Sunday, September 9, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १७ वा ओव्या २६६ ते ३२७



ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या २६६ ते ३२७

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ॥
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥ २०॥


तरी स्वधर्मा आंतौतें | जें जें मिळे आपणयातें |
तें तें दीजे बहुतें | सन्मानयोगें ॥ २६६ ॥
आंतौतें=अधीन

जालया सुबीजप्रसंगु | पडे क्षेत्रवाफेचा पांगु |
तैसाचि दानाचा हा लागु | देखतसें ॥ २६७ ॥
पांगु=कमरतता लागु=प्रसंग

अनर्घ्य रत्न हातां चढे | तैं भांगाराची वोढी पडे |
दोनी जालीं तरी न जोडे | लेतें आंग ॥ २६८ ॥
वोढी=कमरता

परी सण सुहृद संपत्ती | हे तिन्ही येकीं मिळती |
जे भाग्य धरी उन्नती | आपुल्याविषयीं ॥ २६९ ॥

तैसें निफजावया दान | जैं सत्त्वासि ये संवाहन |
तैं देश काळ भाजन | द्रव्यही मिळे ॥ २७० ॥
संवाहन=मदत    भाजन=सत्पात्र

तरी आधीं तंव प्रयत्नेंसीं | होआवें कुरुक्षेत्र का काशी |
नातरी तुके जो इहींसीं | तो देशुही हो ॥ २७१ ॥

तेथ रविचंद्रराहुमेळु | होतां पाहे पुण्यकाळु |
का तयासारिखा निर्मळु | आनुही जाला ॥ २७२ ॥

तैशा काळीं तिये देशीं | होआवी पात्र संपत्ती ऐसी |
मूर्ति आहे धरिली जैसी | शुचित्वेंचि कां ॥ २७३ ॥

आचाराचें मूळपीळ | वेदांची उतारपेठ |
तैसें द्विजरत्न चोखट | पावोनियां ॥ २७४ ॥
उतारपेठ=घाट

मग तयाच्या ठाईं वित्ता | निवर्तवावी स्वसत्ता |
परी प्रियापुढें कांता | रिगे जैसी ॥ २७५ ॥
निवर्तवावी=द्यावी

का जयाचें ठेविलें तया | देऊनि होईजे उतराइया |
नाना हडपें विडा राया | दिधला जैसा ॥ २७६ ॥
हडपें=विदा देणारा

तैसेनि निष्कामें जीवें | भूम्यादिक अर्पावें |
किंबहुना हांवे | नेदावें उठों ॥ २७७ ॥
हांवे=आशा

आणि दान जया द्यावें | तयातें ऐसेया पाहावें |
जया घेतलें नुमचवे | कायसेंनही ॥ २७८ ॥
नुमचवे=परतफेड होणार नाही

साद घातलिया आकाशा | नेदी प्रतिशब्दु जैसा |
का पाहिला आरसा | येरीकडे ॥ २७९ ॥

येरीकडे=पाठीमागे पाठमोरा
नातरी उदकाचिये भूमिके | आफळिलेनि कंदुकें |
उधळौनि कवतिकें | न येईजे हाता ॥ २८० ॥
आफळिलेनि=आपटला  कंदुके=चेंडू

नाना वसो घातला चारू | माथां तुरंबिला बुरू |
न करी प्रत्युपकारू | जियापरी ॥ २८१ ॥
वसो=गाव वळू माथां तुरंबिला=मान  दिला  
बुरू=कृतघ्न

तैसें दिधलें दातयाचें | जो कोणेही आंगें नुमचे |
अर्पिलया साम्य तयाचें | कीजे पैं गा ॥ २८२ ॥

नुमच=परतफेड

ऐसिया जें सामग्रिया | दान निफजे वीरराया |
तें सात्त्विक दानवर्या | सर्वांही जाण ॥ २८३ ॥

आणि तोचि देशु काळु | घडे तैसाचि पात्रमेळु |
दानभागुही निर्मळु | न्यायगतु ॥ २८४ ॥

न्यायगतु=धर्मानुसार

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ २१॥


परी मनीं धरूनि दुभतें | चारिजे जेवीं गाईतें |
का पेंव करूनि आइतें | पेरूं जाइजे ॥ २८५ ॥

पेंव=धन्य कोठार

नाना दिठी घालुनि आहेरा | अवंतुं जाइजे सोयिरा |
का वाण धाडिजे घरा | वोवसीयाचे ॥ २८६ ॥

