ज्ञानेश्वरी / अध्याय
तेरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओवी ८६५ ते ९३९
ज्ञेय (ब्रह्म )
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वा~मृतमश्नुते ॥
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ १२॥
तरि ज्ञेय ऐसें म्हणणें
| वस्तूतें येणेंचि
कारणें |
जें ज्ञानेंवांचूनि कवणें | उपायें नये ॥ ८६५ ॥
जें ज्ञानेंवांचूनि कवणें | उपायें नये ॥ ८६५ ॥
आणि जाणितलेयावरौतें | कांहींच करणें नाहीं जेथें |
जाणणेंचि तन्मयातें | आणी जयाचें ॥ ८६६ ॥
तन्मयातें-=तद्रूपता आणणे
जें जाणितलेयासाठीं | संसार काढूनियां कांठीं |
जिरोनि जाइजे पोटीं | नित्यानंदाच्या ॥ ८६७ ॥
तें ज्ञेय गा ऐसें | आदि जया नसे |
परब्रह्म आपैसें | नाम जया ॥ ८६८ ॥
जें नाहीं म्हणों जाइजे | तंव विश्वाकारें देखिजे |
आणि विश्वचि ऐसें म्हणिजे | तरि हे माया ॥ ८६९ ॥
रूप वर्ण व्यक्ती | नाहीं दृश्य दृष्टा स्थिती |
तरी कोणें कैसें आथी | म्हणावें पां ॥ ८७० ॥
आणि साचचि जरी नाहीं | तरी महदादि कोणें ठाईं |
स्फुरत कैचें काई | तेणेंवीण असे ? ॥ ८७१ ॥
साचचि=खरोखर
म्हणौनि आथी नाथी हे बोली | जें देखोनि मुकी जाहली |
विचारेंसीं मोडली | वाट जेथें ॥ ८७२ ॥
जैसी भांडघटशरावीं | तदाकारें असे पृथ्वी |
तैसें सर्व होऊनियां सर्वीं | असे जे वस्तु ॥ ८७३ ॥
भांडघटशरावीं |=मातीचे भांडे घट | परात | परळ
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतो~क्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १३॥
आघवांचि देशीं काळीं | नव्हतां देशकाळांवेगळी |
जे क्रिया स्थूळास्थूळीं | तेचि हात जयाचे ॥ ८७४ ॥
तयातें याकारणें | विश्वबाहू ऐसें म्हणणें |
जें सर्वचि सर्वपणें | सर्वदा करी ॥ ८७५ ॥
आणि समस्तांही ठाया | एके काळीं धनंजया |
आलें असे म्हणौनि जया | विश्वांघ्रीनाम ॥ ८७६ ॥
विश्वांघ्रीनाम= विश्व ज्याचे पाय आहे असे नाव असलेला
पैं सवितया आंग डोळे | नाहींत वेगळे वेगळे |
तैसें सर्वद्रष्टे सकळें | स्वरूपें जें ॥ ८७७ ॥
म्हणौनि विश्वतश्चक्षु | हा अचक्षूच्या ठायीं पक्षु |
बोलावया दक्षु | जाहला वेदु ॥ ८७८ ॥
पक्षु |=बाजू मांडणे
जें सर्वांचे शिरावरी | नित्य नांदे सर्वांपरी |
ऐसिये स्थितीवरी | विश्वमूर्धा म्हणिपे ॥ ८७९ ॥
मूर्धा=डोके
पैं गा मूर्ति तेंचि मुख | हुताशना जैसें देख |
तैसें सर्वपणें अशेख | भोक्ते जे ॥ ८८० ॥
हुताशना=अग्नी
यालागीं तया पार्था | विश्वतोमुख हे व्यवस्था |
आली वाक्पथा | श्रुतीचिया ॥ ८८१ ॥
वाक्पथा=मुखी
आणि वस्तुमात्रीं गगन | जैसें असे संलग्न |
तैसें शब्दजातीं कान | सर्वत्र जया ॥ ८८२ ॥
म्हणौनि आम्हीं तयातें | म्हणों सर्वत्र आइकतें |
एवं जें सर्वांतें | आवरूनि असे ॥ ८८३ ॥
एऱ्हवीं तरी महामती | विश्वतश्चक्षु इया श्रुती |
तयाचिया व्याप्ती | रूप केलें ॥ ८८४ ॥
वांचूनि हस्त नेत्र पाये | हें भाष तेथ कें आहे ? |
सर्व शून्याचा न साहे | निष्कर्षु जें ॥ ८८५ ॥
निष्कर्षु=उत्तर अर्थ बाकी
(शून्यही उरू देत नाही)
पैं कल्लोळातें कल्लोळें | ग्रसिजत असे ऐसें कळे |
परी ग्रसितें ग्रासावेगळें | असे काई ? ॥ ८८६ ॥
