ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ११ ते ८६
हे काय एकैक ऐसैसें | नानापरीभाषावशें |
स्तोत्र करूं तुजोद्देशें | निर्विशेषा ॥ ११ ॥
जिहीं विशेषणीं विशेषिजे | तें दृश्य नव्हे रूप तुझें |
हें जाणें मी म्हणौनि लाजें | वानणा इहीं ॥ १२ ॥
वानणा=स्तुति करणे
परी मर्यादेचा सागरु | हा तंवचि तया डगरु |
जंव न देखे सुधाकरु | उदया आला ॥ १३ ॥
डगरु= नाव लौकिक ,कीर्ती
सोमकांतु निजनिर्झरीं | चंद्रा अर्घ्यादिक न करी |
तें तोचि अवधारीं | करवी कीं जी ॥ १४ ॥
नेणों कैसी वसंतसंगें | अवचितिया वृक्षाचीं अंगें |
फुटती तैं हे तयांहि जोगें | धरणें नोहे ? ॥ १५ ॥
धरणें=थोपवणे (स्वाधीन नसणे)
पद्मिनी रविकिरण | लाहे मग लाजें कवण ? |
कां जळें शिवतलें लवण | आंग भुले ॥ १६ ॥
लवण=मीठ
तैसा तूतें जेथ मी स्मरें | तेथ मीपण मी विसरें |
मग जाकळिला ढेंकरें | तृप्तु जैसा ॥ १७ ॥
जाकळिला=ग्रासणे (व्यापणे, एका मागून एक अश्या
)
मज तुवां जी केलें तैसें | माझें मीपण दवडूनि देशें |
स्तुतिमिषेंच पां पिसें | बांधलें वाचे ॥ १८ ॥
तुम्हीच असे केले की..
ना येऱ्हवीं तरी आठवीं | राहोनि स्तुति जैं करावी |
तैं गुणागुणिया धरावी | सरोभरी कीं ॥ १९ ॥
आठवीं | राहोनि=स्वत:चे स्म्ररण राहून
गुणागुणिया=गुणसंगे गुणातीता
सरोभरी= तुलना , बरोबरी
तरी तूं जी एकरसाचें लिंग | केवीं करूं गुणागुणीं विभाग |
मोतीं फोडोनि सांधितां चांग | कीं तैसेंचि भलें ॥ २० ॥
आणि बाप तूं माय | इहीं बोलीं ना स्तुति होय |
डिंभोपाधिक आहे | विटाळु तेथें ॥ २१ ॥
डिंभोपाधिक=लेकरू हीच एक उपाधी
विटाळु=दोष
जी जालेनि पाइकें आलें | तें गोसावीपण केवीं बोलें ? |
ऐसें उपाधी उशिटलें | काय वर्णूं ॥ २२ ॥
जालेनि-जन्मत: गोसावीपण=मालकपण
जरी आत्मा तूं एकसरा | हेंही म्हणतां दातारा |
तरी आंतुल तूं बाहेरा | घापतासी ॥ २३ ॥
घापतासी=बाहेर घालवणे (असे होईल )
म्हणौनि सत्यचि तुजलागीं | स्तुति न देखों जी जगीं |
मौनावांचूनि लेणें आंगीं | सुसीना मा ॥ २४ ॥
सुसीना=घालणे
स्तुति कांहीं न बोलणें | पूजा कांहीं न करणें |
सन्निधी कांहीं न होणें | तुझ्या ठायीं॥ २५ ॥
तरी जिंतलें जैसें भुली | पिसें आलापु घाली |
तैसें वानूं तें माऊली | उपसाहावें तुवां ॥ २६ ॥
आलापु=दु:ख, रडणे
आतां गीतार्थाची मुक्तमुदी | लावीं माझिये वाग्वृद्धी |
जे माने हे सभासदीं | सज्जनांच्या ॥ २७ ॥
मुक्त=मोती मुदी=अंगठी मधील मुद्रा
माने=सन्मान
तेथ म्हणितलें श्रीनिवृत्ती | नको हें पुढतपुढती |
परीसीं लोहा घृष्टी किती | वेळवेळां कीजे गा | ॥ २८ ॥
घृष्टी=घासावा
तंव विनवी ज्ञानदेवो | म्हणे हो कां जी पसावो |
