Saturday, September 1, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १७ वा ओव्या२१६ ते २६५





ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या२१६ ते २६५ (त्रिविध तप)

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ १५॥


तरी लोहाचें आंग तुक | न तोडितांचि कनक |
केलें जैसें देख | परीसें तेणें ॥ २१६ ॥
आंग=आकार  तुक=वजन

तैसें न दुखवितां सेजे | जावळिया सुख निपजे |
ऐसें साधुत्व कां देखिजे | बोलणां जिये ॥ २१७ ॥
सेजे =   से जे (ऐकणारे )  जावळिया= जवळील व्यक्तीस
बोलणां=बोलण्यात

पाणी मुदल झाडा जाये | तृण ते प्रसंगेंचि जियें |
तैसें एका बोलिलें होये | सर्वांहि हित ॥ २१८ ॥

जोडे अमृताची सुरसरी | तैं प्राणांतें अमर करी |
स्नानें पाप ताप वारी | गोडीही दे ॥ २१९ ॥
सुरसरी=नदी

तैसा अविवेकुही फिटे | आपुलें अनादित्व भेटे |
आइकतां रुचि न विटे | पीयुषीं जैसी ॥ २२० ॥

जरी कोणी करी पुसणें | तरी होआवें ऐसें बोलणें |
नातरी अवर्तणें | निगमु का नाम ॥ २२१ ॥
अवर्तणें=वरवर म्हणणे   निगमु=वेद

ऋग्वेदादि तिन्ही | प्रतिष्ठीजती वाग्भुवनीं |
केली जैसी वदनीं | ब्रह्मशाळा ॥ २२२ ॥
 
नातरी एकाधें नांव | तेंचि शैव का वैष्णव |
वाचे वसे तें वाग्भव | तप जाणावें ॥ २२३ ॥
 वाग्भव=वाचेत उगम  पावणारे
आतां तप जें मानसिक | तेंही सांगों आइक |
म्हणे लोकनाथनायक | नायकु तो ॥ २२४ ॥


मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६॥


तरी सरोवर तरंगीं | सांडिलें आकाश मेघीं |
का चंदनाचें उरगीं | उद्यान जैसें ॥ २२५ ॥
उरगीं=साप

नाना कळावैषम्यें चंद्रु | कां सांडिला आधीं नरेंद्रु |
नातरी क्षीरसमुद्रु | मंदराचळें ॥ २२६ ॥

आधीं=चिंता
तैसीं नाना विकल्पजाळें | सांडुनि गेलिया सकळें |
मन राहे का केवळें | स्वरूपें जें ॥ २२७ ॥

तपनेंवीण प्रकाशु | जाड्येंवीण रसीं रसु |
पोकळीवीण अवकाशु | होय जैसा ॥ २२८ ॥
तपनेंवीण= उष्णता   जाड्येंवीण= माद्य आणल्या शिवाय  (चोथ्याविना )

तैसी आपली सोय देखे | आणि आपलिया स्वभावा मुके |
हिंवली जैसी आंगिकें | हिवों नेदी निजांग ॥ २२९ ॥
सोय=विश्राम

हिंवली= बर्फ (गारा)   हिवों=थंडीने
(थंडीने थंडीला थंडी न वाजणे असा ही अर्थ )

तैसें न चलतें कळंकेंवीण | शशिबिंब जैसें परीपूर्ण |
तैसें चोखी शृंगारपण | मनाचें जें ॥ २३० ॥
चोखी=शुद्ध

बुजाली वैराग्याची वोरप | जिराली मनाची धांप कांप |
तेथ केवळ जाली वाफ | निजबोधाची ॥ २३१ ॥
वोरप=धाव इच्छा

म्हणौनि विचारावया शास्त्र | राहाटवावें जें वक्त्र |
तें वाचेचेंही सूत्र | हातीं न धरी ॥ २३२ ॥
वक्त्र=तोंड

तें स्वलाभ लाभलेपणें | मन मनपणाही धरूं नेणें |
शिवतलें जैसें लवणें | आपुलें निज ॥ २३३ ॥
शिवतलें=स्पर्शले निज=मूळ (पाणी )

तेथ कें उठिती ते भाव | जिहीं इंद्रियमार्गीं धांव |
घेऊनि ठाकावे गांव | विषयांचे ते ॥ २३४ ॥

म्हणौनि तिये मानसीं | भावशुद्धिचि असे अपैसी |
रोमशुचि जैसी | तळहातासी ॥ २३५ ॥

काय बहु बोलों अर्जुना | जैं हे दशा ये मना |
तैं मनोतपाभिधाना | पात्र होय ती ॥ २३६ ॥
भिधाना= नाव

परी ते असो हें जाण | मानस तपाचें लक्षण |
देवो म्हणे संपूर्ण | सांगितलें ॥ २३७ ॥

एवं देहवाचाचित्तें | जें पातलें त्रिविधत्वातें |
तें सामान्य तप तूतें | परीसविलें गा ॥ २३८ ॥

आतां गुणत्रयसंगें | हेंचि विशेषीं त्रिविधीं रिगे |
तेंही आइक चांगें | प्रज्ञाबळें ॥ २३९ ॥


श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७॥


तरी हेंचि तप त्रिविधा | जें दाविलें तुज प्रबुद्धा |
तेंचि करीं पूर्णश्रद्धा | सांडूनि फळ ॥ २४० ॥
जैं पुरतिया सत्त्वशुद्धी | आचरिजे आस्तिक्यबुद्धी |
तैं तयातेंचि गा प्रबुद्धी | सात्त्विक म्हणिपे ॥ २४१ ॥

