Wednesday, August 1, 2018

ज्ञानेश्वरी अध्याय १७ वा ओव्या १२० ते १७०



ज्ञानेश्वरी / अध्याय सतरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या  १२० ते  १७०




आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिम शृणु ॥ ७॥


आणि एकसरें आहारा | कैसेनि तिनी मोहरा |
जालिया तेही वीरा | रोकडें दाऊं ॥ १२० ॥

एकसरें=एकच    मोहरा =प्रकारचा
 
तरी जेवणाराचिया रुची | निष्पत्ति कीं बोनियांची |
आणि जेवितां तंव गुणांची | दासी येथ ॥ १२१ ॥

बोनियांची=पक्वान्न

जे जीव कर्ता भोक्ता | तो गुणास्तव स्वभावता |
पावोनियां त्रिविधता | चेष्टे त्रिधा ॥ १२२ ॥

म्हणौनि त्रिविधु आहारु | यज्ञुही त्रिप्रकारु |
तप दान हन व्यापारु | त्रिविधचि ते ॥ १२३ ॥

पैं आहार लक्षण पहिले? | सांगों जें म्हणितलें |
तें आईक गा भलें | रूप करूं ॥ १२४ ॥


आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ ८॥


तरी सत्त्वगुणाकडे | जें दैवें भोक्ता पडे |
तैं मधुरीं रसीं वाढे | मेचु तया ॥ १२५ ॥

मेचु=आवड

आंगेंचि द्रव्यें सुरसें | जे आंगेंचि पदार्थ गोडसे |
आंगेंचि स्नेहें बहुवसें | सुपक्वें जियें ॥ १२६ ॥

आकारें नव्हती डगळें | स्पर्शें अति मवाळें |
जिभेलागीं स्नेहाळें | स्वादें जियें ॥ १२७ ॥

डगळें=मोठे

रसें गाढीं वरी ढिलीं | द्रवभावीं आथिलीं |
ठायें ठावो सांडिलीं | अग्नितापें ॥ १२८ ॥

ठायें ठावो=जेथीचा तेथे (योग्य)

आंगें सानें परीणामें थोरु | जैसें गुरुमुखींचें अक्षरु |
तैशी अल्पीं जिहीं अपारु | तृप्ति राहे ॥ १२९ ॥

सानें=लहान

आणि मुखीं जैसीं गोडें | तैसीचिहि ते आंतुलेकडे |
तिये अन्नीं प्रीति वाढे | सात्त्विकांसी ॥ १३० ॥

एवं गुणलक्षण | सात्त्विक भोज्य जाण |
आयुष्याचें त्राण | नीच नवें हें ॥ १३१ ॥

त्राण=बळ  नीच=नित्य

येणें सात्त्विक रसें | जंव देहीं मेहो वरीषे |
तंव आयुष्यनदी उससे | दिहाचि दिहा ॥ १३२ ॥

मेहो=मेघ     उससे =भरून वाहते

सत्त्वाचिये कीर पाळती | कारण हाचि सुमती |
दिवसाचिये उन्नती | भानु जैसा ॥ १३३ ॥

कीर पाळती=पोषण करणारा

आणि शरीरा हन मानसा | बळाचा पैं कुवासा |
हा आहारु तरी दशा | कैंची रोगां ॥ १३४ ॥

कुवासा=आश्रय

हा सात्त्विकु होय भोग्यु | तैं भोगावया आरोग्यु |
शरीरासी भाग्यु | उदयलें जाणो ॥ १३५ ॥

आणि सुखाचें घेणें देणें | निकें उवाया ये येणें |
हें असो वाढे साजणें | आनंदेंसीं ॥ १३६ ॥

उवाया=उत्कर्षा

ऐसा सात्त्विकु आहारु | परीणमला थोरु |
करी हा उपकारु | सबाह्यासी ॥ १३७ ॥

आतां राजसासि प्रीती | जिहीं रसीं आथी |
करूं तयाही व्यक्ती | प्रसंगें गा ॥ १३८ ॥


कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ ९॥


तरी मारें उणें काळकुट | तेणें मानें जें कडुवट |
कां चुनियाहूनि दासट | आम्ल हन ॥ १३९ ॥

दासट=दाहक

कणिकीतें जैसें पाणी | तैसेंचि मीठ बांधया आणी |
तेतुलीच मेळवणी | रसांतरांची ॥ १४० ॥

ऐसें खारट अपाडें | राजसा तया आवडे |
ऊन्हाचेनि मिषें तोंडें | आगीचि गिळी ॥ १४१ ॥

वाफेचिया सिगे | वातीही लाविल्या लागे |
तैसें उन्ह मागे | राजसु तो ॥ ११४२ ॥

सिगे=टोकदार

वावदळ पाडूनि ठाये | साबळु डाहारला आहे |
तैसें तीख तो खाये | जें घायेविण रुपे ॥ १४३ ॥

वावदळ=दगड    साबळु=पहार

आणि राखेहूनि कोरडें | आंत बाहेरी येके पाडें |
तो जिव्हादंशु आवडे | बहु तया ॥ १४४ ॥