तरी अवधान देतु देवो | ग्रंथा आतां ॥ २९ ॥
पसावो=प्रसाद
जी गीतारत्नप्रासादाचा | कळसु अर्थचिंतामणीचा |
सर्व गीतादर्शनाचा | पाढाऊं जो ॥ ३० ॥
पाढाऊं=वाटाड्या
लोकीं तरी आथी ऐसें | जे दुरूनि कळसु दिसे |
आणी भेटीचि हातवसे | देवतेची तिये ॥ ३१ ॥
आथी=आहे हातवसे=हाती येणे (भेट झाली असे )
तैसेंचि एथही आहे | जे एकेचि येणें अध्यायें |
आघवाचि दृष्ट होये | गीतागमु हा ॥ ३२ ॥
मी कळसु याचि कारणें | अठरावा अध्यायो म्हणें |
उवाइला बादरायणें | गीताप्रासादा ॥ ३३ ॥
उवाइला= उभारला (सांगितला) बादरायणें=व्यासांनी
नोहे कळसापरतें कांहीं | प्रासादीं काम नाहीं |
तें सांगतसे गीता ही | संपलेपणें ॥ ३४ ॥
व्यासु सहजें सूत्री बळी | तेणें निगमरत्नाचळीं |
उपनिषदार्थाची माळी\- | माजीं खांडिली ॥ ३५ ॥
सूत्री
बळी=थोर सूत्रकार
निगमरत्नाचळीं=वेद रूपी रत्न पर्वत
माळी\- | माजीं खांडिली =माळभूमी खणली
तेथ त्रिवर्गाचा अणुआरु | आडऊ निघाला जो अपारु |
तो महाभारतप्राकारु | भोंवता केला ॥ ३६ ॥
त्रिवर्गाचा
=धर्म अर्थ काम अणुआरु=धोंडे चाराचुरा
आडऊ=डबर प्राकारु=तट भोंवता=सभोवती
माजीं आत्मज्ञानाचें एकवट | दळवाडें झाडूनि चोखट |
घडिलें पार्थवैकुंठ\- | संवाद कुसरी ॥ ३७ ॥
एकवट =अखंड एक दळवाडें=चिरे
कुसरी=कौशल्याने चतुरपणे
निवृत्तिसूत्र सोडवणिया | सर्व शास्त्रार्थ पुरवणिया |
आवो साधिला मांडणिया | मोक्षरेखेचा ॥ ३८ ॥
सोडवणिया= ओळंबा पुरवणिया =भर, भरण घालून
आवो=आकार
ऐसेनि करितां उभारा | पंधरा अध्यायांत पंधरा |
भूमि निर्वाळलिया पुरा | प्रासादु जाहला ॥ ३९ ॥
निर्वाळलिया=चोखाळून
उपरी सोळावा अध्यायो | तो ग्रीवघंटेचा आवो |
सप्तदशु तोचि ठावो | पडघाणिये ॥ ४० ॥
ग्रीवघंटेचा =घुमटाचा पडघाणिये=कळसची बैठक
तयाहीवरी अष्टादशु | तो अपैसा मांडला कळसु |
उपरि गीतादिकीं व्यासु | ध्वजें लागला ॥ ४१ ॥
व्यास रूपी ध्वज
म्हणौनि मागील जे अध्याये | ते चढते भूमीचे आये |
तयांचें पुरें दाविताहे | आपुल्या आंगीं ॥ ४२ ॥
आये=आकारे पुरें=पूर्णता
जालया कामा नाहीं चोरी | ते कळसें होय उजरी |
तेवीं अष्टादशु विवरी | साद्यंत गीता ॥ ४३ ॥
उजरी=स्पष्ट
ऐसा व्यासें विंदाणियें | गीताप्रासादु सोडवणिये |
आणूनि राखिले प्राणिये | नानापरी ॥ ४४ ॥
विंदाणियें=चतुरपणे सोडवणिये= मुक्त करण्यासाठी
एक प्रदक्षिणा जपाचिया | बाहेरोनि करिती यया |
एक ते श्रवणमिषें छाया | सेविती ययाची ॥ ४५ ॥
एक ते अवधानाचा पुरा | विडापाऊड भीतरां |
घेऊनि रिघती गाभारां | अर्थज्ञानाच्या ॥ ४६ ॥
विडापाऊड=पैजेचा विडा
ते निजबोधें उराउरी | भेटती आत्मया श्रीहरी |
