ॥
तैसी क्रियाशक्ति पवनीं | असे जे अनपायिनी |
ते पडिली नानास्थानीं | नाना होय ॥ ३३३ ॥
पवनीं=वायू (प्राण) अनपायिनी=क्रमप्राप्त
जैं वाचे करी येणें | तैं तेंचि होय बोलणें |
हाता आली तरी घेणें | देणें होय ॥ ३३४ ॥
अगा चरणाच्या ठायीं | तरी गति तेचि पाहीं |
अधोद्वारीं दोहीं | क्षरणें तेचि ॥ ३३५ ॥
कंदौनि हृदयवरी | प्रणवाची उजरी |
करितां तेचि शरीरीं | प्राणु म्हणिजे ॥ ३३६ ॥
कंदौनि=नाभी पासून
मग उर्ध्वींचिया रिगानिगा | पुढती तेचि शक्ति पैं गा |
उदानु ऐसिया लिंगा | पात्र जाहली ॥ ३३७ ॥
लिंगा=नावाला
अधोरंध्राचेनि वाहें | अपानु हें नाम लाहे |
व्यापकपणें होये | व्यानु तेचि ॥ ३३८ ॥
आरोगिलेनि रसें | शरीर भरी सरिसें |
आणि न सांडितां असे | सर्वसंधीं ॥ ३३९ ॥
सर्वसंधीं=सांधे
ऐसिया इया राहटीं | मग तेचि क्रिया पाठीं |
समान ऐसी किरीटी | बोलिजे गा ॥ ३४० ॥
आणि जांभई शिंक ढेंकर | ऐसैसा होतसे व्यापार |
नाग कूर्म कृकर | इत्यादि होय ॥ ३४१ ॥
एवं वायूची हे चेष्टा | एकीचि परी सुभटा |
वर्तनास्तव पालटा | येतसे जे ॥ ३४२ ॥
पालटा=बदल
तें भेदली वृत्तिपंथें | वायुशक्ति गा एथें |
कर्मकारण चौथें | ऐसें जाण ॥ ३४३ ॥
आणि ऋतु बरवा शारदु | शारदीं पुढती चांदु |
चंद्री जैसा संबंधु | पूर्णिमेचा ॥ ३४४ ॥
कां वसंतीं बरवा आरामु | आरामींही प्रियसंगमु |
संगमीं आगमु | उपचारांचा ॥ ३४५ ॥
नाना कमळीं पांडवा | विकासु जैसा बरवा |
विकासींही यावा | परागाचा ॥ ३४६ ॥
वाचे बरवें कवित्व | कवित्वीं बरवें रसिकत्व |
रसिकत्वीं परतत्व | स्पर्शु जैसा ॥ ३४७ ॥
तैसी सर्ववृत्तिवैभवीं | बुद्धिचि एकली बरवी |
बुद्धिही बरव नवी | इंद्रियप्रौढी ॥ ३४८ ॥
बरव=चांगली इंद्रियप्रौढी=इंद्रियसामर्थे शोभा
इंद्रियप्रौढीमंडळा | शृंगारु एकुचि निर्मळा |
जैं अधिष्ठात्रियां कां मेळा | देवतांचा जो ॥ ३४९ ॥
अधिष्ठात्रियां=आधारभूत
म्हणौनि चक्षुरादिकीं दाहें | इंद्रियां पाठीं स्वानुग्रहें |
सूर्यादिकां कां आहे | सुरांचें वृंद ॥ ३५० ॥
स्वानुग्रहें=कृपेने
तें देववृंद बरवें | कर्मकारण पांचवें |
अर्जुना एथ जाणावें | देवो म्हणे ॥ ३५१ ॥
एवं माने तुझिये आयणी | तैसी कर्मजातांची हे खाणी |
पंचविध आकर्णीं | निरूपिली ॥ ३५२ ॥
आयणी=आकलन होईल असे
आतां हेचि खाणी वाढे | मग कर्माची सृष्टि घडे |
जिहीं ते हेतुही उघडे | दाऊं पांचै ॥ ३५३ ॥
by dr. vikrant tikone
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