ज्ञानेश्वरी अध्याय १३ वा,
ओव्या
१०३७ ते१०८३
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ २४॥
कोणी एकु सुभटा | विचाराचा आगिटां |
आत्मानात्मकिटा | पुटें देउनी ॥ १०३७ ॥
आगिटां=अग्नी
छत्तीसही वानी भेद | तोडोनियां निर्विवाद |
निवडिती शुद्ध | आपणपें ॥ १०३८ ॥
वानी=तत्वे
तया आपणपयाच्या पोटीं | आत्मध्यानाचिया दिठी |
देखती गा किरीटी | आपणपेंचि ॥ १०३९ ॥
आणिक पैं दैवबगें | चित्त देती सांख्ययोगें |
एक ते अंगलगें | कर्माचेनी ॥ १०४० ॥
दैवबगें = दैवबळे अंगलगें=आश्रये
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरंत्येव मृत्युं श्रुतिपरायणः ॥ २५॥
येणें येणें प्रकारें | निस्तरती साचोकारें |
हें भवा भेउरें | आघवेंचि ॥ १०४१ ॥
भेउरें= भय
परी ते करिती ऐसें | अभिमानु दवडूनि देशें |
एकाचिया विश्वासें | टेंकती बोला ॥ १०४२ ॥
टेंकती=ठेवती ,चिटकून
राहती
जे हिताहित देखती | हानि कणवा घेपती |
पुसोनि शिणु हरिती | देती सुख ॥ १०४३ ॥
हानि=कमीपण
तयांचेनि मुखें जें निघे | तेतुलें आदरें चांगें |
ऐकोनियां आंगें | मनें होती ॥ १०४४ ॥
तया ऐकणेयाचि नांवें | ठेविती गा आघवें |
तया अक्षरांसीं जीवें | लोण करिती ॥ १०४५ ॥
तेही अंतीं कपिध्वजा | इया मरणार्णवसमाजा- |
पासूनि निघती वोजा | गोमटिया ॥ १०४६ ॥
गोमटिया=उत्तम वोजा =रीतीने
ऐसेसे हे उपाये | बहुवस एथें पाहें |
जाणावया होये | एकी वस्तु ॥ १०४७ ॥
आतां पुरे हे बहुत | पैं सर्वार्थाचें मथित |
सिद्धांतनवनीत | देऊं तुज ॥ १०४८ ॥
येतुलेनि पंडुसुता | अनुभव लाहाणा आयिता |
येर तंव तुज होतां | सायास नाहीं ॥ १०४९ ॥
लाहाणा=लाभणे आयिता=सहज
म्हणौनि ते बुद्धि रचूं | मतवाद हे खांचूं |
सोलीव निर्वचूं | फलितार्थुची ॥ १०५० ॥
खांचूं =उच्छेद करू
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥ २६॥
तरी क्षेत्रज्ञ येणें बोलें | तुज आपणपें जें दाविलें |
आणि क्षेत्रही सांगितलें | आघवें जें ॥ १०५१ ॥
तया येरयेरांच्या मेळीं | होईजे भूतीं सकळीं |
अनिलसंगें सलिलीं | कल्लोळ जैसे ॥ १०५२ ॥
कां तेजा आणि उखरा | भेटी जालिया वीरा |
मृगजळाचिया पूरा | रूप होय ॥ १०५३ ॥
उखरा=वालवंट, बरड जमीन,
माळरान
नाना धाराधरधारीं | झळंबलिया वसुंधरी |
उठिजे जेवीं अंकुरीं | नानाविधीं ॥ १०५४ ॥
धाराधरधारी=पावूसाच्या धारा झळंबलिया=आदळता
तैसें चराचर आघवें | जें कांहीं जीवु नावें |
तें तों उभययोगें संभवे | ऐसें जाण ॥ १०५५ ॥
इयालागीं अर्जुना | क्षेत्रज्ञा प्रधाना- |
पासूनि न होती भिन्ना | भूतव्यक्ती ॥ १०५६ ॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २७॥
पैं पटत्व तंतु नव्हे | तरी तंतूसीचि तें आहे |
ऐसां खोलीं डोळां पाहें | ऐक्य हें गा ॥ १०५७ ॥
भूतें आघवींचि होती | एकाचीं एक आहाती |
परी तूं प्रतीती | यांची घे पां ॥ १०५८ ॥
यांचीं नामेंही आनानें | अनारिसीं वर्तनें |
वेषही सिनाने | आघवेयांचे ॥ १०५९ ॥
ऐसें देखोनि किरीटी | भेद सूसी हन पोटीं |
तरी जन्माचिया कोटी | न लाहसी निघों ॥ १०६० ॥
सूसी=शिरकाव करणे
