Sunday, March 19, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १४ वा ओव्या३२० ते ३६१






 

ज्ञानेश्वरी / अध्याय चौदावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या३२० ते ३६१

अर्जुन उवाच।
कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणात्नेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथंचैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ २१॥


तेणें तोषें वीर पुसे | जी कोण्ही चिन्हीं तो दिसे |
जयामाजीं वसे | ऐसा बोधु ॥ ३२० ॥
तो निर्गुण काय आचरे | कैसेनि गुण निस्तरे |
हें सांगिजो माहेरें | कृपेचेनि ॥ ३२१ ॥

यया अर्जुनाचिया प्रश्ना | तो षड्गुणांचा राणा |
परिहारु आकर्णा | बोलतु असे ॥ ३२२ ॥
परिहारु =निरसन करणासाठी
आकर्णा=ऐकून

म्हणे पार्था तुझी नवाई | हें येतुलेंचि पुससी काई |
तें नामचि तया पाहीं | सत्य लटिकें ॥ ३२३ ॥

नवाई=नवलच  येतुलेंचि=असे
तें नामचि=(गुणातीत हे नाव )

गुणातीत जया नांवें | तो गुणाधीन तरी नव्हे |
ना होय तरी नांगवे | गुणां यया ॥ ३२४ ॥
नांगवे=न सापडे

परी अधीन कां नांगवें | हेंचि कैसेनि जाणावें |
गुणांचिये रवरवे- | माजीं असतां ॥ ३२५ ॥
रवरवे=वाळूत गुंतला

हा संदेह जरी वाहसी | तरी सुखें पुसों लाहसी |
परिस आतां तयासी | रूप करूं ॥ ३२६ ॥


श्रीभगवानुवाच।
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति ॥ २२॥


तरी रजाचेनि माजें | देहीं कर्माचें आणोजें |
प्रवृत्ति जैं घेईजे | वेंटाळुनि ॥ ३२७ ॥
आणोजें=अंकुर

तैं मीचि कां कर्मठ | ऐसा न ये श्रीमाठ |
दरिद्रलिये बुद्धी वीट | तोही नाहीं ॥ ३२८ ॥
कर्मठ = कर्म करणारा     श्रीमाठ=अहंकार
दरिद्रलिये=असफल झाली

अथवा सत्त्वेंचि अधिकें | जैं सर्वेंद्रियीं ज्ञान फांके |
तैं सुविद्यता तोखें | उभजेही ना ॥ ३२९ ॥
उभजेही=उबगणे (?गर्व होणे)

कां वाढिन्नलेनि तमें | न गिळिजेचि मोहभ्रमें |
तैं अज्ञानत्वें न श्रमे | घेणेंही नाहीं ॥ ३३० ॥

पैं मोहाच्या अवसरीं | ज्ञानाची चाड न धरी |
ज्ञानें कर्में नादरी | होतां न दुःखी ॥ ३३१ ॥
ज्ञानाची=अनुभव घेण्याची





सायंप्रतर्मध्यान्हा | या तिन्ही काळांची गणना |
नाहीं जेवीं तपना | तैसा असे ॥ ३३२ ॥
तपना=सूर्या

तया वेगळाचि काय प्रकाशें | ज्ञानित्व यावें असें |
कायि जळार्णव पाउसें | साजा होय ? ॥ ३३३ ॥
जळार्णव=समुद्र | साजा=सिध्द (साजरा)

ना प्रवर्तलेनि कर्में | कर्मठत्व तयां कां गमे |
सांगें हिमवंतु हिमें | कांपे कायी ? ॥ ३३४ ॥

नातरी मोह आलिया | काई पां ज्ञाना मुकिजैल तया |
हो मा आगीतें उन्हाळेया | जाळवत असे ? ॥ ३३५ ॥


उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव यो~वतिष्ठति नेङ्गते ॥ २३॥


तैसे गुणागुणकार्य हें | आघवेंचि आपण आहे |
म्हणौनि एकेका नोहे | तडातोडी ॥ ३३६ ॥
तडातोडी=ताटातूट

येवढे गा प्रतीती | तो देहा आलासे वस्ती |
वाटे जातां गुंती- | माजीं जैसा ॥ ३३७ ॥

तो जिणता ना हरवी | तैसा गुण नव्हे ना करवी |
जैसी कां श्रोणवी | संग्रामींची ॥ ३३८ ॥
जिणता =जिंकून देणे श्रोणवी=पृथ्वी