वोवसीयाचे= न घेण्याचे व्रत घेतलेल्या कडे

पैं कळांतर गांठीं बांधिजे | मग पुढिलांचें काज कीजे |
पूजा घेऊनि रसु दीजे | पीडितांसी ॥ २८७ ॥

कळांतर=व्याज   पूजा=द्रव्य रसु=औषध

तैसें जया जें दान देणें | तो तेणेंचि गा जीवनें |
पुढती भुंजावा भावें येणें | दीजे जें का ॥ २८८ ॥

भुंजावा= उपकृत नम्र  

अथवा कोणी वाटे जातां | घेतलें उमचों न शकता |
मिळे जैं पंडुसुता | द्विजोत्तमु ॥ २८९ ॥

उमचों=परतफेड

तरी कवड्या एकासाठीं | अशेषां गोत्रांचींच किरीटी |
सर्व प्रायश्चित्तें सुयें मुठीं | तयाचिये ॥ २९० ॥

सुयें मुठीं=हातून सोडणे (प्रायश्चित्तोदक )

तेवींचि पारलौकिकें | फळें वांछिजती अनेकें |
आणि दीजे तरी भुके | येकाही नोहे ॥ २९१ ॥

तेंही ब्राह्मणु नेवो सरे | कीं हाणिचेनि शिणें झांसुरें |
सर्वस्व जैसें चोरें | नागऊनि नेलें ॥ २९२ ॥

झांसुरें=झुरणे

बहु काय सांगों सुमती | जें दीजे या मनोवृत्ती |
तें दान गा त्रिजगतीं | राजस पैं ॥ २९३ ॥


अदेशकाले यद्दनमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२॥


मग म्लेंच्छांचे वसौटें | दांगाणे हन कैकटे |
का शिबिरें चोहटे | नगरींचे ते ॥ २९४ ॥

वसौटें =वसतिस्थान   दांगाणे=जंगल    कैकटे=स्मशान
चोहटे= चव्हाटावर शिबिरें=छावण्यात

तेही ठाईं मिळणी | समयो सांजवेळु कां रजनी |
तेव्हां उदार होणें धनीं | चोरियेच्या ॥ २९५ ॥

पात्रें भाट नागारी | सामान्य स्त्रिया का जुवारी |
जिये मूर्तिमंते भुररीं | भुले तया ॥ २९६ ॥

नागारी=गारुडी    भुररीं=भूल घालणारी

रूपानृत्याची पुरवणी | ते पुढां डोळेभारणी |
गीत भाटीव तो श्रवणीं | कर्णजपु ॥ २९७ ॥

तयाहीवरी अळुमाळु | जैं घे फुलागंधाचा गुगुळु |
तंव भ्रमाचा तो वेताळु | अवतरे तैसा ॥ २९८ ॥

गुगुळु=परिमळू, वास

तेथ विभांडूनियां जग | आणिले पदार्थ अनेग |
तेणें घालूं लागे मातंग | गवादी जैसी ॥ २९९ ॥

मातंग=चोर लुटारु    गवादी=गावजेवण

एवं ऐसेनि जें देणें | तें तामस दान मी म्हणें |
आणि घडे दैवगुणें | आणिकही ऐक ॥ ३०० ॥

विपायें घुणाक्षर पडे | टाळिये काउळा सांपडे |
तैसे तामसां पर्व जोडे | पुण्यदेशीं ॥ ३०१ ॥

घुणाक्षर=घृणाक्षर
(लाकूड किड्यांनी उमटवलेली लाकडवरील अक्षरासारखी नक्षी )
टाळिये=टाळी वाजवता ? कावळा बसयला व फांदी तुटायला

तेथ देखोनि तो आथिला | योग्यु मागोंही आला |
तोही दर्पा चढला | भांबावें जरी ॥ ३०२ ॥

भांबावें=गुंग  असणे

तरी श्रद्धा न धरी जिवीं | तया माथाही न खालवी |
स्वयें न करी ना करवी | अर्घ्यादिक ॥ ३०३ ॥

आलिया न घली बैसों | तेथ गंधाक्षतांचा काय अतिसो |
हा अप्रसंगु कीर असो | तामसीं नरीं ॥ ३०४ ॥

पैं बोळविजे रिणाइतु | तैसा झकवी तयाचा हातु |
तूं करणें याचा बहुतु | प्रयोगु तेथ ॥ ३०५ ॥

रिणाइतु=ऋणी  झकवी=झटकणे   तूं करणें=(असा एकेरी प्रयोग )

