ज्ञानेश्वरी / अध्याय
चौदावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ४१ ते ११५
श्रीभगवानुवाच।
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यद्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ १॥
म्हणौनि गा पुढती | सांगिजैल तुजप्रती |
पर म्हण म्हणौनि श्रुतीं | डाहारिलें जें ॥ ४१ ॥
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यद्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ १॥
म्हणौनि गा पुढती | सांगिजैल तुजप्रती |
पर म्हण म्हणौनि श्रुतीं | डाहारिलें जें ॥ ४१ ॥
पर =दुसरे परके डाहारिलें=पासिद्धीस आणले
एऱ्हवीं ज्ञान हें आपुलें | परी पर ऐसेनि जालें |
जे आवडोनि घेतलें | भवस्वर्गादिक ॥ ४२ ॥
पर=वेगळे
अगा याचि कारणें | हें उत्तम सर्वांपरी मी म्हणें |
जे वन्हि हें तृणें | येरें ज्ञानें ॥ ४३ ॥
जियें भवस्वर्गातें जाणती | यागचि चांग म्हणती |
पारखी फुडी आथी | भेदीं जया ॥ ४४ ॥
पारखी फुडी=नीट पारख करणारा
तियें आघवींचि ज्ञानें | केलीं येणें स्वप्नें |
जैशा वातोर्मी गगनें | गिळिजती अंतीं ॥ ४५ ॥
कां उदितें रश्मिराजें | लोपिलीं चंद्रादि तेजें |
नाना प्रळयांबुमाजें | नदी नद ॥ ४६ ॥
प्रळयांबुमाजें=जालप्रलयात
तैसें येणें पाहलेया | ज्ञानजात जाय लया |
म्हणौनियां धनंजया | उत्तम हें ॥ ४७ ॥
अनादि जे मुक्तता | आपुली असे पंडुसुता |
तो मोक्षु हातां येता | होय जेणें ॥ ४८ ॥
जयाचिया प्रतीती | विचारवीरीं समस्तीं |
नेदिजेचि संसृती | माथां उधऊं ॥ ४९ ॥
विचारवीरीं=विवेकी संसृती=संसार
मनें मन घालूनि मागें | विश्रांति जालिया आंगें |
ते देहीं देहाजोगे | होतीचि ना ॥ ५० ॥
मग तें देहाचें बेळें | वोलांडूनि एकेचि वेळे |
संवतुकी कांटाळें | माझें जालें ॥ ५१ ॥
बेळें=कुंपण संवतुकी कांटाळें=तराजूत तोलल्यावर
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ २॥
जे माझिया नित्यता | तेणें नित्य ते पंडुसुता |
परिपूर्ण पूर्णता | माझियाची ॥ ५२ ॥
मी जैसा अनंतानंदु | जैसाचि सत्यसिंधु |
तैसेचि ते भेदु | उरेचि ना ॥ ५३ ॥
जें मी जेवढें जैसें | तेंचि ते जाले तैसें |
घटभंगीं घटाकाशें | आकाश जेवीं ॥ ५४ ॥
नातरीं दीपमूळकीं | दीपशिखा अनेकीं |
मीनलिया अवलोकीं | होय जैसें ॥ ५५ ॥
दीपमूळकीं= मूळ मुख्य ज्योत
दीपशिखा= इतर दीप ज्योती
अर्जुना तयापरी | सरली द्वैताची वारी |
नांदे नामार्थ एकाहारीं | मीतूंविण ॥ ५६ ॥
नामार्थ=नावापुरते एकाहारीं=एकत्र एकच