तैसें साचचि जें एक | तेथ कें व्याप्यव्यापक ? |
परी बोलावया नावेक | करावें लागे ॥ ८८७ ॥
व्याप्यव्यापक=व्याप करणारे
अन होणारे
पैं शून्य जैं दावावें जाहलें | तैं बिंदुलें एक पाहिजे केलें |
तैसें अद्वैत सांगावें बोलें | तैं द्वैत कीजे ॥ ८८८ ॥
एऱ्हवीं तरी पार्था | गुरुशिष्यसत्पथा |
आडळु पडे सर्वथा | बोल खुंटे ॥ ८८९ ॥
आडळु पडे=अडथळा
म्हणौनि गा श्रुती | द्वैतभावें अद्वैतीं |
निरूपणाची वाहती | वाट केली ॥ ८९० ॥
तेंचि आतां अवधारीं | इये नेत्रगोचरें आकारीं |
तें ज्ञेय जयापरी | व्यापक असे ॥ ८९१ ॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ १४॥
तरी तें गा किरीटी ऐसें | अवकाशीं आकाश जैसें |
पटीं पटु होऊनि असे | तंतु जेवीं ॥ ८९२ ॥
उदक होऊनि उदकीं | रसु जैसा अवलोकीं |
दीपपणें दीपकीं | तेज जैसें ॥ ८९३ ॥
कर्पूरत्वें कापुरीं | सौरभ्य असे जयापरी |
शरीर होऊनि शरीरीं | कर्म जेवीं ॥ ८९४ ॥
किंबहुना पांडवा | सोनेंचि सोनयाचा रवा |
तैसें जें या सर्वां | सर्वांगीं असे ॥ ८९५ ॥
परी रवेपणामाजिवडे | तंव रवा ऐसें आवडे |
वांचूनि सोनें सांगडें | सोनया जेवीं ॥ ८९६ ॥
सांगडें=सारखे
पैं गा वोघुचि वांकुडा | परि पाणी उजू सुहाडा |
वन्हि आला लोखंडा | लोह नव्हे कीं ॥ ८९७ ॥
सुहाडा |=अर्जुनाला उद्देशून आनंद देणारा |मित्र
घटाकारें वेंटाळें | तेथ नभ गमे वाटोळें |
मठीं तरी चौफळें | आये दिसे ॥ ८९८ ॥
चौफळें =चौकोनी आये=विस्तार
तरि ते अवकाश जैसें | नोहिजतीचि कां आकाशें |
जें विकार होऊनि तैसें | विकारी नोहे ॥ ८९९ ॥
नोहिजतीचि=न होतात
मन मुख्य इंद्रियां | सत्त्वादि गुणां ययां- |
सारिखें ऐसें धनंजया | आवडे कीर ॥ ९०० ॥
आवडे कीर=खरोखर वाटते
पैं गुळाची गोडी | नोहे बांधया सांगडी |
तैसीं गुण इंद्रियें फुडीं | नाहीं तेथ ॥ ९०१ ॥
सांगडी |=आकार
अगा क्षीराचिये दशे | घृत क्षीराकारें असे |
परी क्षीरचि नोहे जैसें | कपिध्वजा ॥ ९०२ ॥
तैसें जें इये विकारीं | विकार नोहे अवधारीं |
पैं आकारा नाम भोंवरी | येर सोने तें सोनें ॥ ९०३ ॥
भोंवरी=कानातील दागिना
इया उघड सांगडी |मऱ्हाटिया | तें वेगळेपण धनंजया |
जाण गुण इंद्रियां- | पासोनियां ॥ ९०४ ॥
मऱ्हाटिया=सोपे सरळ
नामरूपसंबंधु | जातिक्रियाभेदु |
हा आकारासीच प्रवादु | वस्तूसि नाहीं ॥ ९०५ ॥
तें गुण नव्हे कहीं | गुणा तया संबंधु नाहीं |
परी तयाच्याचि ठायीं | आभासती ॥ ९०६ ॥
येतुलेयासाठीं | संभ्रांताच्या पोटीं |
ऐसें जाय किरीटी | जे हेंचि धरी ॥ ९०७ ॥
तरी तें गा धरणें ऐसें | अभ्रातें जेवीं आकाशें |
कां प्रतिवदन जैसें | आरसेनी ॥ ९०८ ॥
नातरी सूर्य प्रतिमंडल | जैसेनि धरी सलिल |
कां रश्मिकरीं मृगजळ | धरिजे जेवीं ॥ ९०९ ॥
तैसें गा संबंधेंवीण | यया सर्वांतें धरी निर्गुण |
परी तें वायां जाण | मिथ्यादृष्टी ॥ ९१० ॥
आणि यापरी निर्गुणें | गुणातें भोगणें |
रंका राज्य करणें | स्वप्नीं जैसें ॥ ९११ ॥
म्हणौनि गुणाचा संगु | अथवा गुणभोगु |
हा निर्गुणीं लागु | बोलों नये ॥ ९१२ ॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्षमत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १५॥
जें चराचर भूतां- | माजीं असे पंडुसुता |
