ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या२१६ ते २६५ (त्रिविध
तप)
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ १५॥
तरी लोहाचें आंग तुक | न तोडितांचि कनक |
केलें जैसें देख | परीसें तेणें ॥ २१६ ॥
आंग=आकार तुक=वजन
तैसें न दुखवितां सेजे | जावळिया सुख निपजे |
ऐसें साधुत्व कां देखिजे | बोलणां जिये ॥ २१७ ॥
सेजे = से जे (ऐकणारे ) जावळिया= जवळील व्यक्तीस
बोलणां=बोलण्यात
पाणी मुदल झाडा जाये | तृण ते प्रसंगेंचि जियें |
तैसें एका बोलिलें होये | सर्वांहि हित ॥ २१८ ॥
जोडे अमृताची सुरसरी | तैं प्राणांतें अमर करी |
स्नानें पाप ताप वारी | गोडीही दे ॥ २१९ ॥
सुरसरी=नदी
तैसा अविवेकुही फिटे | आपुलें अनादित्व भेटे |
आइकतां रुचि न विटे | पीयुषीं जैसी ॥ २२० ॥
जरी कोणी करी पुसणें | तरी होआवें ऐसें बोलणें |
नातरी अवर्तणें | निगमु का नाम ॥ २२१ ॥
अवर्तणें=वरवर म्हणणे निगमु=वेद
ऋग्वेदादि तिन्ही | प्रतिष्ठीजती वाग्भुवनीं |
केली जैसी वदनीं | ब्रह्मशाळा ॥ २२२ ॥
नातरी एकाधें नांव | तेंचि शैव का वैष्णव |
वाचे वसे तें वाग्भव | तप जाणावें ॥ २२३ ॥
वाग्भव=वाचेत उगम पावणारे
आतां तप जें मानसिक | तेंही सांगों आइक |
म्हणे लोकनाथनायक | नायकु तो ॥ २२४ ॥
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६॥
तरी सरोवर तरंगीं | सांडिलें आकाश मेघीं |
का चंदनाचें उरगीं | उद्यान जैसें ॥ २२५ ॥
आतां तप जें मानसिक | तेंही सांगों आइक |
म्हणे लोकनाथनायक | नायकु तो ॥ २२४ ॥
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६॥
तरी सरोवर तरंगीं | सांडिलें आकाश मेघीं |
का चंदनाचें उरगीं | उद्यान जैसें ॥ २२५ ॥
उरगीं=साप
नाना कळावैषम्यें चंद्रु | कां सांडिला आधीं नरेंद्रु |
नातरी क्षीरसमुद्रु | मंदराचळें ॥ २२६ ॥
आधीं=चिंता
तैसीं नाना विकल्पजाळें
| सांडुनि गेलिया सकळें |
मन राहे का केवळें | स्वरूपें जें ॥ २२७ ॥
मन राहे का केवळें | स्वरूपें जें ॥ २२७ ॥
तपनेंवीण प्रकाशु | जाड्येंवीण रसीं रसु |
पोकळीवीण अवकाशु | होय जैसा ॥ २२८ ॥
तपनेंवीण=
उष्णता
जाड्येंवीण=
माद्य
आणल्या शिवाय (चोथ्याविना )
तैसी आपली सोय देखे | आणि आपलिया स्वभावा मुके |
हिंवली जैसी आंगिकें | हिवों नेदी निजांग ॥ २२९ ॥
सोय=विश्राम
हिंवली=
बर्फ
(गारा) हिवों=थंडीने
(थंडीने
थंडीला थंडी न वाजणे असा ही अर्थ )
तैसें न चलतें कळंकेंवीण | शशिबिंब जैसें परीपूर्ण |
तैसें चोखी शृंगारपण | मनाचें जें ॥ २३० ॥
चोखी=शुद्ध
बुजाली वैराग्याची वोरप | जिराली मनाची धांप कांप |
तेथ केवळ जाली वाफ | निजबोधाची ॥ २३१ ॥
वोरप=धाव इच्छा
म्हणौनि विचारावया शास्त्र | राहाटवावें जें वक्त्र |
तें वाचेचेंही सूत्र | हातीं न धरी ॥ २३२ ॥
वक्त्र=तोंड
तें स्वलाभ लाभलेपणें | मन मनपणाही धरूं नेणें |
शिवतलें जैसें लवणें | आपुलें निज ॥ २३३ ॥
शिवतलें=स्पर्शले निज=मूळ (पाणी )
तेथ कें उठिती ते भाव | जिहीं इंद्रियमार्गीं धांव |
घेऊनि ठाकावे गांव | विषयांचे ते ॥ २३४ ॥
म्हणौनि तिये मानसीं | भावशुद्धिचि असे अपैसी |
रोमशुचि जैसी | तळहातासी ॥ २३५ ॥
काय बहु बोलों अर्जुना | जैं हे दशा ये मना |
तैं मनोतपाभिधाना | पात्र होय ती ॥ २३६ ॥
अभिधाना= नाव
परी ते असो हें जाण | मानस तपाचें लक्षण |
देवो म्हणे संपूर्ण | सांगितलें ॥ २३७ ॥
एवं देहवाचाचित्तें | जें पातलें त्रिविधत्वातें |
तें सामान्य तप तूतें | परीसविलें गा ॥ २३८ ॥
आतां गुणत्रयसंगें | हेंचि विशेषीं त्रिविधीं रिगे |
तेंही आइक चांगें | प्रज्ञाबळें ॥ २३९ ॥
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७॥