येणेंचि पैं कारणें | जैं पहिलें सृष्टीचें जुंपणें |
तेंही तया होणें | पडेचिना ॥ ५७ ॥
जुंपणें=कामास लागणे (फेऱ्यात पडणे )
सृष्टीचिये सर्वादी | जयां देहाची नाहीं बांधी |
ते कैचें प्रळयावधी | निमतील पां ? ॥ ५८ ॥
म्हणौनि जन्मक्षयां- | अतीत ते धनंजया |
मी जालें ज्ञाना इया | अनुसरोनी ॥ ५९ ॥
ऐसी ज्ञानाची वाढी | वानिली देवें आवडी |
तेवींचि पार्थाही गोडी | लावावया ॥ ६० ॥
वाढी=मोठेपण महती
तंव तया जालें आन | सर्वांगीं निघाले कान |
सणई अवधान | आतला पां ॥ ६१ ॥
सणई=संपूर्ण
आतां देवाचिया ऐसें | जाकळीजत असे वोरसें |
जें निरूपण आकाशें | वेंटाळेना ॥ ६२ ॥
जाकळीजत असे
वोरसें =झाकोळले असे प्रेमे
वेंटाळेना=पुरे पडेना
मग म्हणे गा प्रज्ञाकांता | उजवली आजि वक्तृत्वता |
जे बोलायेवढा श्रोता | जोडलासी ॥ ६३ ॥
उजवली=योग्य स्थळी आली (लग्न होवून) (पा.भे
उजळली)
तरि एकु मी अनेकीं | गोंविजे देहपाशकीं |
त्रिगुणीं लुब्धकीं | कवणेपरी ॥ ६४ ॥
लुब्धकीं=चोर ,पारधी
कैसा क्षेत्रयोगें | वियें इयें जगें |
तें परिस सांगें | कवणेपरी ॥ ६५ ॥
पैं क्षेत्र येणें व्याजें | यालागीं हें बोलिजे |
जे मत्संगबीजें | भूतीं पिके ॥ ६६ ॥
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधामहम्यम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ ३॥
एऱ्हवीं तरी महद्ब्रह्म | यालागीं हें ऐसें नाम |
जे महदादिविश्राम | शालिका हें ॥ ६७ ॥
शालिका=विश्रांती घर
विकारां बहुवस थोरी | अर्जुना हेंचि करी |
म्हणौनि अवधारीं | महद्ब्रह्म ॥ ६८ ॥
थोरी=मोठेपण
अव्यक्तवादमतीं | अव्यक्त ऐसी वदंती |
सांख्याचिया प्रतीती | प्रकृति हेचि ॥ ६९ ॥
वेदांतीं इयेतें माया | ऐसें म्हणिजे प्राज्ञराया |
असो किती बोलों वायां | अज्ञान हें ॥७० ॥
आपला आपणपेयां | विसरु जो धनंजया |
तेंचि रूप यया | अज्ञानासी ॥ ७१ ॥
आणिकही एक असे | जें विचारावेळे न दिसे |
वातीं पाहतां जैसें | अंधारें कां ॥ ७२ ॥
विचारावेळे =आत्मरूप विचार वातीं=सूर्य ,दिवा
हालविलिया जाय | निश्चळीं तरी होय |
दुधीं जैसी साय | दुधाची ते ॥ ७३ ॥
पैं जागरु ना स्वप्न | ना स्वरूप अवस्थान |
ते सुषुप्ति कां घन | जैसी होय ॥ ७४ ॥
सुषुप्ति=गाढ निद्रा स्वरूप अवस्थान= समाधी
कां न वियतां वायूतें | वांझें आकाश रितें |
तया ऐसें निरुतें | अज्ञान गा ॥ ७५ ॥
वियतां=विरता
पैल खांबु कां पुरुखु | ऐसा निश्चयो नाहीं एकु |
परी काय नेणों आलोकु | दिसत असे ॥ ७६ ॥
