Monday, October 8, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा, ओव्या ८७ ते १३४( संन्यास व कर्मफलत्याग यातील फरक )



ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या ८७ ते १३४( संन्यास व कर्मत्याग यातील फरक )


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अर्जुन उवाच।
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥ १॥

(संन्यास व फळ त्यागातील फरक )

हां जी संन्यासु आणि त्यागु | इयां दोहीं एक अर्थीं लागु |
जैसा सांघातु आणि संघु | संघातेंचि बोलिजे ॥ ८७ ॥

सांघातु=समुदाय   संघु=समुदाय

तैसेंचि त्यागें आणि संन्यासें | त्यागुचि बोलिजतु असे |
आमचेनि तंव मानसें | जाणिजे हेंचि ॥ ८८ ॥


ना कांहीं आथी अर्थभेदु | तो देवो करोतु विशदु |
तेथ म्हणती श्रीमुकुंदु | भिन्नचि पैं ॥ ८९ ॥

भिन्नचि पैं= भिन्न आहे बरे

तरी अर्जुना तुझ्या मनीं | त्याग संन्यास दोनी |
एकार्थ गमलें हें मानीं | मीही साच ॥ ९० ॥

इहीं दोहीं कीर शब्दीं | त्यागुचि बोलिजे त्रिशुद्धी |
परी कारण एथ भेदीं | येतुलेंचि ॥ ९१ ॥

भेदीं=फरक

जें निपटूनि कर्म सांडिजे | तें सांडणें संन्यासु म्हणिजे |
आणि फलमात्र का त्यजिजे | तो त्यागु गा ॥ ९२ ॥

निपटूनि=पूर्णत:

तरी कोणा कर्माचें फळ | सांडिजे कोण कर्म केवळ |
हेंही सांगों विवळ | चित्त दे पां ॥ ९३ ॥

तरी आपैसीं दांगें डोंगर | झाडें डाळती अपार |
तैसें लांबे राजागर | नुठिती ते ॥ ९४ ॥

दांगें=अरण्य डाळती=उगवती
लांबे राजागर= या जातीचे तांदूळ, भातशेत 

न पेरितां सैंघ तृणें | उठती तैसें साळीचें होणें |
नाहीं गा राबाउणें | जियापरी ॥ ९५ ॥

सैंघ=खूप सर्वत्र     राबाउणें= राबल्या वाचून  

कां अंग जाहलें सहजें | परी लेणें उद्यमें कीजे |
नदी आपैसी आपादिजे | विहिरी जेवीं ॥ ९६ ॥

आपादिजे=प्रयत्ने मिळवावे

तैसें नित्य नैमित्तिक | कर्म होय स्वाभाविक |
परी न कामितां कामिक | न निफजे जें ॥ ९७ ॥

कामिक=काम्य

श्रीभगवानुवाच।
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ २॥


कां कामनेचेनि दळवाडें | जें उभारावया घडे |
अश्वमेधादिक फुडे | याग जेथ ॥ ९८ ॥

दळवाडें- = ढीग समूह  फुडे=स्पष्ट

वापी कूप आराम | अग्रहारें हन महाग्राम |
आणीकही नाना संभ्रम | व्रतांचे ते ॥ ९९ ॥

वापी लांबडी विहीर  कूप =विहीर  आराम= बाग

ऐसें इष्टापूर्त सकळ | जया कामना एक मूळ |
जें केलें भोगवी फळ | बांधोनियां ॥ १०० ॥

इष्टापूर्त=इच्छित पूर्ण (फलेच्छा)

देहाचिया गांवा अलिया | जन्ममृत्यूचिया सोहळिया |
ना म्हणों नये धनंजया | जियापरी ॥ १०१ ॥

का ललाटींचें लिहिलें | न मोडे गा कांहीं केलें |
काळेगोरेपण धुतलें | फिटों नेणे ॥ १०२ ॥

देहाचा रंग

केलें काम्य कर्म तैसें | फळ भोगावया धरणें बैसे |
न फेडितां ऋण जैसें | वोसंडीना ॥ १०३ ॥

वोसंडीना=कमी होत  नाही

कां कामनाही न करितां | अवसांत घडे पंडुसुता |
तरी वायकांडें न झुंजतां | लागे जैसें ॥ १०४ ॥

अवसांत=अकस्मात   वायकांडें=बाण

गूळ नेणतां तोंडीं | घातला देचि गोडी |
आगी मानूनि राखोंडी | चेपिला पोळी ॥ १०५ ॥

चेपिला=पाय ठेवला, स्पर्शीला

काम्यकर्मी हें एक | सामर्थ्य आथी स्वाभाविक |
म्हणौनि नको कौतुक | मुमुक्षु एथ ॥ १०६ ॥

किंबहुना पार्था ऐसें | जें काम्य कर्म गा असे |
तें त्यजिजे विष जैसें | वोकूनियां ॥ १०७ ॥

मग तया त्यागातें जगीं | संन्यासु ऐसया भंगीं |
बोलिजे अंतरंगीं | सर्वद्रष्टा ॥ १०८ ॥

भंगीं=रीतीने

हें काम्य कर्म सांडणें | तें कामनेतेंचि उपडणें |
द्रव्यत्यागें दवडणें | भय जैसें ॥ १०९ ॥

उपडणें=सोडणे

आणि सोमसूर्यग्रहणें | येऊनि करविती पार्वणें |
का मातापितरमरणें | अंकित जे दिवस ॥ ११० ॥