तरी हेंचि तप त्रिविधा | जें दाविलें तुज प्रबुद्धा |
तेंचि करीं पूर्णश्रद्धा | सांडूनि फळ ॥ २४० ॥
जैं पुरतिया सत्त्वशुद्धी | आचरिजे आस्तिक्यबुद्धी |
तैं तयातेंचि गा प्रबुद्धी | सात्त्विक म्हणिपे ॥ २४१ ॥
प्रबुद्धी=ज्ञाते
सत्कारमानपूजार्थं तपो दंभेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवं ॥ १८॥
नातरी तपस्थापनेलागीं | दुजेपण मांडूनि जगीं |
महत्त्वाच्या शृंगीं | बैसावया ॥ २४२ ॥
शृंगीं=शिखरी
त्रिभुवनींचिया सन्माना | न वचावें ठाया आना |
धुरेचिया आसना | भोजनालागीं ॥ २४३ ॥
वचावें =जाणे ओघळणे धुरेचिया=पहिल्या मुख्य
विश्वाचिया स्तोत्रा | आपण होआवया पात्रा |
विश्वें आपलिया यात्रा | कराविया यावें ॥ २४४ ॥
लोकांचिया विविधा पूजा | आश्रयो न धरावया दुजा |
भोग भोगावे वोजा | महत्त्वाचिया ॥ २४५ ॥
वोजा=योग्यतेचे
अंग बोल माखूनि तपें | विकावया आपणपें |
अंगहीन पडपे | जियापरी ॥ २४६ ॥
अंग=स्वत: अंगहीन=वेश्या पडपे=शृंगार करणे
हें असो धनमानीं आस | वाढौनी तप कीजे सायास |
तैं तेंचि तप राजस | बोलिजे गा ॥ २४७ ॥
परी पहुरणी जें दुहिलें | तैं तें गुरूं न दुभेचि व्यालें |
का उभें शेत चारिलें | पिकावया नुरे ॥ २४८ ॥
पहुरणी=पुन्हा गर्भावस्थे पर्यन्त दूध
देणारी गाय
एक विशिष्ट
किडा जो आचाळला लागला की दूध गाय देत नाही
गुरूं=गुरे
तैसें फोकारितां तप | कीजे जें साक्षेप |
तें फळीं तंव सोप | निःशेष जाय ॥ २४९ ॥
फोकारितां=प्रसिद्धी करता साक्षेप=कष्टणे सोप=व्यर्थ
ऐसें निर्फळ देखोनि करितां | माझारीं सांडी पंडुसुता |
म्हणौनि नाहीं स्थिरता | तपा तया ॥ २५० ॥
माझारीं
सांडी=मध्येच सोडी
एऱ्हवीं तरी आकाश मांडी | जो गर्जोनि ब्रह्मांड फोडी |
तो अवकाळु मेघु काय घडी | राहात आहे ? ॥ २५१ ॥
तैसें राजस तप जें होये | तें फळीं कीर वांझ जाये |
परी आचरणींही नोहे | निर्वाहतें गा ॥ २५२ ॥
निर्वाहतें=टिकते
आतां तेंचि तप पुढती | तामसाचिये रीती |
पैं परत्रा आणि कीर्ती | मुकोनि कीजे ॥ २५३ ॥
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १९॥
केवळ मूर्खपणाचा वारा | जीवीं घेऊनि धनुर्धरा |
नाम ठेविजे शरीरा | वैरियाचें ॥ २५४ ॥
पंचाग्नीची दडगी | खोलवीजती शरीरालागीं |
का इंधन कीजे हें आगी | आंतु लावी ॥ २५५ ॥
दडगी=भट्टी खोलवीजती=लावतात
माथां जाळिजती गुगुळु | पाठीं घालिजती गळु |
आंग जाळिती इंगळु | जळतभीतां ॥ २५६ ॥
इंगळु = अंगार जळतभीतां= ज्वाल निघणार्या
दवडोनि श्वासोच्छ्वास | कीजती वायांचि उपवास |
कां घेपती धूमाचें घांस | अधोमुखें ॥ २५७ ॥
हिमोदकें आकंठें | खडकें सेविजती तटें |
जितया मांसाचे चिमुटे | तोडिती जेथ ॥ २५८ ॥
तटें=किनारा चिमुटे=तुकडे
ऐसी नानापरी हे काया | घाय सूतां पैं धनंजया |
तप कीजे नाशावया | पुढिलातें ॥ २५९ ॥
घाय
सूतां=घाव घालून
आंगभारें सुटला धोंडा | आपण फुटोनि होय खंडखंडा |
कां आड जालियातें रगडा | करी जैसा ॥ २६० ॥
तेवीं आपलिया आटणिया | सुखें असतया प्राणिया |
जिणावया शिराणिया | कीजती गा ॥ २६१ ॥
आटणिया=नुकसान करून शिराणिया=तप त्रास
किंबहुना हे वोखटी | घेऊनि क्लेशाची हातवटी |
तप निफजे तें किरीटी | तामस होय ॥ २६२ ॥
वोखटी=वाईट
एवं सत्त्वादिकांच्या आंगीं | पाडिलें तप तिहीं भागीं |
जालें तेंही तुज चांगी | दाविलें व्यक्ती ॥ २६३ ॥
आतां बोलतां प्रसंगा | आलें म्हणौनि पैं गा |
करूं रूप दानलिंगा | त्रिविधा तया ॥ २६४ ॥
येथ गुणाचेनि बोलें | दानही त्रिविध असे जालें |
तेंचि आइक पहिलें | सात्त्विक ऐसें ॥ २६५ ॥
by dr. vikrant tikone
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