Sunday, January 8, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १३ वा ओव्या ९५८ ते १००७ (मुखत्वे प्रकृती)



ज्ञानेश्वरी अध्याय१३ वा ओव्या ९५८ ते १००७   संत ज्ञानेश्वर
प्रकृती पुरुष वर्णन (मुखत्वे प्रकृती)

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥ १९॥


जया मार्गातें जगीं | सांख्य म्हणती योगी |
जयाचिये भाटिवेलागीं | मी कपिल जाहलों ॥ ९५८ ॥

भाटिवेलागीं=कीर्ती गाण्यासाठी भाट

तो आइक निर्दोखु | प्रकृतिपुरुषविवेकु |
म्हणे आदिपुरुखु | अर्जुनातें ॥ ९५९ ॥


तरी पुरुष अनादि आथी | आणि तैंचि लागोनि प्रकृति |
संसरिसी दिवोराती | दोनी जैसी ॥ ९६० ॥

संसरिसी=जोडलेली संलग्न वावरती

कां रूप नोहे वायां | परी रूपा लागली छाया |
निकणु वाढे धनंजया | कणेंसीं कोंडा ॥ ९६१ ॥

वायां =व्यर्थ निष्फळ
निकणु=कणीस

तैसीं जाण जवटें | दोन्हीं इयें एकवटे |
प्रकृतिपुरुष प्रगटें | अनादिसिद्धें ॥ ९६२ ॥

जवटें=जुळी |जोडी

पैं क्षेत्र येणें नांवें | जें सांगितलें आघवें |
तेंचि एथ जाणावें | प्रकृति हे गा ॥ ९६३ ॥

आणि क्षेत्रज्ञ ऐसें | जयातें म्हणितलें असे |
तो पुरुष हें अनारिसे | न बोलों घेईं ॥ ९६४ ॥

इयें आनानें नांवें | परी निरूप्य आन नोहे |
हें लक्षण न चुकावें | पुढतपुढती ॥ ९६५ ॥

तरी केवळ जे सत्ता | तो पुरुष गा पंडुसुता |
प्रकृतीतें समस्तां | क्रिया नाम ॥ ९६६ ॥

बुद्धि इंद्रियें अंतःकरण | इत्यादि विकारभरण |
आणि ते तिन्ही गुण | सत्त्वादिक ॥ ९६७ ॥

हा आघवाचि मेळावा | प्रकृती जाहला जाणावा |
हेचि हेतु संभवा | कर्माचिया ॥ ९६८ ॥



कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ २०॥


तेथ इच्छा आणि बुद्धि | घडवी अहंकारेंसीं आधीं |
मग तिया लाविती वेधीं | कारणाच्या ॥ ९६९ ॥

तेंचि कारण ठाकावया | जें सूत्र धरणें उपाया |
तया नांव धनंजया | कार्य पैं गा ॥ ९७० ॥

आणि इच्छा मदाच्या थावीं | लागली मनातें उठवी |
तें इंद्रियें राहाटवी | हें कर्तृत्व पैं गा ॥ ९७१ ॥

थावीं= आश्रय

म्हणौनि तीन्ही या जाणा | कार्यकर्तृत्वकारणा |
प्रकृति मूळ हे राणा | सिद्धांचा म्हणे ॥ ९७२ ॥

एवं तिहींचेनि समवायें | प्रकृति कर्मरूप होये |
परी जया गुणा वाढे त्राये | त्याचि सारिखी ॥ ९७३ ॥

त्राये= बळ

जें सत्त्वगुणें अधिष्ठिजे | तें सत्कर्म म्हणिजे |
रजोगुणें निफजे | मध्यम तें ॥ ९७४ ॥


जें कां केवळ तमें | होती जियें कर्में |
निषिद्धें अधमें | जाण तियें ॥ ९७५ ॥

ऐसेनि संतासंतें | कर्में प्रकृतीस्तव होतें |
तयापासोनि निर्वाळतें | सुखदुःख गा ॥ ९७६ ॥

संतासंतें=चांगली वाईट निर्वाळतें=तयार होते

असंतीं दुःख उपजे | सत्कर्मीं सुख निफजे |
तया दोहींचा बोलिजे | भोगु पुरुषा ॥ ९७७ ॥

सुखदुःखें जंववरी | निफजती साचोकारीं |
तंव प्रकृति उद्यमु करी | पुरुषु भोगी ॥ ९७८ ॥

प्रकृतिपुरुषांची कुळवाडी | सांगतां असंगडी |
जे आंबुली जोडी | आंबुला खाय ॥ ९७९ ॥

कुळवाडी =संसार व्यापार
असंगडी=चमत्कारिक  असामान्य
आंबुली आंबुला=पत्नी पती

आंबुला आंबुलिये | संगती ना सोये |
कीं आंबुली जग विये | चोज ऐका ॥ ९८० ॥

चोज=कौतुक


पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुण संगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २१॥