प्रबुद्धी=ज्ञाते

सत्कारमानपूजार्थं तपो दंभेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवं ॥ १८॥


नातरी तपस्थापनेलागीं | दुजेपण मांडूनि जगीं |
महत्त्वाच्या शृंगीं | बैसावया ॥ २४२ ॥
शृंगीं=शिखरी

त्रिभुवनींचिया सन्माना | न वचावें ठाया आना |
धुरेचिया आसना | भोजनालागीं ॥ २४३ ॥
वचावें =जाणे ओघळणे  धुरेचिया=पहिल्या मुख्य

विश्वाचिया स्तोत्रा | आपण होआवया पात्रा |
विश्वें आपलिया यात्रा | कराविया यावें ॥ २४४ ॥

लोकांचिया विविधा पूजा | आश्रयो न धरावया दुजा |
भोग भोगावे वोजा | महत्त्वाचिया ॥ २४५ ॥
वोजा=योग्यतेचे

अंग बोल माखूनि तपें | विकावया आपणपें |
अंगहीन पडपे | जियापरी ॥ २४६ ॥
अंग=स्वत: अंगहीन=वेश्या  पडपे=शृंगार करणे

हें असो धनमानीं आस | वाढौनी तप कीजे सायास |
तैं तेंचि तप राजस | बोलिजे गा ॥ २४७ ॥

परी पहुरणी जें दुहिलें | तैं तें गुरूं न दुभेचि व्यालें |
का उभें शेत चारिलें | पिकावया नुरे ॥ २४८ ॥
पहुरणी=पुन्हा गर्भावस्थे पर्यन्त दूध देणारी गाय
एक विशिष्ट किडा जो आचाळला लागला की दूध गाय  देत नाही
गुरूं=गुरे

तैसें फोकारितां तप | कीजे जें साक्षेप |
तें फळीं तंव सोप | निःशेष जाय ॥ २४९ ॥
फोकारितां=प्रसिद्धी करता   साक्षेप=कष्टणे  सोप=व्यर्थ  

ऐसें निर्फळ देखोनि करितां | माझारीं सांडी पंडुसुता |
म्हणौनि नाहीं स्थिरता | तपा तया ॥ २५० ॥
माझारीं सांडी=मध्येच सोडी

एऱ्हवीं तरी आकाश मांडी | जो गर्जोनि ब्रह्मांड फोडी |
तो अवकाळु मेघु काय घडी | राहात आहे ? ॥ २५१ ॥

तैसें राजस तप जें होये | तें फळीं कीर वांझ जाये |
परी आचरणींही नोहे | निर्वाहतें गा ॥ २५२ ॥
निर्वाहतें=टिकते

आतां तेंचि तप पुढती | तामसाचिये रीती |
पैं परत्रा आणि कीर्ती | मुकोनि कीजे ॥ २५३ ॥


मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १९॥


केवळ मूर्खपणाचा वारा | जीवीं घेऊनि धनुर्धरा |
नाम ठेविजे शरीरा | वैरियाचें ॥ २५४ ॥

पंचाग्नीची दडगी | खोलवीजती शरीरालागीं |
का इंधन कीजे हें आगी | आंतु लावी ॥ २५५ ॥
दडगी=भट्टी  खोलवीजती=लावतात

माथां जाळिजती गुगुळु | पाठीं घालिजती गळु |
आंग जाळिती इंगळु | जळतभीतां ॥ २५६ ॥
इंगळु = अंगार   जळतभीतां= ज्वाल निघणार्‍या

दवडोनि श्वासोच्छ्वास | कीजती वायांचि उपवास |
कां घेपती धूमाचें घांस | अधोमुखें ॥ २५७ ॥

हिमोदकें आकंठें | खडकें सेविजती तटें |
जितया मांसाचे चिमुटे | तोडिती जेथ ॥ २५८ ॥
तटें=किनारा  चिमुटे=तुकडे

ऐसी नानापरी हे काया | घाय सूतां पैं धनंजया |
तप कीजे नाशावया | पुढिलातें ॥ २५९ ॥
घाय सूतां=घाव घालून

आंगभारें सुटला धोंडा | आपण फुटोनि होय खंडखंडा |
कां आड जालियातें रगडा | करी जैसा ॥ २६० ॥

तेवीं आपलिया आटणिया | सुखें असतया प्राणिया |
जिणावया शिराणिया | कीजती गा ॥ २६१ ॥
आटणिया=नुकसान करून  शिराणिया=तप त्रास

किंबहुना हे वोखटी | घेऊनि क्लेशाची हातवटी |
तप निफजे तें किरीटी | तामस होय ॥ २६२ ॥
वोखटी=वाईट

एवं सत्त्वादिकांच्या आंगीं | पाडिलें तप तिहीं भागीं |
जालें तेंही तुज चांगी | दाविलें व्यक्ती ॥ २६३ ॥

आतां बोलतां प्रसंगा | आलें म्हणौनि पैं गा |
करूं रूप दानलिंगा | त्रिविधा तया ॥ २६४ ॥
येथ गुणाचेनि बोलें | दानही त्रिविध असे जालें |
तेंचि आइक पहिलें | सात्त्विक ऐसें ॥ २६५ ॥

by dr. vikrant tikone

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