ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १७१ ते २१५
अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ॥
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ ११॥
तरी एकु प्रियोत्तमु-/ | वांचोनि वाढों नेदी कामु |
जैसा का मनोधर्मु | पतिव्रतेचा ॥ १७१ ॥
नाना सिंधूतें ठाकोनि गंगा | पुढारां न करीचि रिगा |
का आत्मा देखोनि उगा | वेदु ठेला ॥ १७२ ॥
पुढारां=पुढे रिगा=शिरणे वाहणे
तैसें जे आपुल्या स्वहितीं | वेंचूनियां चित्तवृत्ती |
नुरवितीचि अहंकृती | फळालागीं ॥ १७३ ॥
पातलेया झाडाचें मूळ | मागुतें सरों नेणेंचि जळ |
जिरालें गां केवळ | तयाच्याचि आंगीं ॥ १७४ ॥
तैसें मनें देहीं | यजननिश्चयाच्या ठायीं |
हारपोनि जें कांहीं | वांछितीना ॥ १७५ ॥
यजन=यज्ञ
तिहीं फळवांच्छात्यागीं | स्वधर्मावांचूनि विरागीं |
कीजे तो यज्ञु सर्वांगीं | अळंकृतु ॥ १७६ ॥
अळंकृतु=सुंदर
परिपूर्ण
परी आरिसा आपणपें | डोळां जैसें घेपें |
कां तळहातींचें दीपें | रत्न पाहिजे ॥ १७७ ॥
घेपें=पाहणे
नाना उदितें दिवाकरें | गमावा मार्गु दिठी भरे |
तैसा वेदु निर्धारें | देखोनियां ॥ १७८ ॥
वेदु
निर्धारें=वेद विचाराने वागणे
तियें कुंडें मंडप वेदी | आणीकही संभारसमृद्धी |
ते मेळवणी जैसी विधी | आपणपां केली ॥ १७९ ॥
आपणपां=आपण स्वत:
सकळावयव उचितें | लेणीं पातलीं जैसीं
आंगातें |
तैसे पदार्थ जेथिंचे तेथें | विनियोगुनी ॥ १८० ॥
तैसे पदार्थ जेथिंचे तेथें | विनियोगुनी ॥ १८० ॥
काय वानूं बहुतीं बोलीं | जैसी सर्वाभरणीं भरली |
ते यज्ञविद्याचि रूपा आली | यजनमिषें ॥ १८१ ॥
तैसा सांगोपांगु | निफजे जो यागु |
नुठऊनियां लागु | महत्त्वाचा ॥ १८२ ॥
लागु=आशा इच्छा
प्रतिपाळु तरी पाटाचा | झाडीं कीजे तुळसीचा |
परी फळा फुला छायेचा | आश्रयो नाहीं ॥ १८३ ॥
पाटाचा=प्रेमाचा, मनापासून
किंबहुना फळाशेवीण | ऐसेया निगुती निर्माण |
होय तो यागु जाण | सात्त्विकु गा ॥ १८४ ॥
अभिसन्धाय तु फलं दंभार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ १२॥
आतां यज्ञु कीर वीरेशा | करी पैं याचि{ऐ}सा |
परी श्राद्धालागीं जैसा | अवंतिला रावो ॥ १८५ ॥
अवंतिला=आमंत्रित
जरी राजा घरासि ये | तरी बहुत उपेगा जाये |
आणि कीर्तीही होये | श्राद्ध न ठके ॥ १८६ ॥
न
ठके= न थांबणार (होऊन
जाईन)
तैसा धरूनि आवांका | म्हणे स्वर्गु जोडेल असिका |
दीक्षितु होईन मान्यु लोकां | घडेल यागु ॥ १८७ ॥
आवांका
=हेतु असिका= आईता
ऐसी केवळ फळालागीं | महत्त्व फोकारावया जगीं |
पार्था निष्पत्ति जे यागीं | राजस पैं ते ॥ १८८ ॥
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्दाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३॥
आणि पशुपक्षिविवाहीं | जोशी कामापरौता नाहीं |
तैसा तामसा यज्ञा पाहीं | आग्रहोचि मूळ ॥ १८९ ॥
वारया वाट न वाहे | कीं मरण मुहूर्त पाहे |
निषिद्धांसीं बिहे | आगी जरी ॥ १९० ॥
तरी तामसाचिया आचारा | विधीचा आथी वोढावारा |
म्हणूनि तो धनुर्धरा | उत्सृंखळु ॥ १९१ ॥
वोढावारा=धरबंध मर्यादा नसतो
नाहीं विधीची तेथ चाड | नये मंत्रादिक तयाकड |
अन्नजातां न सुये तोंड | मासिये जेवीं ॥ १९२ ॥