आणि जया जें दे किरीटी | तयातें उमाणी तयासाठीं |
मग कुबोलें कां लोटी | अवज्ञेच्या ॥ ३०६ ॥

उमाणी= मोल करणे झाडा घेणे

हें बहु असो यापरी | मोल वेंचणें जें अवधारीं |
तया नांव चराचरीं | तामस दान ॥ ३०७ ॥

ऐशीं आपुलाला चिन्हीं | अळंकृतें तिन्हीं |
दानें दाविलीं अभिधानीं | रजतमाचिया ॥ ३०८ ॥

अभिधानीं=नावाची

तेथ मी जाणत असें | विपायें तूं गा ऐसें |
कल्पिसील मानसें | विचक्षणा ॥ ३०९ ॥

जें भवबंधमोचक | येकलें कर्म सात्त्विक |
तरी कां वेखासी सदोख | येर बोलावीं ? ॥ ३१० ॥

वेखासी=विरूद्ध

परी नोसंतितां विवसी | भेटी नाहीं निधीसी |
का धूं न साहतां जैसी | वाती न लगे ॥ ३११ ॥

नोसंतितां=निवारण  विवसी=हडळ

तैसें शुद्धसत्त्वाआड | आहे रजतमाचें कवाड |
तें भेदणे यातें कीड | म्हणावें कां ? ॥ ३१२ ॥

कीड=वाईट अशुद्ध

आम्ही श्रद्धादि दानांत | जें समस्तही क्रियाजात |
सांगितलें कां व्याप्त | तिहीं गुणीं ॥ ३१३ ॥

तेथ भरंवसेनि तिन्ही | न सांगोंचि ऐसें मानीं |
परी सत्त्व दावावया दोन्ही | बोलिलों येरें ॥ ३१४ ॥

जें दोहींमाजीं तिजें असे | तें दोन्ही सांडितांचि दिसे |
अहोरात्रत्यागें जैसें | संध्यारूप ॥ ३१५ ॥

तैसें रजतमविनाशें | तिजें जें उत्तम दिसे |
तें सत्त्व हें आपैसें | फावासि ये ॥ ३१६ ॥

एवं दाखवावया सत्त्व तुज | निरूपिलें तम रज |
तें सांडूनि सत्त्वें काज | साधीं आपुलें ॥ ३१७ ॥

सत्त्वेंचि येणें चोखाळें | करीं यज्ञादिकें सकळें |
पावसी तैं करतळें | आपुलें निज ॥ ३१८ ॥

निज=स्वरूप

सूर्यें दाविलें सांतें | काय एक न दिसे तेथें |
तेवीं सत्त्वें केलें फळातें | काय नेदी ? ॥ ३१९ ॥

सांतें=स्पष्ट

हे कीर आवडतांविखीं | शक्ति सत्त्वीं आथी निकी |
परी मोक्षेंसी एकीं | मिसळणें जें ॥ ३२० ॥

तें एक आनचि आहे | तयाचा सावावो जैं लाहे |
तैं मोक्षाचाही होये | गांवीं सरतें ॥ ३२१ ॥

सावावो=मदत

पैं भांगार जऱ्हीं पंधरें | तऱ्ही राजावळींचीं अक्षरें |
लाहें तैंचि सरे | जियापरी ॥ ३२२ ॥

सरे=( मुद्रा म्हणून) चालतात

स्वच्छें शीतळें सुगंधें | जळें होती सुखप्रदें |
परी पवित्रत्व संबंधें | तीर्थाचेनि ॥ ३२३ ॥

नयी हो कां भलतैसी थोरी | परी गंगा जैं अंगीकारी |
तैंचि तिये सागरीं | प्रवेशु गा ॥ ३२४ ॥

नयी=नदी

तैसें सात्त्विका कर्मां किरीटी | येतां मोक्षाचिये भेटी |
न पडे आडकाठी | तें वेगळें आहे ॥ ३२५ ॥

हा बोलु आइकतखेवीं | अर्जुना आधि न माये जीवीं |
म्हणे देवें कृपा करावी | सांगावें तें ॥ ३२६ ॥

आधि=इच्छा उत्कंठा

तेथ कृपाळुचक्रवर्ती | म्हणे आईक तयाची व्यक्ती |
जेणें सात्त्विक तें मुक्ती- | रत्न देखे ॥ ३२७ ॥
व्यक्ती=विवेचन
by dr. vikrant tikone

******************************************************


No comments:

Post a Comment