ज्ञानेश्वरी / अध्याय १३वा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ९४० ते ९५७
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १८॥
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १८॥
एवं तुजपुढां | आदीं क्षेत्र सुहाडा |
दाविलें फाडोवाडां | विवंचुनी ॥ ९४० ॥
आदीं क्षेत्र=मुळ क्षेत्र सुहाडा=मित्रा
तैसेंचि क्षेत्रापाठीं | जैसेनि देखसी दिठी |
तें ज्ञानही किरीटी | सांगितलें ॥ ९४१ ॥
अज्ञानाही कौतुकें | रूप केलें निकें |
जंव आयणी तुझी टेंके | पुरे म्हणे ॥ ९४२ ॥
आयणी=बुद्धी टेंके=तृप्त होणे
आणि आतां हें रोकडें | उपपत्तीचेनि पवाडें |
निरूपिलें उघडें | ज्ञेय पैं गा ॥ ९४३ ॥
हे आघवीच विवंचना | बुद्धी भरोनि अर्जुना |
मत्सिद्धिभावना | माझिया येती ॥ ९४४ ॥
विवंचना=विचार मत्सिद्धि भावना=माझी प्राप्ती भाव
देहादि परिग्रहीं | संन्यासु करूनियां जिहीं |
जीवु माझ्या ठाईं | वृत्तिकु केला ॥ ९४५ ॥
वृत्तिकु=आश्रित
ते मातें किरीटी | हेंचि जाणौनियां शेवटीं |
आपणपयां साटोवाटीं | मीचि होती ॥ ९४६ ॥
साटोवाटीं=मोबदला देवून
मीचि होती परी | हे मुख्य गा अवधारीं |
सोहोपी सर्वांपरी | रचिलीं आम्हीं ॥ ९४७ ॥
सर्वांपरी=सर्वांसाठी
कडां पायरी कीजे | निराळीं माचु बांधिजे |
अथावीं सुइजे | तरी जैसी ॥ ९४८ ॥
अथावीं=समुद्र अथाव सुइजे=घालणे
तरी=नाव होडी
एऱ्हवीं अवघेंचि आत्मा | हें सांगों जरी वीरोत्तमा |
परी तुझिया मनोधर्मा | मिळेल ना ॥ ९४९ ॥
म्हणौनि एकचि संचलें | चतुर्धा आम्हीं केलें |
जें अदळपण देखिलें | तुझिये प्रज्ञे ॥ ९५० ॥
अदळपण=असामर्थ्य
दुर्बलता
पैं बाळ जैं जेवविजे | तैं घांसु विसा ठायीं कीजे |
तैसें एकचि हेंचतुर्व्याजें | कथिलें आम्हीं ॥ ९५१ ॥
एक क्षेत्र एक ज्ञान | एक ज्ञेय एक अज्ञान |
हे भाग केले अवधान | जाणौनि तुझें ॥ ९५२ ॥
आणि ऐसेनही पार्था | जरी हा अभिप्रावो तुज हाता |
नये तरी हे व्यवस्था | एक वेळ सांगों ॥ ९५३ ॥
आतां चौठायीं न करूं | एकही म्हणौनि न सरूं |
आत्मानात्मया धरूं | सरिसा पाडु ॥ ९५४ ॥
सरिसा=सारखाच मूल्य
परि तुवां येतुलें करावें | मागों तें आम्हां देआवें |
जे कानचि नांव ठेवावें | आपण पैं गा ॥ ९५५ ॥
या श्रीकृष्णाचिया बोला | पार्थु रोमांचितु जाहला |
तेथ देवो म्हणती भला | उचंबळेना ॥ ९५६ ॥
ऐसेनि तो येतां वेगु | धरूनि म्हणे श्रीरंगु |
प्रकृतिपुरुषविभागु | परिसें सांगों ॥ ९५७ ॥
by dr. vikrant tikone
सुंदर !
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