आलोकु=मंद प्रकाशात (दिसत आहे हे खरे )
तेवीं वस्तु जैसी असे | तैसी कीर न दिसे |
परी कांहीं अनारिसें | देखिजेना ॥ ७७ ॥
वस्तु =ब्रह्मज्ञान
अनारिसें=वेगळे
ना राती ना तेज | ते संधि जेवीं सांज |
तेवीं विरुद्ध ना निज | ज्ञान आथी ॥ ७८ ॥
विरुद्ध=विपरीत ज्ञान निज=सत्य स्वरुपात
ज्ञान=पा.भेद अज्ञान
ऐसी कोण्ही एकी दिशा | तिये वादु अज्ञान ऐसा |
तया गुंडलिया प्रकाशा | क्षेत्रज्ञु नाम ॥ ७९ ॥
गुंडलिया=वेढलेल्या
अज्ञान थोरिये आणिजे | आपणपें तरी नेणिजे |
तें रूप जाणिजे | क्षेत्रज्ञाचें ॥ ८० ॥
हाचि उभय योगु | बुझें बापा चांगु |
सत्तेचा नैसर्गु | स्वभावो हा ॥ ८१ ॥
.आतां अज्ञानासारिखें | वस्तु आपणपांचि देखे |
परी रूपें अनेकें | नेणों कोणें ॥ ८२ ॥
वस्तु=चैतन्य ,ब्रह्म
जैसा रंकु भ्रमला | म्हणे जा रे मी रावो आला |
कां मूर्च्छितु गेला | स्वर्गलोकां ॥ ८३ ॥
तेवीं लचकलिया दिठी | मग देखणें जें जें उठी |
तया नाम सृष्टी | मीचि वियें पैं गा ॥ ८४ ॥
लचकलिया=चळता बिघडता
जैसें कां स्वप्नमोहा | तो एकाकी देखे बहुवा |
तोचि पाडु आत्मया | स्मरणेंवीण असे ॥ ८५ ॥
हेंचि आनी भ्रांती | प्रमेय उपलवूं पुढती |
परी तूं प्रतीती | याचि घे पां ॥ ८६ ॥
भ्रांती | प्रमेय=भ्रांतीचा
सिद्धांत
तरी माझी हे गृहिणी | अनादि तरुणी |
अनिर्वाच्यगुणी | अविद्या हे ॥ ८७ ॥
अनिर्वाच्य=सांगता येत नाही असे
इये नाहीं हेंचि रूप | ठाणें हें अति उमप |
हें निद्रितां समीप | चेतां दुरी ॥ ८८ ॥
उमप=अमर्याद चेतां=जागता
पैं माझेनिचि आंगें | पहुढल्या हे जागे |
आणि सत्तासंभोगें | गुर्विणी होय ॥ ८९ ॥
गुर्विणी=गरोदर
महद्ब्रह्मौदरीं | प्रकृतीं आठै विकारीं |
गर्भाची करी | पेलोवेली ॥ ९० ॥
महद्ब्रह्मौदरीं =महद ब्रह्म उदरी
पेलोवेली=वाढ
उभयसंगु पहिलें | बुद्धितत्त्वें प्रसवलें |
बुद्धितत्त्व भारैलें | होय मन ॥ ९१ ॥
तरुणी ममता मनाची | ते अहंकार तत्त्व रची |
तेणें महाभूतांची | अभिव्यक्ति होय ॥ ९२ ॥
आणि विषयेंद्रियां गौसी | स्वभावें तंव भूतांसी |
म्हणौनि येती सरिसीं | तियेंही रूपा ॥ ९३ ॥
गौसी=अंतर्भाव सरिसीं=सवे बरोबर
जालेनि विकारक्षोभें | पाठीं त्रिगुणाचें उभें |
तेव्हां ये वासनागर्भें | ठायेंठावों ॥ ९४ ॥
त्रिगुणाचें उभें =त्रिगुण
उत्पन्न होतात
ठायेंठावों=लगेचच
रुखाचा आवांका | जैसी बीजकणिका |
जीवीं बांधें उदका | भेटतखेंवो ॥ ९५ ॥
आवांका=आकार विस्तार
तैसी माझेनि संगें | अविद्या नाना जगें |
आर घेवों लागे | आणियाची ॥ ९६ ॥
