ज्ञानेश्वरी अध्याय १३ वा प्रकृती पुरुष पुढे चालू (मुखत्वे पुरुष वर्णन )ओव्या १००८ ते १०३६
तेथ पुरुषत्व जें असे | तें ये इये प्रकृतिदशे |
चंद्रमा अंवसे | पडिला जैसा ॥ १००८ ॥
विदळ बहु चोखा | मीनलिया वाला एका |
कसु होय पांचका | जयापरी ॥ १००९ ॥
विदळ=हिणकस मीनलिया=मिसळता
वाला=वालाभर सोने
पांचका=कमी प्रतीचे सोने
कां साधूतें गोंधळी | संचारोनि सुये मैळी |
नाना सुदिनाचा आभाळीं | दुर्दिनु कीजे ॥ १०१० ॥
गोंधळी =भूत सुये=घालणे मैळी=पाप
जेवीं पय पशूच्या पोटीं | कां वन्हि जैसा काष्ठीं |
गुंडूनि घेतला पटीं | रत्नदीपु ॥ १०११ ॥
पय=दुध
राजा पराधीनु जाहला | कां सिंहु रोगें रुंधला |
तैसा पुरुष प्रकृती आला | स्वतेजा मुके ॥ १०१२ ॥
रुंधला |=व्यापला
जागता नरु सहसा | निद्रा पाडूनि जैसा |
स्वप्नींचिया सोसा | वश्यु कीजे ॥ १०१३ ॥
तैसें प्रकृति जालेपणें | पुरुषा गुण भोगणें |
उदास अंतुरीगुणें | आतुडे जेवीं ॥ १०१४ ॥
अंतुरीगुणें |
=स्त्रीच्या मुळे आतुडे=सापडे
तैसें अजा नित्या होये | आंगीं जन्ममृत्यूचे घाये |
वाजती जैं लाहे | गुणसंगातें ॥ १०१५ ॥
परि तें ऐसें पंडुसुता | तातलें लोह पिटितां |
जेवीं वन्हीसीचि घाता | बोलती तया ॥ १०१६ ॥
तातलें=तापले
कां आंदोळलिया उदक | प्रतिभा होय अनेक |
तें नानात्व म्हणती लोक | चंद्रीं जेवीं ॥ १०१७ ॥
दर्पणाचिया जवळिका | दुजेपण जैसें ये मुखा |
कां कुंकुमें स्फटिका | लोहितत्व ये ॥ १०१८ ॥
तैसा गुणसंगमें | अजन्मा हा जन्मे |
पावतु ऐसा गमे | एऱ्हवीं नाहीं ॥ १०१९ ॥
अधमोत्तमा योनी | यासि ऐसिया मानी |
जैसा संन्यासी होय स्वप्नीं | अंत्यजादि जाती ॥ १०२० ॥
म्हणौनि केवळा पुरुषा | नाहीं होणें भोगणें देखा |
येथ गुणसंगुचि अशेखा- | लागीं मूळ ॥ १०२१ ॥
अशेखा-=सगळ्यास
उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ २२॥
हा प्रकृतिमाजीं उभा | परी जुई जैसा वोथंबा |
इया प्रकृति पृथ्वी नभा | तेतुला पाडु ॥ १०२२ ॥
वोथंबा |=खांब
प्रकृतिसरितेच्या तटीं | मेरु होय हा किरीटी |
माजीं बिंबे परी लोटीं | लोटों नेणे ॥ १०२३ ॥
प्रकृति होय जाये | हा तो असतुचि आहे |
म्हणौनि आब्रह्माचें होये | शासन हा ॥ १०२४ ॥
आब्रह्माचें=ब्रह्मापासून
प्रकृति येणें जिये | याचिया सत्ता जग विये |
इयालागीं इये | वरयेतु हा ॥ १०२५ ॥
वरयेतु=नवरा
अनंतें काळें किरीटी | जिया मिळती इया सृष्टी |
तिया रिगती ययाच्या पोटीं | कल्पांतसमयीं ॥ १०२६ ॥
हा महद्ब्रह्मगोसावी | ब्रह्मगोळ लाघवी |
अपारपणें मवी | प्रपंचातें ॥ १०२७ ॥
गोसावी=स्वामी लाघवी=आश्चर्यकारक रित्या
पैं या देहामाझारीं | परमात्मा ऐसी जे परी |
बोलिजे तें अवधारीं | ययातेंचि ॥ १०२८ ॥
अगा प्रकृतिपरौता | एकु आथी पंडुसुता |
ऐसा प्रवादु तो तत्त्वता | पुरुषु हा पैं ॥ १०२९ ॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २३॥
जो निखळपणें येणें | पुरुषा यया जाणे |
आणि गुणांचें करणें | प्रकृतीचें तें ॥ १०३० ॥
हें रूप हे छाया | पैल जळ हे माया |
ऐसा निवाडु धनंजया | जेवीं कीजे ॥ १०३१ ॥
तेणें पाडें अर्जुना | प्रकृतिपुरुषविवंचना |
जयाचिया मना | गोचर जाहली ॥ १०३२ ॥
तो शरीराचेनि मेळें | करूं कां कर्में सकळें |
परी आकाश धुई न मैळे | तैसा असे ॥ १०३३ ॥
आथिलेनि देहें | जो न घेपे देहमोहें |
देह गेलिया नोहे | पुनरपि तो ॥ १०३४ ॥
ऐसा तया एकु | प्रकृतिपुरुषविवेकु |
उपकारु अलौकिकु | करी पैं गा ॥ १०३५ ॥
परी हाचि अंतरीं | विवेक भानूचिया परी |
उदैजे तें अवधारीं | उपाय बहुत ॥ १०३६ ॥
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सुंदर !
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