Monday, September 10, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १७ वा,ओव्या ३२८ ते ३७९




ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ३२८ ते ३७९

ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥ २३॥


तरी अनादि परब्रह्म | जें जगदादि विश्रामधाम |
तयाचें एक नाम | त्रिधा पैं असे ॥ ३२८ ॥

तें कीर अनाम अजाती | परी अविद्यावर्गाचिये राती-/ |
माजी वोळखावया श्रुती | खूण केली ॥ ३२९ ॥

उपजलिया बाळकासी | नांव नाहीं तयापासीं |
ठेविलेनि नांवेंसी | ओ देत उठी ॥ ३३० ॥

कष्टले संसारशीणें | जे देवों येती गाऱ्हाणें |
तयां ओ दे नांवें जेणें | तो संकेतु हा ॥ ३३१ ॥

ब्रह्माचा अबोला फिटावा | अद्वैततत्त्वें तो भेटावा |
ऐसा मंत्रु देखिला कणवा | वेदें बापें ॥ ३३२ ॥
कणवा=करुणा

मग दाविलेनि जेणें एकें | ब्रह्म आळविलें कवतिकें |
मागां असत ठाके | पुढां उभें ॥ ३३३ ॥

परी निगमाचळशिखरीं | उपनिषदार्थनगरीं |
आहाति जे ब्रह्माच्या येकाहारीं | तयांसीच कळे ॥ ३३४ ॥
येकाहारीं=एका पंगतीत
हेंही असो प्रजापती | शक्ति जे सृष्टि करिती |
ते जया एका आवृत्ती | नामाचिये ॥ ३३५ ॥
आवृत्ती=वारवार उच्चार करून

पैं सृष्टीचिया उपक्रमा-/ पूर्वीं गा वीरोत्तमा |
वेडा ऐसा ब्रह्मा | एकला होता ॥ ३३६ ॥


मज ईश्वरातें नोळखे | ना सृष्टिही करूं न शके |
तो थोरु केला एकें | नामें जेणें ॥ ३३७ ॥

जयाचा अर्थु जीवीं ध्यातां | जें वर्णत्रयचि जपतां |
विश्वसृजनयोग्यता | आली तया ॥ ३३८ ॥
वर्णत्रयचि=तीन शब्द

तेधवां रचिलें ब्रह्मजन | तयां वेद दिधलें शासन |
यज्ञा ऐसें वर्तन | जीविकें केलें ॥ ३३९ ॥
ब्रह्मजन=ब्रह्मवृंद शासन =आचरण रित   
जीविकें=जीवनार्थ

पाठीं नेणों किती येर | स्रजिले लोक अपार |
जाले ब्रह्मदत्त अग्रहार | तिन्हीं भुवनें ॥ ३४० ॥

ब्रह्मदत्त =ब्रह्माने दिलेले   अग्रहार=निर्वाहा साठी जमीन

ऐसें नाममंत्रें जेणें | धातया अढंच करणें |
तयाचें स्वरूप आइक म्हणे | श्रीकांतु तो ॥ ३४१ ॥

अढंच=थोर

तरी सर्व मंत्रांचा राजा | तो प्रणवो आदिवर्णु बुझा |
आणि तत्कारु जो दुजा | तिजा सत्कारु ॥ ३४२ ॥

बुझा =जाणा    ओम तत सत

एवं ॐतत्सदाकारु | ब्रह्मनाम हें त्रिप्रकारु |
हें फूल तुरंबी सुंदरु | उपनिषदाचें ॥ ३४३ ॥

तुरंबी=सुगंध घे

येणेंसीं गा होऊनि एक | जैं कर्म चाले सात्त्विक |
तैं कैवल्यातें पाइक | घरींचें करी ॥ ३४४ ॥

परी कापुराचें थळींव | आणून देईल दैव |
लेवों जाणणेंचि आडव | तेथ असे बापा ॥ ३४५ ॥

थळींव=कोरून बनवलेला दागिने
आडव=अडथळा

तैसें आदरिजेल सत्कर्म | उच्चरिजेल ब्रह्मनाम |
परी नेणिजेल जरी वर्म | विनियोगाचें ॥ ३४६ ॥

तरी महंताचिया कोडी | घरा आलियाही वोढी |
मानूं नेणतां परवडी | मुद्दल तुटे ॥ ३४७ ॥

परवडी=रित     मुद्दल तुटे=असलेले पुण्य लया जाईल

कां ल्यावया चोखट | टीक भांगार एकवट |
घालूनि बांधिली मोट | गळा जेवीं ॥ ३४८ ॥

मोट=तोएकत्रित केलेला दागिना

तैसें तोंडीं ब्रह्मनाम | हातीं तें सात्त्विक कर्म |
विनियोगेंवीण काम | विफळ होय ॥ ३४९ ॥

अगा अन्न आणि भूक | पासीं असे परी देख |
जेऊं नेणतां बालक | लंघनचि कीं ॥ ३५० ॥

लंघनचि=उपाशी

का स्नेहसूत्र वैश्वानरा | जालियाही संसारा |
हातवटी नेणतां वीरा | प्रकाशु नोहे ॥ ३५१ ॥

तैसे वेळे कृत्य पावे | तेथिंचा मंत्रुही आठवे |
परी व्यर्थ तें आघवें | विनियोगेंवीण ॥ ३५२ ॥

म्हणौनि वर्णत्रयात्मक | जे हें परब्रह्मनाम एक |
विनियोगु तूं आइक | आतां याचा ॥ ३५३ ॥


तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २४॥


तरी या नामींचीं अक्षरें तिन्हीं | कर्मा आदिमध्यनिदानीं |
प्रयोजावीं पैं स्थानीं | इहीं तिन्हीं ॥ ३५४ ॥

हेंचि एकी हातवटी | घेउनि हन किरीटी |
आले ब्रह्मविद भेटी | ब्रह्माचिये ॥ ३५५ ॥

ब्रह्मेंसीं होआवया एकी | ते न वंचती यज्ञादिकीं |
जे चावळलें वोळखीं | शास्त्रांचिया ॥ ३५६ ॥

न वंचती=न टाकती चावळलें=बोलले  

तो आदि तंव ओंकारु | ध्यानें करिती गोचरु |
पाठीं आणिती उच्चारु | वाचेही तो ॥ ३५७ ॥

तेणें ध्यानें प्रकटें | प्रणवोच्चारें स्पष्टें |
लागती मग वाटे | क्रियांचिये ॥ ३५८ ॥

आंधारीं अभंगु दिवा | आडवीं समर्थु बोळावा |
तैसा प्रणवो जाणावा | कर्मारंभीं ॥ ३५९ ॥

अभंगु =न विझणारा आडवीं=रानात बोळावा=सोबत

उचितदेवोद्देशे | द्रव्यें धर्म्यें आणि बहुवसें |
द्विजद्वारां हन हुताशें | यजिती पैं ते ॥ ३६० ॥

आहवनीयादि वन्ही | निक्षेपरूपीं हवनीं |
यजिती पैं विधानीं | फुडे हौनी ॥ ३६१ ॥

आहवनी=यज्ञातील आहवनिय दक्षिणाग्नी गार्हपत्य अग्नि
निक्षेपरूपीं=त्यागरूपी विधानीं =प्रकारे  फुडे=कुशल

किंबहुना नाना याग | निष्पत्तीचे घेउनि अंग |
करिती नावडतेया त्याग | उपाधीचा ॥ ३६२ ॥

कां न्यायें जोडला पवित्रीं | भूम्यादिकीं स्वतंत्रीं |
देशकाळशुद्ध पात्रीं | देती दानें ॥ ३६३ ॥

अथवा एकांतरां कृच्छ्रीं | चांद्रायणें मासोपवासीं |
शोषोनि गा धातुराशी | करिती तपें ॥ ३६४ ॥

एवं यज्ञदानतपें | जियें गाजती बंधरूपें |
तिहींच होय सोपें | मोक्षाचें तयां ॥ ३६५ ॥

गाजती =प्रसिद्ध   

स्थळीं नावा जिया दाटिजे | जळीं तियांचि जेवीं तरीजे |
तेवीं बंधकीं कर्मीं सुटिजे | नामें येणें ॥ ३६६ ॥

स्थळीं=जमीन

परी हें असो ऐसिया | या यज्ञदानादि क्रिया |
ओंकारें सावायिलिया | प्रवर्तती ॥ ३६७ ॥

सावायिलिया=मदत झाल्याने प्रवर्तती=सिद्ध होतात

तिया मोटकिया जेथ फळीं | रिगों पाहाती निहाळीं |
प्रयोजिती तिये काळीं | तच्छब्दु तो ॥ ३६८ ॥

निहाळीं=पहा  तच्छब्दु= तत शब्द

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपः क्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥ २५॥


जें सर्वांही जगापरौतें | जें एक सर्वही देखतें |
तें तच्छब्दें बोलिजे तें | पैल वस्तु ॥ ३६९ ॥

देखतें=दृष्टे

तें सर्वादिकत्वें चित्तीं | तद्रूप ध्यावूनियां सुमती |
उच्चारेंही व्यक्ती | आणिती पुढती ॥ ३७० ॥

म्हणती तद्रूपा ब्रह्मा तया | फळेंसीं क्रिया इयां |
तेंचि होतु आम्हां भोगावया | कांहींचि नुरो ॥ ३७१ ॥

ऐसेनि तदात्मकें ब्रह्में | तेथ उगाणूनि कर्में |
आंग झाडिती न ममें | येणें बोलें ॥ ३७२ ॥

उगाणूनि=अर्पून

आतां ओंकारें आदरिलें | तत्कारें समर्पिलें |
इया रिती जया आलें | ब्रह्मत्व कर्मा ॥ ३७३ ॥

तें कर्म कीर ब्रह्माकारें | जालें तेणेंही न सरे |
जे करी तेणेंसी दुसरें | आहे म्हणौनि ॥ ३७४ ॥

तेणेंही =तेवढ्याने    करी=कर्ता

मीठ आंगें जळीं विरे | परी क्षारता वेगळी उरे |
तैसें कर्म ब्रह्माकारें | गमे तें द्वैत ॥ ३७५ ॥

आणि दुजे जंव जंव घडे | तंव तंव संसारभय जोडे |
हें देवो आपुलेनि तोंडें | बोलती वेद ॥ ३७६ ॥

म्हणौनि परत्वें ब्रह्म असे | तें आत्मत्वें परीयवसे |
सच्छब्द या रिणादोषें | ठेविला देवें ॥ ३७७ ॥

परत्वें=वेगळे, दुसरे    परीयवसे=अनुभवणे  रिणादोषें=ऋण दोष

तरी ओंकार तत्कारीं | कर्म केलें जें ब्रह्मशरीरीं |
जें प्रशस्तादि बोलवरी | वाखाणिलें ॥ ३७८ ॥

ब्रह्मशरीरीं= ब्रह्मरूप

प्रशस्तकर्मीं तिये | सच्छब्दा विनियोगु आहे |
तोचि आइका होये | तैसा सांगों ॥ ३७९ ॥
by dr. vikrant tikone

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