वैराचा बोधु ब्राह्मणा | तेथ कें रिगेल दक्षिणा |
अग्नि जाला वाउधाणा | वरपडा जैसा ॥ १९३ ॥
वाउधाणा =वावटळ वरपडा=मदतनीस
तैसें वायांचि सर्वस्व वेंचे | मुख न देखती श्रद्धेचें |
नागविलें निपुत्रिकाचें | जैसें घर ॥ १९४ ॥
ऐसा जो यज्ञाभासु | तया नाम यागु तामसु |
आइकें म्हणे निवासु | श्रियेचा तो ॥ १९५ ॥
आता गंगेचें एक पाणी | परी नेलें आनानीं वाहणीं |
एक मळीं एक आणी | शुद्धत्व जैसें ॥ १९६ ॥
तैसें तिहीं गुणीं तप | येथ जाहलें आहे त्रिरूप |
तें एक केलें दे पाप | उद्धरी एक ॥ १९७ ॥
तरी तेंचि तिहीं भेदीं | कैसेनि पां म्हणौनि सुबुद्धी |
जाणों पाहासी तरी आधीं | तपचि जाण ॥ १९८ ॥
येथ तप म्हणजे काई | तें स्वरूप दाऊं पाहीं |
मग भेदिलें गुणीं तिहीं | तें पाठीं बोलों ॥ १९९ ॥
तरी तप जें कां सम्यक् | तेंही त्रिविध आइक |
शारीर मानसिक | शाब्द गा ॥ २०० ॥
आतां गा तिहीं माझारीं | शारीर तंव अवधारीं |
तरी शंभु कां श्रीहरी | पढियंता होय ॥ २०१ ॥
शारीर=शारीरिक तप
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ॥
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४॥
तया प्रिया देवतालया | यात्रादिकें करावया |
आठही पाहार जैसें पायां | उळिग घापे ॥ २०२ ॥
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ॥
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४॥
तया प्रिया देवतालया | यात्रादिकें करावया |
आठही पाहार जैसें पायां | उळिग घापे ॥ २०२ ॥
देवांगणमिरवणियां | अंगोपचार पुरवणियां |
करावया म्हणियां | शोभती हात ॥ २०३ ॥
लिंग कां प्रतिमा दिठी | देखतखेंवों अंगेष्टी |
लोटिजे कां काठी | पडली जैसी ॥ २०४ ॥
अंगेष्टी= शरीर
आणि विधिविनयादिकीं | गुणीं वडील जे लोकीं |
तया ब्राह्मणाची निकी | पाइकी कीजे ॥ २०५ ॥
पाइकी=सेवा
अथवा प्रवासें कां पीडा | का शिणले जे सांकडां |
ते जीव सुरवाडा | आणिजती ॥ २०६ ॥
सांकडां=संकटी
सकल तीर्थांचिये धुरे | जियें कां मातापितरें |
तयां सेवेसी कीर शरीरें | लोण कीजे ॥ २०७ ॥
लोण=ओवाळून टाकणे
आणि संसारा{ऐ}सा दारुणु | जो भेटलाचि हरी शीणु |
तो ज्ञानदानीं सकरुणु | भजिजे गुरु ॥ २०८ ॥
आणि स्वधर्माचा आगिठां | देह जाड्याचिया किटा |
आवृत्तिपुटीं सुभटा | झाडी कीजे ॥ २०९ ॥
आगिठां=अग्नीत किटा=मळ
आवृत्तिपुटीं=अभ्यास योग रूपी पुटी
वस्तु भूतमात्रीं नमिजे | परोपकारीं भजिजे |
स्त्रीविषयीं नियमिजे | नांवें नांवें ॥ २१० ॥
नांवें
नांवें=वेळो वेळी
जन्मतेनि प्रसंगे | स्त्रीदेह शिवणें आंगें |
तेथूनि जन्म आघवें | सोंवळें कीजे ॥ २११ ॥
भुतमात्राचेनि नांवें | तृणही नासुडावें |
किंबहुना सांडावे | छेद भेद ॥ २१२ ॥
नासुडावें=त्रास देणे
ऐसैसी जैं शरीरीं | रहाटीची पडे उजरी |
तैं शारीर तप घुमरी | आलें जाण ॥ २१३ ॥
उजरी=आचरणाचे तेज घुमरी=भरास समृध्द्धी
पार्था समस्तही हें करणें | देहाचेनि प्रधानपणें |
म्हणौनि ययातें मी म्हणें | शारीर तप ॥ २१४ ॥
एवं शारीर जें तप | तयाचें दाविलें रूप |
आतां आइक निष्पाप | वाङ्मय तें ॥ २१५ ॥
वाङ्मय=वाणीचे
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