आर=अंकुर आणियाची=टोकदार
मग गर्भगोळा तया | कैसें रूप तैं ये आया |
तें परियेसें राया | सुजनांचिया ॥ ९७ ॥
आया=आकारास
पैं मणिज स्वेदज | उद्भिज जारज |
उमटती सहज | अवयव हें ॥ ९८ ॥
मणिज=अंडज=अंड्यासून
स्वेदज=घामापासून
उद्भिज =उगवणारे वृक्षादी
जारज=जन्मा येणारे मनुष्य
व्योमवायुवशें | वाढलेनि गर्भरसें |
मणिजु उससे | अवयव तो ॥ ९९ ॥
उससे=उपजे
पोटीं सूनि तमरजें | आगळिकां तोय तेजें |
उठितां निफजे | स्वेदजु गा ॥ १०० ॥
आगळिकां=अधिकपणा
आपपृथ्वी उत्कटें | आणि तमोमात्रें निकृष्टें |
स्थावरु उमटे | उद्भिजु हा ॥ १०१ ॥
उत्कटें=वाढते निकृष्टें=कमी होणे
पांचां पांचही विरजीं | होती मनबुद्ध्यादि साजीं |
हीं हेतु जारजीं | ऐसें जाण ॥ १०२ ॥
विरजीं =मदतनीस साजीं=सख्य होते
ऐसे चारी हे सरळ | करचरणतळ |
महाप्रकृति स्थूळ | तेंचि शिर ॥ १०३ ॥
प्रवृत्ति पेललें पोट | निवृत्ति ते पाठी नीट |
सुर योनी आंगें आठ | ऊर्ध्वाचीं ॥ १०४ ॥
पेललें =सुटले ऊर्ध्वाचीं=वरची
कंठु उल्हासता स्वर्गु | मृत्युलोकु मध्यभागु |
अधोदेशु चांगु | नितंबु तो ॥ १०५ ॥
ऐसें लेकरूं एक | प्रसवली हें देख |
जयाचें तिन्ही लोक | बाळसें गा ॥ १०६ ॥
चौर्यांयशीं लक्ष योनी | तियें कांडां पेरां सांदणी |
वाढे प्रतिदिनीं | बाळक हें ॥ १०७ ॥
कांडां पेरां
सांदणी=कांडे पेरे सांधे
नाना देह अवयवीं | नामाचीं लेणीं लेववी |
मोहस्तन्यें वाढवी | नित्य नवें ॥ १०८ ॥
सृष्टी वेगवेगळीया | तिया करांघ्रीं आंगोळियां |
भिन्नाभिमान सूदलिया | मुदिया तेथें ॥ १०९ ॥
करांघ्रीं =हात पाय आंगोळियां =बोटे
सूदलिया =घातल्या मुदिया=अंगठ्या
हें एकलौतें चराचर | अविचारित सुंदर |
प्रसवोनि थोर | थोरावली ॥ ११० ॥
अविचारित=अतिशय थोरावली=सुखावली धन्य झाली
पै ब्रह्मा प्रातःकाळु | विष्णु तो माध्यान्ह वेळु |
सदाशिव सायंकाळु | बाळा यया ॥ १११ ॥
महाप्रळयसेजे | खिळोनि निवांत निजे |
विषमज्ञानें उमजें | कल्पोदयीं ॥ ११२ ॥
विषमज्ञानें=भेद ज्ञाने
अर्जुना इयापरी | मिथ्यादृष्टीच्या घरीं |
युगानुवृत्तीचीं करी | चोज पाउलें ॥ ११३ ॥
युगानुवृत्तीचीं =युगायुगाच्या येणे जाणे
चोज=कौतुक
संकल्पु जयाचा इष्टु | अहंकारु तो विनटु |
ऐसिया होय शेवटु | ज्ञानें यया ॥ ११४ ॥
इष्टु =लडका
आवडता विनटु=खेळगडी
आतां असो हे बहु बोली | ऐसें विश्व माया व्याली |
तेथ साह्य जाली | माझी सत्ता ॥ ११५ ॥
by dr. vikrant tikone
सुंदर !
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