ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १२० ते १७०
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिम शृणु ॥ ७॥
आणि एकसरें आहारा | कैसेनि तिनी मोहरा |
जालिया तेही वीरा | रोकडें दाऊं ॥ १२० ॥
एकसरें=एकच
मोहरा =प्रकारचा
तरी जेवणाराचिया रुची | निष्पत्ति कीं बोनियांची |
आणि जेवितां तंव गुणांची | दासी येथ ॥ १२१ ॥
बोनियांची=पक्वान्न
जे जीव कर्ता भोक्ता | तो गुणास्तव स्वभावता |
पावोनियां त्रिविधता | चेष्टे त्रिधा ॥ १२२ ॥
म्हणौनि त्रिविधु आहारु | यज्ञुही त्रिप्रकारु |
तप दान हन व्यापारु | त्रिविधचि ते ॥ १२३ ॥
पैं आहार लक्षण पहिले? | सांगों जें म्हणितलें |
तें आईक गा भलें | रूप करूं ॥ १२४ ॥
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ ८॥
तरी सत्त्वगुणाकडे | जें दैवें भोक्ता पडे |
तैं मधुरीं रसीं वाढे | मेचु तया ॥ १२५ ॥
मेचु=आवड
आंगेंचि द्रव्यें सुरसें | जे आंगेंचि पदार्थ गोडसे |
आंगेंचि स्नेहें बहुवसें | सुपक्वें जियें ॥ १२६ ॥
आकारें नव्हती डगळें | स्पर्शें अति मवाळें |
जिभेलागीं स्नेहाळें | स्वादें जियें ॥ १२७ ॥
डगळें=मोठे
रसें गाढीं वरी ढिलीं | द्रवभावीं आथिलीं |
ठायें ठावो सांडिलीं | अग्नितापें ॥ १२८ ॥
ठायें ठावो=जेथीचा तेथे (योग्य)
आंगें सानें परीणामें थोरु | जैसें गुरुमुखींचें अक्षरु |
तैशी अल्पीं जिहीं अपारु | तृप्ति राहे ॥ १२९ ॥
सानें=लहान
आणि मुखीं जैसीं गोडें | तैसीचिहि ते आंतुलेकडे |
तिये अन्नीं प्रीति वाढे | सात्त्विकांसी ॥ १३० ॥
एवं गुणलक्षण | सात्त्विक भोज्य जाण |
आयुष्याचें त्राण | नीच नवें हें ॥ १३१ ॥
त्राण=बळ
नीच=नित्य
येणें सात्त्विक रसें | जंव देहीं मेहो वरीषे |
तंव आयुष्यनदी उससे | दिहाचि दिहा ॥ १३२ ॥
मेहो=मेघ उससे =भरून वाहते
सत्त्वाचिये कीर पाळती | कारण हाचि सुमती |
दिवसाचिये उन्नती | भानु जैसा ॥ १३३ ॥
कीर पाळती=पोषण करणारा
आणि शरीरा हन मानसा | बळाचा पैं कुवासा |
हा आहारु तरी दशा | कैंची रोगां ॥ १३४ ॥
कुवासा=आश्रय
हा सात्त्विकु होय भोग्यु | तैं भोगावया आरोग्यु |
शरीरासी भाग्यु | उदयलें जाणो ॥ १३५ ॥
आणि सुखाचें घेणें देणें | निकें उवाया ये येणें |
हें असो वाढे साजणें | आनंदेंसीं ॥ १३६ ॥
उवाया=उत्कर्षा
ऐसा सात्त्विकु आहारु | परीणमला थोरु |
करी हा उपकारु | सबाह्यासी ॥ १३७ ॥
आतां राजसासि प्रीती | जिहीं रसीं आथी |
करूं तयाही व्यक्ती | प्रसंगें गा ॥ १३८ ॥
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९॥
तरी मारें उणें काळकुट | तेणें मानें जें कडुवट |
कां चुनियाहूनि दासट | आम्ल हन ॥ १३९ ॥
दासट=दाहक
कणिकीतें जैसें पाणी | तैसेंचि मीठ बांधया आणी |
तेतुलीच मेळवणी | रसांतरांची ॥ १४० ॥
ऐसें खारट अपाडें | राजसा तया आवडे |
ऊन्हाचेनि मिषें तोंडें | आगीचि गिळी ॥ १४१ ॥
वाफेचिया सिगे | वातीही लाविल्या लागे |
तैसें उन्ह मागे | राजसु तो ॥ ११४२ ॥
सिगे=टोकदार
वावदळ पाडूनि ठाये | साबळु डाहारला आहे |
तैसें तीख तो खाये | जें घायेविण रुपे ॥ १४३ ॥
वावदळ=दगड साबळु=पहार
आणि राखेहूनि कोरडें | आंत बाहेरी येके पाडें |
तो जिव्हादंशु आवडे | बहु तया ॥ १४४ ॥
परस्परें दांतां | आदळु होय खातां |