पार्वणें =पर्वकाळ   अंकित=निमित्त

अथवा अतिथी हन पावे | हें ऐसैसें पडे जैं करावें |
तैं तें कर्म जाणावें | नौमित्तिक गा ॥ १११ ॥


वार्षिया क्षोमे गगन | वसंतें दुणावे वन |
देहा श्रृंगारी यौवन\- | दशा जैसी ॥ ११२ ॥


का सोमकांतु सोमें पघळें | सूर्यें फांकती कमळें |
एथ असे तेंचि पाल्हाळे | आन नये ॥ ११३ ॥

पाल्हाळे=विस्तार पावतात

तैसें नित्य जें का कर्म | तेंचि निमित्ताचे लाहे नियम |
एथ उंचावे तेणें नाम | नैमित्तिक होय ॥ ११४ ॥

आणि सायंप्रातर्मध्यान्हीं | जें कां करणीय प्रतिदिनीं |
परी दृष्टि जैसी लोचनीं | अधिक नोहे ॥ ११५ ॥

कां नापादितां गती | चरणीं जैसी आथी |
नातरी ते दीप्ती | दीपबिंबीं ॥ ११६ ॥

नापादितां=न कमवता

वासु नेदितां जैसे | चंदनीं सौरभ्य असे |
अधिकाराचे तैसें | रूपचि जें ॥ ११७ ॥

नित्य कर्म ऐसें जनीं | पार्था बोलिजे तें मानीं |
एवं नित्य नैमित्तिक दोन्हीं | दाविलीं तुज ॥ ११८ ॥

हेंचि नित्य नैमित्तिक | अनुष्ठेय आवश्यक |
म्हणौनि म्हणों पाहती एक | वांझ ययातें ॥ ११९ ॥

वांझ=निष्फल

परी भोजनीं जैसें होये | तृप्ति लाहे भूक जाये |
तैसे नित्यनैमित्तिकीं आहे | सर्वांगीं फळ ॥ १२० ॥

कीड आगिठां पडे | तरी मळु तुटे वानी चढे |
यया कर्मा तया सांगडें | फळ जाणावें ॥ १२१ ॥

कीड=सोन्यातील हिण वानी =कस  सांगडें=सारखे

जे प्रत्यवाय तंव गळे | स्वाधिकार बहुवें उजळे |
तेथ हातोफळिया मिळे | सद्गतीसी ॥ १२२ ॥

प्रत्यवाय= दोष हातोफळिया=हातोहात सहज

येवढेवरी ढिसाळ | नित्यनैमित्तिकीं आहे फळ |
परी तें त्यजिजे मूळ | नक्षत्रीं जैसें ॥ १२३ ॥

ढिसाळ=थोर सामर्थ्यवान  

लता पिके आघवी | तंव च्यूत बांधे पालवीं |
मग हात न लावित माधवीं | सोडूनि घाली ॥ १२४ ॥

च्यूत=आंब्याचे झाड   माधवीं=वसंत

तैसी नोलांडितां कर्मरेखा | चित्त दीजे नित्यनैमित्तिका |
पाठीं फळा कीजे अशेखा | वांताचे वानी ॥ १२५ ॥

वांताचे=उलटी

यया कर्म फळत्यागातें | त्यागु म्हणती पैं जाणते |
एवं त्याग संन्यास तूतें | परीसविले ॥ १२६ ॥

हा संन्यासु जैं संभवे | तैं काम्य बाधूं न पावे |
निषिद्ध तंव स्वभावें | निषेधें गेलें ॥ १२७ ॥

निषेधें=शास्त्राने निषेदल्याने

आणि नित्यादिक जें असे | तें येणें फलत्यागें नसे |
शिर लोटलिया जैसें | येर आंग ॥ १२८ ॥

लोटलिया=तुटल्यावर

मग सस्य फळपाकांत | तैसें निमालिया कर्मजात |
आत्मज्ञान गिंवसीत | अपैसें ये ॥ १२९ ॥

सस्य=पीक

ऐसिया निगुती दोनी | त्याग संन्यास अनुष्ठानीं |
पडले गा आत्मज्ञानीं | बांधती पाटु ॥ १३० ॥
निगुती=नीटपणे पाटु= राजपद, सिंहासन

नातरी हे निगुती चुके | मग त्यागु कीजे हाततुकें |
तैं कांहीं न त्यजे अधिकें | गोंवींचि पडे ॥ १३१ ॥

निगुती =हाततुकें=अंदाजाने वरवर   गोंवींचि=बंधनी गुंत्यात

जें औषध व्याधी अनोळख | तें घेतलिया परतें विख |
कां अन्न, न मानितां भूक | मारी ना काय ? ॥ १३२ ॥

अनोळख==न ओळखता निदानावाचून
न मानितां भूक=भूकेची वेळ  न जाणता अन्न न घेतल्याने

म्हणौनि त्याज्य जें नोहे | तेथ त्यागातें न सुवावें |
त्याज्यालागीं नोहावें | लोभापर ॥ १३३ ॥

सुवावें=आचरावे   लोभापर=आसक्त

चुकलिया त्यागाचें वेझें | केला सर्वत्यागुही होय वोझें |
न देखती सर्वत्र दुजें | वीतराग ते ॥ १३४ ॥

वेझें=वर्म  दुजें=दुसरे त्याज्य वीतराग=विरक्त
 

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