परस्परें दांतां | आदळु होय खातां |
तो गा तोंडीं घेतां | तोषों लागे ॥ १४५ ॥

आधींच द्रव्यें चुरमुरीं | वरी परवडिजती मोहरी |
जियें घेतां होती धुवारी | नाकेंतोंडें ॥ १४६ ॥

चुरमुरीं=झणझणीत तिखट परवडिजती=माखणे

हें असो उगें आगीतें | म्हणे तैसें राइतें |
पढियें प्राणापरौतें | राजसासि गा ॥ १४७ ॥

ऐसा न पुरोनि तोंडा | जिभा केला वेडा |
अन्नमिषें अग्नि भडभडां | पोटीं भरी ॥ १४८ ॥

तैसाचि लवंगा सुंठे | मग भुईं गा सेजे खाटे |
पाणियाचें न सुटे | तोंडोनि पात्र ॥ १४९ ॥

ते आहार नव्हती घेतले | व्याधिव्याळ जे सुतले |
ते चेववावया घातलें | माजवण पोटीं ॥ १५० ॥

सुतले=निजले  माजवण=मादक पदार्थ

तैसें एकमेकां सळें | रोग उठती एके वेळे |
ऐसा राजसु आहारु फळे | केवळ दुःखें ॥ १५१ ॥

एवं राजसा आहारा | रूप केलें धनुर्धरा |
परीणामाचाहि विसुरा | सांगितला ॥ १५२ ॥

विसुरा=विचार

आतां तया तामसा | आवडे आहारु जैसा |
तेंही सांगों चिळसा | झणें तुम्ही ॥ १५३ ॥

चिळसा=किळस

तरी कुहिलें उष्टें खातां | न मनिजे तेणें अनहिता |
जैसें कां उपहिता | म्हैसी खाय ॥ १५४ ॥  

उपहिता=आंबोन

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यम् भोजनं तामसप्रियम् ॥ १०॥


निपजलें अन्न तैसें | दुपाहरीं कां येरें दिवसें |
अतिकरें तैं तामसें | घेईजे तें ॥ १५५ ॥

अतिकरें=खूप उशिरा

नातरी अर्ध उकडिलें | कां निपट करपोनि गेलें |
तैसेंही खाय चुकलें | रसा जें येवों ॥ १५६ ॥

निपट=पूर्ण

जया कां आथि पूर्ण निष्पत्ती | जेथ रसु धरी व्यक्ती |
तें अन्न ऐसी प्रतीती | तामसा नाहीं ॥ १५७ ॥

व्यक्ती =दिसणे व्यक्त होणे    प्रतीती=समज

ऐसेनि कहीं विपायें | सदन्ना वरपडा होये |
तरी घाणी सुटे तंव राहे | व्याघ्रु जैसा ॥ १५८ ॥

वरपडा=प्राप्त

कां बहुवें दिवशीं वोलांडिलें | स्वादपणें सांडिलें |
शुष्क अथवा सडलें | गाभिणेंही हो ॥ १५९ ॥

गाभिणेंही=आंबलेले

तेंही बाळाचे हातवरी | चिवडिलें जैसी राडी करी |
का सवें बैसोनि नारी | गोतांबील करी ॥ १६० ॥

गोतांबील=एका ताटात खाणे

ऐसेनि कश्मळें जैं खाय | तैं तया सुखभोजन ऐसें होय |
परी येणेंही न धाय | पापिया तो ॥ १६१ ॥

कश्मळें =घाण पापयुक्त    धाय=तुष्ट होणे

मग चमत्कारु देखा | निषेधाचा आंबुखा |
जया का सदोखा | कुद्रव्यासी ॥ १६२ ॥

आंबुखा=शिंतोडा

तया अपेयांच्या पानीं | अखाद्यांच्या भोजनीं |
वाढविजे उतान्ही | तामसें तेणें ॥ १६३ ॥

उतान्ह=इच्छा

एवं तामस जेवणारा | ऐसैसी मेचु हे वीरा |
तयाचें फल दुसरां | क्षणीं नाहीं ॥ १६४ ॥

मेचु=आवड

जे जेव्हांचि हें अपवित्र | शिवे तयाचें वक्त्र |
तेव्हांचि पापा पात्र | जाला तो कीं ॥ १६५ ॥

यावरतें जें जेवीं | ते जेविती वोज न म्हणावी |
पोटभरती जाणावी | यातना ते ॥ १६६ ॥

वोज=रीत

शिरच्छेदें काय होये | का आगीं रिघतां कैसें आहे |
हें जाणावें काई पाहें | परी साहातुचि असे ॥ १६७ ॥

म्हणौनि तामसा अन्ना | परीणामु गा सिनाना |
न सांगोंचि गा अर्जुना | देवो म्हणे ॥ १६८ ॥

सिनाना=वेगळा

आतां ययावरी | आहाराचिया परी |
यज्ञुही अवधारीं | त्रिधा असे ॥ १६९ ॥

परी तिहींमाजीं प्रथम | सात्त्विक यज्ञाचें वर्म |
आईक पां सुमहिम -। शिरोमणी ॥ १७० ॥

सुमहिम=चांगली किर्ति असलेला

by dr. vikrant tikone

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