तो गा तोंडीं घेतां | तोषों लागे ॥ १४५ ॥
आधींच द्रव्यें चुरमुरीं | वरी परवडिजती मोहरी |
जियें घेतां होती धुवारी | नाकेंतोंडें ॥ १४६ ॥
चुरमुरीं=झणझणीत तिखट परवडिजती=माखणे
हें असो उगें आगीतें | म्हणे तैसें राइतें |
पढियें प्राणापरौतें | राजसासि गा ॥ १४७ ॥
ऐसा न पुरोनि तोंडा | जिभा केला वेडा |
अन्नमिषें अग्नि भडभडां | पोटीं भरी ॥ १४८ ॥
तैसाचि लवंगा सुंठे | मग भुईं गा सेजे खाटे |
पाणियाचें न सुटे | तोंडोनि पात्र ॥ १४९ ॥
ते आहार नव्हती घेतले | व्याधिव्याळ जे सुतले |
ते चेववावया घातलें | माजवण पोटीं ॥ १५० ॥
सुतले=निजले माजवण=मादक पदार्थ
तैसें एकमेकां सळें | रोग उठती एके वेळे |
ऐसा राजसु आहारु फळे | केवळ दुःखें ॥ १५१ ॥
एवं राजसा आहारा | रूप केलें धनुर्धरा |
परीणामाचाहि विसुरा | सांगितला ॥ १५२ ॥
विसुरा=विचार
आतां तया तामसा | आवडे आहारु जैसा |
तेंही सांगों चिळसा | झणें तुम्ही ॥ १५३ ॥
चिळसा=किळस
तरी कुहिलें उष्टें खातां | न मनिजे तेणें अनहिता |
जैसें कां उपहिता | म्हैसी खाय ॥ १५४ ॥
उपहिता=आंबोन
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यम् भोजनं तामसप्रियम् ॥ १०॥
निपजलें अन्न तैसें | दुपाहरीं कां येरें दिवसें |
अतिकरें तैं तामसें | घेईजे तें ॥ १५५ ॥
अतिकरें=खूप उशिरा
नातरी अर्ध उकडिलें | कां निपट करपोनि गेलें |
तैसेंही खाय चुकलें | रसा जें येवों ॥ १५६ ॥
निपट=पूर्ण
जया कां आथि पूर्ण निष्पत्ती | जेथ रसु धरी व्यक्ती |
तें अन्न ऐसी प्रतीती | तामसा नाहीं ॥ १५७ ॥
व्यक्ती =दिसणे व्यक्त होणे प्रतीती=समज
ऐसेनि कहीं विपायें | सदन्ना वरपडा होये |
तरी घाणी सुटे तंव राहे | व्याघ्रु जैसा ॥ १५८ ॥
वरपडा=प्राप्त
कां बहुवें दिवशीं वोलांडिलें | स्वादपणें सांडिलें |
शुष्क अथवा सडलें | गाभिणेंही हो ॥ १५९ ॥
गाभिणेंही=आंबलेले
तेंही बाळाचे हातवरी | चिवडिलें जैसी राडी करी |
का सवें बैसोनि नारी | गोतांबील करी ॥ १६० ॥
गोतांबील=एका ताटात खाणे
ऐसेनि कश्मळें जैं खाय | तैं तया सुखभोजन ऐसें होय |
परी येणेंही न धाय | पापिया तो ॥ १६१ ॥
कश्मळें =घाण पापयुक्त धाय=तुष्ट होणे
मग चमत्कारु देखा | निषेधाचा आंबुखा |
जया का सदोखा | कुद्रव्यासी ॥ १६२ ॥
आंबुखा=शिंतोडा
तया अपेयांच्या पानीं | अखाद्यांच्या भोजनीं |
वाढविजे उतान्ही | तामसें तेणें ॥ १६३ ॥
उतान्ह=इच्छा
एवं तामस जेवणारा | ऐसैसी मेचु हे वीरा |
तयाचें फल दुसरां | क्षणीं नाहीं ॥ १६४ ॥
मेचु=आवड
जे जेव्हांचि हें अपवित्र | शिवे तयाचें वक्त्र |
तेव्हांचि पापा पात्र | जाला तो कीं ॥ १६५ ॥
यावरतें जें जेवीं | ते जेविती वोज न म्हणावी |
पोटभरती जाणावी | यातना ते ॥ १६६ ॥
वोज=रीत
शिरच्छेदें काय होये | का आगीं रिघतां कैसें आहे |
हें जाणावें काई पाहें | परी साहातुचि असे ॥ १६७ ॥
म्हणौनि तामसा अन्ना | परीणामु गा सिनाना |
न सांगोंचि गा अर्जुना | देवो म्हणे ॥ १६८ ॥
सिनाना=वेगळा
आतां ययावरी | आहाराचिया परी |
यज्ञुही अवधारीं | त्रिधा असे ॥ १६९ ॥
परी तिहींमाजीं प्रथम | सात्त्विक यज्ञाचें वर्म |
आईक पां सुमहिम -। शिरोमणी ॥ १७० ॥
सुमहिम=चांगली किर्ति असलेला
by dr. vikrant tikone
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