कां शरीरा{आं}तील प्राणु | घरीं आतिथ्याचा ब्राह्मणु |
नाना चोहटांचा स्थाणु | उदासु जैसा ॥ ३३९ ॥
स्थाणु=खांब

आणि गुणाचा यावाजावा | ढळे चळे ना पांडवा |
मृगजळाचा हेलावा | मेरु जैसा ॥ ३४० ॥

हें बहुत कायि बोलिजे | व्योम वारेनि न वचिजे |
कां सूर्य ना गिळिजे | अंधकारें ? ॥ ३४१ ॥

स्वप्न कां गा जियापरी | जगतयातें न सिंतरी |
गुणीं तैसा अवधारीं | न बंधिजे तो ॥ ३४२ ॥
सिंतरी=भ्रमित करणे

गुणांसि कीर नातुडे | परी दुरूनि जैं पाहे कोडें |
तैं गुणदोष सायिखडें | सभ्यु जैसा ॥ ३४३ ॥
सायिखडें =बाहुल्यांचा खेळ

सत्कर्में सात्त्विकीं | रज तें रजोविषयकीं |
तम मोहादिकीं | वर्तत असे ॥ ३४४ ॥

परिस तयाचिया गा सत्ता | होती गुणक्रिया समस्ता |
हें फुडें जाणे सविता | लौकिका जेवीं ॥ ३४५ ॥
फुडें =नीट स्पष्ट सविता=सूर्य

समुद्रचि भरती | सोमकांतचि द्रवती |
कुमुदें विकासती | चंद्रु तो उगा ॥ ३४६ ॥

कां वाराचि वाजे विझे | गगनें निश्चळ असिजे |
तैसा गुणाचिये गजबजे | डोलेना जो ॥ ३४७ ॥

अर्जुना येणें लक्षणें | तो गुणातीतु जाणणें |
परिस आतां आचरणें | तयाचीं जीं ॥ ३४८ ॥


समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियोधीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ २४॥


तरी वस्त्रासि पाठीं पोटीं | नाहीं सुतावांचूनि किरीटी |
ऐसें सुये दिठी | चराचर मद्रूपें ॥ ३४९ ॥

म्हणौनि सुखदुःखासरिसें | कांटाळें आचरे ऐसें |
रिपुभक्तां जैसें | हरीचें देणें ॥ ३५० ॥
कांटाळें=मोजणे

एऱ्हवीं तरी सहजें | सुखदुःख तैंचि सेविजे |
देहजळीं होईजे | मासोळी जैं ॥ ३५१ ॥

आतां तें तंव तेणें सांडिलें | आहे स्वस्वरूपेंसीचि मांडिलें |
सस्यांतीं निवडिलें | बीज जैसें ॥ ३५२ ॥
सस्यांतीं=सश्य अंती,पिक कापण्याच्या वेळी

कां वोघ सांडूनि गांग | रिघोनि समुद्राचें आंग |
निस्तरली लगबग | खळाळाची ॥ ३५३ ॥

तेवीं आपणपांचि जया | वस्ती जाली गा धनंजया |
तया देहीं अपैसया | सुख तैसें दुःख ॥ ३५४ ॥

रात्रि तैसें पाहलें | हें धारणा जेवीं एक जालें |
आत्माराम देहीं आतलें | द्वंद्व तैसें ॥ ३५५ ॥
पाहलें=उजाडता

पैं निद्रिताचेनि आंगेंशीं | सापु तैशी उर्वशी |
तेवीं स्वरूपस्था सरिशीं | देहीं द्वंद्वें ॥ ३५६ ॥

म्हणौनि तयाच्या ठायीं | शेणा सोनया विशेष नाहीं |
रत्‌ना गुंडेया कांहीं | नेणिजे भेदु ॥ ३५७ ॥

घरा येवों पां स्वर्ग | कां वरिपडो वाघ |
परी आत्मबुद्धीसि भंग | कदा नव्हे ॥ ३५८ ॥

निवटलें न उपवडे | जळीनलें न विरूढे |
साम्यबुद्धी न मोडे | तयापरी ॥ ३५९ ॥
निवटलें=मेलेले  न उपवडे=न उठणे

हा ब्रह्मा ऐसेनि स्तविजो | कां नीच म्हणौनि निंदिजो |
परी नेणें जळों विझों | राखोंडी जैसी ॥ ३६० ॥

तैसी निंदा आणि स्तुती | नये कोण्हेचि व्यक्ती |
नाहीं अंधारें कां वाती | सूर्या घरीं ॥ ३६१ ॥
वाती=दिवा 



by dr. vikrant tikone



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