पैं नानाप्रयोजनशीळें | दीर्घें वक्रें वर्तुळें |
होती एकाचींच फळें | तुंबिणीयेचीं ॥ १०६१ ॥
तुंबिणीयेचीं=भोपळ्याची
होतु कां उजू वांकुडें | परी बोरीचे हें न मोडे |
तैसी भूतें अवघडें | परी वस्तु उजू ॥ १०६२ ॥
बोरीचे= बोरीचे काष्ठ
अंगारकणीं बहुवसीं | उष्णता समान जैशी |
तैसा नाना जीवराशीं | परेशु असे ॥ १०६३ ॥
अंगारकणीं=ठिणग्या
गगनभरी धारा | परी पाणी एकचि वीरा |
तैसा या भूताकारा | सर्वांगीं तो ॥ १०६४ ॥
हें भूतग्राम विषम | परी वस्तू ते एथ सम |
घटमठीं व्योम | जिंयापरी ॥ १०६५ ॥
हा नाशतां भूताभासु | एथ आत्मा तो अविनाशु |
जैसा केयूरादिकीं कसु | सुवर्णाचा ॥ १०६६ ॥
केयूरादिकीं=एक दागिना
एवं जीवधर्महीनु | जो जीवेंसीं अभिन्नु |
देख तो सुनयनु | ज्ञानियांमाजीं ॥ १०६७ ॥
ज्ञानाचा डोळा डोळसां- | माजीं डोळसु तो वीरेशा |
हे स्तुति नोहे बहुवसा | भाग्याचा तो ॥ १०६८ ॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २८॥
जे गुणेंद्रिय धोकोटी | देह धातूंची त्रिकुटी |
पांचमेळावा वोखटी | दारुण हे ॥ १०६९ ॥
धोकोटी=पिशवी पेटी(नाव्ह्याची)
पांचमेळावा=पाच गुणांचा मेळावा वोखटी=वाईट
हें उघड पांचवेउली | पंचधां आगी लागली |
जीवपंचानना सांपडली | हरिणकुटी हे ॥ १०७० ॥
वेउली=इंगळी हरिणकुटी=सापळा
ऐसा असोनि इये शरीरीं | कोण नित्यबुद्धीची सुरी |
अनित्यभावाच्या उदरीं | दाटीचिना ॥ १०७१ ॥
परी इये देहीं असतां | जो नयेचि आपणया घाता |
आणि शेखीं पंडुसुता | तेथेंचि मिळे ॥ १०७२ ॥
जेथ योगज्ञानाचिया प्रौढी | वोलांडूनियां जन्मकोडी |
न निगों इया भाषा बुडी | देती योगी ॥ १०७३ ॥
जें आकाराचें पैल तीर | जें नादाची पैल मेर |
तुर्येचें माजघर | परब्रह्म जें ॥ १०७४ ॥
मेर=सीमा तुर्येचें=ज्ञानावस्था ४ थी स्थिती
मोक्षासकट गती | जेथें येती विश्रांती |
गंगादि आपांपती | सरिता जेवीं ॥ १०७५ ॥
आपांपती=समुद्र
तें सुख येणेंचि देहें | पाय पाखाळणिया लाहे |
जो भूतवैषम्यें नोहे | विषमबुद्धी ॥ १०७६ ॥
पाखाळणिया=धुणे वैषम्यें=भिन्नता
दीपांचिया कोडी जैसें | एकचि तेज सरिसें |
तैसा जो असतुचि असे | सर्वत्र ईशु ॥ १०७७ ॥
कोडी=कोटी
ऐसेनि समत्वें पंडुसुता | जिये जो देखत साता |
तो मरण आणि जीविता | नागवे फुडा ॥ १०७८ ॥
साता=असता नागवे =न सापडे फुडा=खरोखर
म्हणौनि तो दैवागळा | वानीत असों वेळोवेळां |
जे साम्यसेजे डोळां | लागला तया ॥ १०७९ ॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानंअकर्तारं स पश्यति ॥ २९॥
आणि मनोबुद्धिप्रमुखें | कर्मेंद्रियें अशेखें |
करी प्रकृतीचि हें देखे | साच जो गा ॥ १०८० ॥
घरींचीं राहटती घरीं | घर कांहीं न करी |
अभ्र धांवे अंबरीं | अंबर तें उगें ॥ १०८१ ॥
तैसी प्रकृति आत्मप्रभा | खेळे गुणीं विविधारंभा |
येथ आत्मा तो वोथंबा | नेणे कोण ॥ १०८२ ॥
रंभा=वेल
ऐसेनि येणें निवाडें | जयाच्या जीवीं उजिवडें |
अकर्तयातें फुडें | देखिलें तेणें ॥ १०८३ ॥
फुडें=स्पष्ट खरोखर
by dr. vikrant tikone
*********************************************
सुंदर
ReplyDelete