परी मोक्षप्रासादीं सरी | सर्वांही आथी ॥ ४७ ॥
सरी=सारखी योग्यता
समर्थाचिये पंक्तिभोजनें | तळिल्या वरील्या एकचि पक्वान्नें |
तेवीं श्रवणें अर्थें पठणें | मोक्षुचि लाभे ॥ ४८ ॥
ऐसा गीता वैष्णवप्रासादु | अठरावा अध्याय कळसु विशदु |
म्यां म्हणितला हा भेदु | जाणोनियां ॥ ४९ ॥
आतां सप्तदशापाठीं | अध्याय कैसेनि उठी |
तो संबंधु सांगो दिठी | दिसे तैसा ॥ ५० ॥
का गंगायमुना उदक | वोघबगें वेगळिक |
दावी होऊनि एक | पाणीपणें ॥ ५१ ॥
न मोडितां दोन्ही आकार | घडिलें एक शरीर |
हें अर्धनारी नटेश्वर\- | रूपीं दिसें ॥ ५२ ॥
नाना वाढिली दिवसें | कळा बिंबीं पैसे |
परी सिनानें लेवे जैसें | चंद्रीं नाहीं ॥ ५३ ॥
पैसे =वाढते लेवे=थर
तैसीं सिनानीं चारीं पदें | श्लोक तो श्लोकावच्छेदें |
अध्यावो अध्यायभेदें | गमे कीर ॥ ५४ ॥
सिनानीं =वेगळी (चार पदे त्यांचा एक श्लोक)
श्लोकावच्छेदें=अनेक श्लोकांचा (एक अध्याय)
अध्यायभेदें=वेग वेगळे अध्याय
परी प्रमेयाची उजरी | आनान रूप न धरी |
नाना रत्नमणीं दोरी | एकचि जैसी ॥ ५५ ॥
प्रमेयाची
=सिद्धांताची उजरी=स्पष्टता
मोतियें मिळोनि बहुवें | एकावळीचा पाडु आहे |
परी शोभे रूप होये | एकचि तेथ ॥ ५६ ॥
एकावळीचा=हार
फुलांफुलसरां लेख चढे | द्रुतीं दुजी अंगुळी न पडे |
श्लोक अध्याय तेणें पाडें | जाणावे हे ॥ ५७ ॥
फुलांफुलसरां=फूल व फुलांचा हार
लेख चढे | द्रुतीं=वसाची गणती करण्यास
सात शतें श्लोक | अध्यायां अठरांचे लेख |
परी देवो बोलिले एक | जें दुजें नाहीं ॥ ५८ ॥
लेख=संख्या
आणि म्यांही न सांडूनि ते सोये | ग्रंथ व्यक्ति केली आहे |
प्रस्तुत तेणें निर्वाहे | निरूपण आइका ॥ ५९ ॥
सोये=रीत निर्वाहे=प्रकारे
तरी सतरावा अध्यावो | पावतां पुरता ठावो |
जें संपतां श्लोकीं देवो | बोलिले ऐसें ॥ ६० ॥
अर्जुना ब्रह्मनामाच्याविखीं। बुद्धि सांडूनि आस्तिकीं |
कर्मे कीजती तितुकीं | असंतें होतीं ॥ ६१ ॥
असंतें=वृथा
हा ऐकोनि देवाचा बोलु | अर्जुना आला डोलु |
म्हणे कर्मनिष्ठां मळु | ठेविला देखों ॥ ६२ ॥
मळु=कमी लेखले
तो अज्ञानांधु तंव बापुडा | ईश्वरुचि न देखे एवढा |
तेथ नामचि एक पुढां | कां सुझे तया ॥ ६३ ॥
नामचि =ओम तत सत सुझे =समजेल
आणि रजतमें दोन्हीं | गेलियावीण श्रद्धा सानी |
ते कां लागे अभिधानीं | ब्रह्माचिये ? | ॥ ६४ ॥
सानी=कमी अभिधानीं=जडावी
मग कोता खेंव देणें | वार्तेवरील धावणें |
सांडी पडे खेळणें | नागिणीचें तें ॥ ६५ ॥
कोता शस्त्र वार्तेवरील=दोरीवर सांडी पडे=व्यर्थ होणे
तैसीं कर्में दुवाडें | तयां जन्मांतराची कडे |
दुर्मेळावे येवढे | कर्मामाजीं ॥ ६६ ॥