जे अनंगु तो पेंधा | निकवडा नुसधा |
जीर्णु अतिवृद्धा- | पासोनि वृद्धु ॥ ९८१ ॥

अनंगु=अंगहीन(कामदेव)   तो पेंधा |=पांगळा
 निकवडा=निर्धन नुसधा=केवळ एकटा

तया आडनांव पुरुषु | एऱ्हवीं स्त्री ना नपुंसकु |
किंबहुना एकु | निश्चयो नाहीं ॥ ९८२ ॥

तो अचक्षु अश्रवणु | अहस्तु अचरणु |
रूप ना वर्णु | नाम आथी ॥ ९८३ ॥

अर्जुना कांहींचि जेथ नाहीं | तो प्रकृतीचा भर्ता पाहीं |
कीं भोगणें ऐसयाही | सुखदुःखांचें ॥ ९८४ ॥

तो तरी अकर्ता | उदासु अभोक्ता |
परी इया पतिव्रता | भोगविजे ॥ ९८५ ॥

जियेतें अळुमाळु | रूपागुणाचा चाळढाळु |
ते भलतैसाही खेळु | लेखा आणी ॥ ९८६ ॥

अळुमाळु =किंचित  चाळढाळु=अनुकुलता
लेखा=आकाराला

मा इये प्रकृती तंव | गुणमयी हेंचि नांव |
किंबहुना सावेव | गुण तेचि हे ॥ ९८७ ॥

हे प्रतिक्षणीं नीत्य नवी | रूपा गुणाचीच आघवी |
जडातेंही माजवी | इयेचा माजु ॥ ९८८ ॥

नामें इयें प्रसिद्धें | स्नेहो इया स्निग्धें |
इंद्रियें प्रबुद्धें | इयेचेनि ॥ ९८९ ॥

प्रबुद्धें=जागी

कायि मन हें नपुंसक | कीं ते भोगवी तिन्ही लोक |
ऐसें ऐसें अलौकिक | करणें इयेचें ॥ ९९० ॥

हे भ्रमाचे महाद्वीप | व्याप्तीचें रूप |
विकार उमप | इया केले ॥ ९९१ ॥

उमप=अपार  |ते सर्व

हे कामाची मांडवी | हे मोहवनींची माधवी |
इये प्रसिद्धचि दैवी | माया हे नाम ॥ ९९२ ॥


हे वाङ्मयाची वाढी | हे साकारपणाची जोडी |
प्रपंचाची धाडी | अभंग हे ॥ ९९३ ॥

धाडी=हल्ला

कळा एथुनि जालिया | विद्या इयेच्या केलिया |
इच्छा ज्ञान क्रिया | वियाली हे ॥ ९९४ ॥

हे नादाची टांकसाळ | हे चमत्काराचें वेळाउळ |
किंबहुना सकळ | खेळु इयेचा ॥ ९९५ ॥

वेळाउळ=घर थारा

जे उत्पत्ति प्रलयो होत | ते इयेचे सायंप्रात |
हें असो अद्भुत | मोहन हे ॥ ९९६ ॥

हे अद्वयाचें दुसरें | हे निःसंगाचें सोयरे |
निराळेंसि घरें | नांदत असे ॥ ९९७ ॥

निराळेंसि=निरिच्छ

इयेतें येतुलावरी | सौभाग्यव्याप्तीची थोरी |
म्हणौनि तया आवरी | अनावरातें ॥ ९९८ ॥

तयाच्या तंव ठायीं | निपटूनि कांहींचि नाहीं |
कीं तया आघवेहीं | आपणचि होय ॥ ९९९ ॥

निपटूनि=पूर्णपणे

तया स्वयंभाची संभूती | तया अमूर्ताची मूर्ती |
आपण होय स्थिती | ठावो तया ॥ १००० ॥

 संभूती=जन्म देणारी

तया अनार्ताची आर्ती | तया पूर्णाची तृप्ती |
तया अकुळाची जाती- | गोत होय ॥ १००१ ॥

तया अचर्चाचें चिन्ह | तया अपाराचें मान |
तया अमनस्काचें मन | बुद्धीही होय ॥ १००२ ॥

अचर्चाचें=अवर्णनीय

तया निराकाराचा आकारु | तया निर्व्यापाराचा व्यापारु |
निरहंकाराचा अहंकारु | होऊनि ठाके ॥ १००३ ॥

तया अनामाचें नाम | तया अजाचें जन्म |
आपण होय कर्म- | क्रिया तया ॥ १००४ ॥

तया निर्गुणाचे गुण | तया अचरणाचे चरण |
तया अश्रवणाचे श्रवण | अचक्षूचे चक्षु ॥ १००५ ॥

तया भावातीताचे भाव | तया निरवयवाचे अवयव |
किंबहुना होय सर्व | पुरुषाचें हे ॥ १००६ ॥

ऐसेनि इया प्रकृती | आपुलिया सर्व व्याप्ती |
तया अविकारातें विकृती- | माजीं कीजे ॥ १००७ ॥



by dr. vikrant tikone

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