ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ८७ ते १३४( संन्यास व कर्मफलत्याग यातील फरक )
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अर्जुन उवाच।
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥ १॥
(संन्यास व फळ त्यागातील फरक )
हां जी संन्यासु आणि त्यागु | इयां दोहीं एक अर्थीं लागु |
जैसा सांघातु आणि संघु | संघातेंचि बोलिजे ॥ ८७ ॥
सांघातु=समुदाय संघु=समुदाय
तैसेंचि त्यागें आणि संन्यासें | त्यागुचि बोलिजतु असे |
आमचेनि तंव मानसें | जाणिजे हेंचि ॥ ८८ ॥
ना कांहीं आथी अर्थभेदु | तो देवो करोतु विशदु |
तेथ म्हणती श्रीमुकुंदु | भिन्नचि पैं ॥ ८९ ॥
भिन्नचि
पैं= भिन्न आहे बरे
तरी अर्जुना तुझ्या मनीं | त्याग संन्यास दोनी |
एकार्थ गमलें हें मानीं | मीही साच ॥ ९० ॥
इहीं दोहीं कीर शब्दीं | त्यागुचि बोलिजे त्रिशुद्धी |
परी कारण एथ भेदीं | येतुलेंचि ॥ ९१ ॥
भेदीं=फरक
जें निपटूनि कर्म सांडिजे | तें सांडणें संन्यासु म्हणिजे |
आणि फलमात्र का त्यजिजे | तो त्यागु गा ॥ ९२ ॥
निपटूनि=पूर्णत:
तरी कोणा कर्माचें फळ | सांडिजे कोण कर्म केवळ |
हेंही सांगों विवळ | चित्त दे पां ॥ ९३ ॥
तरी आपैसीं दांगें डोंगर | झाडें डाळती अपार |
तैसें लांबे राजागर | नुठिती ते ॥ ९४ ॥
दांगें=अरण्य डाळती=उगवती
लांबे
राजागर= या जातीचे तांदूळ, भातशेत
न पेरितां सैंघ तृणें | उठती तैसें साळीचें होणें |
नाहीं गा राबाउणें | जियापरी ॥ ९५ ॥
सैंघ=खूप सर्वत्र राबाउणें= राबल्या वाचून
कां अंग जाहलें सहजें | परी लेणें उद्यमें कीजे |
नदी आपैसी आपादिजे | विहिरी जेवीं ॥ ९६ ॥
आपादिजे=प्रयत्ने मिळवावे
तैसें नित्य नैमित्तिक | कर्म होय स्वाभाविक |
परी न कामितां कामिक | न निफजे जें ॥ ९७ ॥
कामिक=काम्य
श्रीभगवानुवाच।
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ २॥
कां कामनेचेनि दळवाडें | जें उभारावया घडे |
अश्वमेधादिक फुडे | याग जेथ ॥ ९८ ॥
दळवाडें- = ढीग समूह फुडे=स्पष्ट
वापी कूप आराम | अग्रहारें हन महाग्राम |
आणीकही नाना संभ्रम | व्रतांचे ते ॥ ९९ ॥
वापी लांबडी विहीर कूप =विहीर आराम= बाग
ऐसें इष्टापूर्त सकळ | जया कामना एक मूळ |
जें केलें भोगवी फळ | बांधोनियां ॥ १०० ॥
इष्टापूर्त=इच्छित पूर्ण (फलेच्छा)
देहाचिया गांवा अलिया | जन्ममृत्यूचिया सोहळिया |
ना म्हणों नये धनंजया | जियापरी ॥ १०१ ॥
का ललाटींचें लिहिलें | न मोडे गा कांहीं केलें |
काळेगोरेपण धुतलें | फिटों नेणे ॥ १०२ ॥
देहाचा रंग
केलें काम्य कर्म तैसें | फळ भोगावया धरणें बैसे |
न फेडितां ऋण जैसें | वोसंडीना ॥ १०३ ॥
वोसंडीना=कमी होत नाही
कां कामनाही न करितां | अवसांत घडे पंडुसुता |
तरी वायकांडें न झुंजतां | लागे जैसें ॥ १०४ ॥
अवसांत=अकस्मात वायकांडें=बाण
गूळ नेणतां तोंडीं | घातला देचि गोडी |
आगी मानूनि राखोंडी | चेपिला पोळी ॥ १०५ ॥
चेपिला=पाय ठेवला, स्पर्शीला
काम्यकर्मी हें एक | सामर्थ्य आथी स्वाभाविक |
म्हणौनि नको कौतुक | मुमुक्षु एथ ॥ १०६ ॥
किंबहुना पार्था ऐसें | जें काम्य कर्म गा असे |
तें त्यजिजे विष जैसें | वोकूनियां ॥ १०७ ॥
मग तया त्यागातें जगीं | संन्यासु ऐसया भंगीं |
बोलिजे अंतरंगीं | सर्वद्रष्टा ॥ १०८ ॥
भंगीं=रीतीने
हें काम्य कर्म सांडणें | तें कामनेतेंचि उपडणें |
द्रव्यत्यागें दवडणें | भय जैसें ॥ १०९ ॥
उपडणें=सोडणे
आणि सोमसूर्यग्रहणें | येऊनि करविती पार्वणें |