नाना वन्हीं उष्णता | अभेदें जैसी ॥ ९१३ ॥
तैसेनि अविनाशभावें | जें सूक्ष्मदशे आघवें |
व्यापूनि असे तें जाणावें | ज्ञेय एथ ॥ ९१४ ॥
जें एक आंतुबाहेरी | जें एक जवळ दुरी |
जें एकवांचूनि परी | दुजीं नाहीं ॥ ९१५ ॥
क्षीरसागरींची गोडी | माजीं बहु थडिये थोडी |
हें नाहीं तया परवडी | पूर्ण जें गा ॥ ९१६ ॥
परवडी=प्रकारे
स्वेदजादिप्रभृती | वेगळाल्यां भूतीं |
जयाचिये अनुस्यूतीं | खोमणें नाहीं ॥ ९१७ ॥
अनुस्यूतीं=सतत | खोमणें=कमीपण
पैं श्रोते मुखटिळका | घटसहस्रा अनेकां- |
माजीं बिंबोनि चंद्रिका | न भेदे जेवीं ॥ ९१८ ॥
मुखटिळका=अर्जुन (श्रोत्या
मधला मुख्य )
नाना लवणकणाचिये राशी | क्षारता एकचि जैसी |
कां कोडी एकीं ऊसीं | एकचि गोडी ॥ ९१९ ॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितं।
भूतभर्तृ च तज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १६॥
तैसें अनेकीं भूतजातीं | जें आहे एकी व्याप्ती |
विश्वकार्या सुमती | कारण जें गा ॥ ९२० ॥
म्हणौनि हा भूताकारु | जेथोनि तेंचि तया आधारु |
कल्लोळा सागरु | जियापरी ॥ ९२१ ॥
बाल्यादि तिन्हीं वयसीं | काया एकचि जैसी |
तैसें आदिस्थितिग्रासीं | अखंड जें ॥ ९२२ ॥
सायंप्रातर्मध्यान | होतां जातां दिनमान |
जैसें कां गगन | पालटेना ॥ ९२३ ॥
अगा सृष्टिवेळे प्रियोत्तमा | जया नांव म्हणती ब्रह्मा |
व्याप्ति जें विष्णुनामा | पात्र जाहलें ॥ ९२४ ॥
मग आकारु हा हारपे | तेव्हां रुद्र जें म्हणिपे |
तेंही गुणत्रय जेव्हां लोपे | तैं जें शून्य ॥ ९२५ ॥
नभाचें शून्यत्व गिळून | गुणत्रयातें नुरऊन |
तें शून्य तें महाशून्य | श्रुतिवचनसंमत ॥ ९२६ ॥
नुरऊन= न उरवून
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विस्ठितम् ॥ १७॥
जें अग्नीचें दीपन | जें चंद्राचें जीवन |
सूर्याचे नयन | देखती जेणें ॥ ९२७ ॥
जयाचेनि उजियेडें | तारांगण उभडें |
महातेज सुरवाडें | राहाटे जेणें ॥ ९२८ ॥
उभडें |=उसळणे सुरवाडें=वाढने
जें आदीची आदी | जें वृद्धीची वृद्धी |
बुद्धीची जे बुद्धी | जीवाचा जीवु ॥ ९२९ ॥
जें मनाचें मन | जें नेत्राचे नयन |
कानाचे कान | वाचेची वाचा ॥ ९३० ॥
जें प्राणाचा प्राण | जें गतीचे चरण |
क्रियेचें कर्तेपण | जयाचेनि ॥ ९३१ ॥
आकारु जेणें आकारे | विस्तारु जेणें विस्तारे |
संहारु जेणें संहारे | पंडुकुमरा ॥ ९३२ ॥
जें मेदिनीची मेदिनी | जें पाणी पिऊनि असे पाणी |
तेजा दिवेलावणी | जेणें तेजें ॥ ९३३ ॥
जें वायूचा श्वासोश्वासु | जें गगनाचा अवकाशु |
हें असो आघवाची आभासु | आभासे जेणें ॥ ९३४ ॥
किंबहुना पांडवा | जें आघवेंचि असे आघवा |
जेथ नाहीं रिगावा | द्वैतभावासी ॥ ९३५ ॥
जें देखिलियाचिसवें | दृश्य द्रष्टा हें आघवें |
एकवाट कालवे | सामरस्यें ॥ ९३६ ॥
मग तेंचि होय ज्ञान | ज्ञाता ज्ञेय हन |
ज्ञानें गमिजे स्थान | तेंहि तेंची ॥ ९३७ ॥
जैसें सरलियां लेख | आंख होती एक |
तैसें साध्यसाधनादिक | ऐक्यासि ये ॥ ९३८ ॥
लेख=मोजमाप हिशोब आंख=आकडे
अर्जुना जिये ठायीं | न सरे द्वैताची वही |
हें असो जें हृदयीं | सर्वांच्या असे ॥ ९३९ ॥
सुंदर !
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