दुवाडें=वाईट कठीण दुर्मेळावे=पुन्हा मिळावे
ना विपायें हें उजू होये | तरी ज्ञानाची योग्यता लाहे |
येऱ्हवीं येणेंचि जाये | निरयालया ॥ ६७ ॥
निरयालया=अधोगतीला (नरकात)
कर्मीं हा ठायवरी | आहाती बहुवा अवसरी |
आतां कर्मठां कैं वारी | मोक्षाची हे ॥ ६८ ॥
ठायवरी=ठायी अवसरी =हरकती
तरी फिटो कर्माचा पांगु | कीजो अवघाचि त्यागु |
आदरिजो अव्यंगु | संन्यासु हा ॥ ६९ ॥
कर्मबाधेची कहीं | जेथ भयाची गोठी नाहीं |
तें आत्मज्ञान जिहीं | स्वाधीन होय ॥ ७० ॥
ज्ञानाचें आवाहनमंत्र | जें ज्ञान पिकतें सुक्षेत्र |
ज्ञान आकर्षितें सूत्र | तंतु जे का ॥ ७१ ॥
ते दोनी संन्यास त्याग | अनुष्ठूनि सुटे जग |
तरी हेंचि आतां चांग | व्यक्त पुसों ॥ ७२ ॥
ऐसें म्हणौनि पार्थें | त्यागसंन्यासव्यवस्थे |
रूप होआवया जेथें | प्रश्नु केला ॥ ७३ ॥
तेथ प्रत्युत्तरें बोली | श्रीकृष्णें जे चावळिली |
तया व्यक्ति जाली | अष्टादशा ॥ ७४ ॥
अष्टादशा =अठरावा
एवं जन्यजनकभावें | अध्यावो अध्यायातें प्रसवे |
आतां ऐका बरवें | पुसिलें जें ॥ ७५ ॥
जन्यजनकभावें=एकातून दुसर्याची उत्पत्ति
तरी पंडुकुमरें तेणें | देवाचें सरतें बोलणें |
जाणोनि अंतःकरणें | काणी घेतली ॥ ७६ ॥
काणी=उदास झाला
येऱ्हवीं तत्वविषयीं भला | तो निश्चितु असे कीर जाहला |
परी देवो राहे उगला | तें साहावेना ॥ ७७ ॥
वत्स धालयाही वरी | धेनू न वचावी दुरी |
अनन्य प्रीतीची परी | ऐसी आहे ॥ ७८ ॥
तेणें काजेवीणही बोलावें | तें देखीलें तरी पाहावें |
भोगितां चाड दुणावे | पढियंतयाठायीं ॥ ७९ ॥
चाड=आवड पढियंतया =प्रियकर
ऐसी प्रेमाची हे जाती | आणि पार्थ तंव तेचि मूर्ती |
म्हणौनि करूं लाहे खंती | उगेपणाची ॥ ८० ॥
आणि संवादाचेनि मिषें | जे अव्यवहारी वस्तु असे |
ते भोगिजे कीं जैसें | आरिसां रूप ॥ ८१ ॥
अव्यवहारी=अव्यक्त ब्रह्म
मग संवादु तोही पारुखे | तरी भोगितां भोगणें थोके |
हें कां साहवेल सुखें | लांचावलेया ? ॥ ८२ ॥
पारुखे=खंड पडे पारखे होणे थोके =थांबे
यालागीं त्याग संन्यास | पुसावयाचें घेऊनि मिस |
मग उपलविलें दुस | गीतेंचें तें ॥ ८३ ॥
उपलविलें=उघडले दुस=वस्त्र
अठरावा अध्यावो नोहे | हे एकाध्यायी गीताचि आहे |
जैं वांसरुचि गाय दुहे | तैं वेळु कायसा ॥ ८४ ॥
तैसी संपतां अवसरीं | गीता आदरविली माघारीं |
स्वामी भृत्याचा न करी | संवादु काई ? ॥ ८५ ॥
स्वामी भृत्याचा=स्वामी सेवकाचा
परी हें असो ऐसें | अर्जुनें पुसिजत असे |
म्हणे विनंती विश्वेशें | अवधारिजो ॥ ८६ ॥
म्हणे विनंती विश्वेशें | अवधारिजो ॥ ८६ ॥
by dr. vikrant tikone
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