का मातापितरमरणें | अंकित जे दिवस ॥ ११० ॥
पार्वणें
=पर्वकाळ अंकित=निमित्त
अथवा अतिथी हन पावे | हें ऐसैसें पडे जैं करावें |
तैं तें कर्म जाणावें | नौमित्तिक गा ॥ १११ ॥
वार्षिया क्षोमे गगन | वसंतें दुणावे वन |
देहा श्रृंगारी यौवन\- | दशा जैसी ॥ ११२ ॥
का सोमकांतु सोमें पघळें | सूर्यें फांकती कमळें |
एथ असे तेंचि पाल्हाळे | आन नये ॥ ११३ ॥
पाल्हाळे=विस्तार पावतात
तैसें नित्य जें का कर्म | तेंचि निमित्ताचे लाहे नियम |
एथ उंचावे तेणें नाम | नैमित्तिक होय ॥ ११४ ॥
आणि सायंप्रातर्मध्यान्हीं | जें कां करणीय प्रतिदिनीं |
परी दृष्टि जैसी लोचनीं | अधिक नोहे ॥ ११५ ॥
कां नापादितां गती | चरणीं जैसी आथी |
नातरी ते दीप्ती | दीपबिंबीं ॥ ११६ ॥
नापादितां=न कमवता
वासु नेदितां जैसे | चंदनीं सौरभ्य असे |
अधिकाराचे तैसें | रूपचि जें ॥ ११७ ॥
नित्य कर्म ऐसें जनीं | पार्था बोलिजे तें मानीं |
एवं नित्य नैमित्तिक दोन्हीं | दाविलीं तुज ॥ ११८ ॥
हेंचि नित्य नैमित्तिक | अनुष्ठेय आवश्यक |
म्हणौनि म्हणों पाहती एक | वांझ ययातें ॥ ११९ ॥
वांझ=निष्फल
परी भोजनीं जैसें होये | तृप्ति लाहे भूक जाये |
तैसे नित्यनैमित्तिकीं आहे | सर्वांगीं फळ ॥ १२० ॥
कीड आगिठां पडे | तरी मळु तुटे वानी चढे |
यया कर्मा तया सांगडें | फळ जाणावें ॥ १२१ ॥
कीड=सोन्यातील हिण वानी =कस सांगडें=सारखे
जे प्रत्यवाय तंव गळे | स्वाधिकार बहुवें उजळे |
तेथ हातोफळिया मिळे | सद्गतीसी ॥ १२२ ॥
प्रत्यवाय= दोष हातोफळिया=हातोहात सहज
येवढेवरी ढिसाळ | नित्यनैमित्तिकीं आहे फळ |
परी तें त्यजिजे मूळ | नक्षत्रीं जैसें ॥ १२३ ॥
ढिसाळ=थोर सामर्थ्यवान
लता पिके आघवी | तंव च्यूत बांधे पालवीं |
मग हात न लावित माधवीं | सोडूनि घाली ॥ १२४ ॥
च्यूत=आंब्याचे झाड माधवीं=वसंत
तैसी नोलांडितां कर्मरेखा | चित्त दीजे नित्यनैमित्तिका |
पाठीं फळा कीजे अशेखा | वांताचे वानी ॥ १२५ ॥
वांताचे=उलटी
यया कर्म फळत्यागातें | त्यागु म्हणती पैं जाणते |
एवं त्याग संन्यास तूतें | परीसविले ॥ १२६ ॥
हा संन्यासु जैं संभवे | तैं काम्य बाधूं न पावे |
निषिद्ध तंव स्वभावें | निषेधें गेलें ॥ १२७ ॥
निषेधें=शास्त्राने निषेदल्याने
आणि नित्यादिक जें असे | तें येणें फलत्यागें नसे |
शिर लोटलिया जैसें | येर आंग ॥ १२८ ॥
लोटलिया=तुटल्यावर
मग सस्य फळपाकांत | तैसें निमालिया कर्मजात |
आत्मज्ञान गिंवसीत | अपैसें ये ॥ १२९ ॥
सस्य=पीक
ऐसिया निगुती दोनी | त्याग संन्यास अनुष्ठानीं |
पडले गा आत्मज्ञानीं | बांधती पाटु ॥ १३० ॥
निगुती=नीटपणे पाटु= राजपद, सिंहासन
नातरी हे निगुती चुके | मग त्यागु कीजे हाततुकें |
तैं कांहीं न त्यजे अधिकें | गोंवींचि पडे ॥ १३१ ॥
निगुती =हाततुकें=अंदाजाने वरवर गोंवींचि=बंधनी गुंत्यात
जें औषध व्याधी अनोळख | तें घेतलिया परतें विख |
कां अन्न, न मानितां भूक | मारी ना काय ? ॥ १३२ ॥
अनोळख==न ओळखता निदानावाचून
न
मानितां भूक=भूकेची वेळ न जाणता अन्न न घेतल्याने
म्हणौनि त्याज्य जें नोहे
| तेथ त्यागातें न सुवावें
|
त्याज्यालागीं नोहावें | लोभापर ॥ १३३ ॥
त्याज्यालागीं नोहावें | लोभापर ॥ १३३ ॥
सुवावें=आचरावे लोभापर=आसक्त
चुकलिया त्यागाचें वेझें | केला सर्वत्यागुही होय वोझें |
न देखती सर्वत्र दुजें | वीतराग ते ॥ १३४ ॥
वेझें=वर्म दुजें=दुसरे त्याज्य वीतराग=विरक्त
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