अध्याय १३
वा ओव्या ११२० ते ११७० समाप्त
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ॥ ३२॥
अगा आकाश कें नाहीं ? | हें न रिघेचि कवणे ठायीं ? |
परी कायिसेनि कहीं | गादिजेना ॥ ११२० ॥
गादिजेना=लिप्त होणे
तैसा सर्वत्र सर्व देहीं | आत्मा असतुचि असे पाहीं |
संगदोषें एकेंही | लिप्त नोहे ॥ ११२१ ॥
पुढतपुढती एथें | हेंचि लक्षण निरुतें |
जे जाणावें क्षेत्रज्ञातें | क्षेत्रविहीना ॥ ११२२ ॥
निरुतें=खरे
संसर्गें चेष्टिजे लोहें | परी लोह भ्रामकु नोहे |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञां आहे | तेतुला पाडु ॥ ११२३ ॥
भ्रामकु=चुंबक
दीपकाची अर्ची | राहाटी वाहे घरींची |
परी वेगळीक कोडीची | दीपा आणि घरा ॥ ११२४ ॥
अर्ची=ज्योत कोडीची=कोटीची
पैं काष्ठाच्या पोटीं | वन्हि असे किरीटी |
परी काष्ठ नोहे या दृष्टी | पाहिजे हा ॥ ११२५ ॥
अपाडु नभा आभाळा | रवि आणि मृगजळा |
तैसाचि हाही डोळां | देखसी जरी ॥ ११२६ ॥
अपाडु=भिन्नत्व
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३३॥
हें आघवेंचि असो एकु | गगनौनि जैसा अर्कु |
प्रगटवी लोकु | नांवें नांवें ॥ ११२७ ॥
नांवें नांवें=पुन:पुन्हा
एथ क्षेत्रज्ञु तो ऐसा | प्रकाशकु क्षेत्राभासा |
यावरुतें हें न पुसा | शंका नेघा ॥ ११२८ ॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगोनाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
शब्दतत्त्वसारज्ञा | पैं देखणें तेचि प्रज्ञा |
जे क्षेत्रा क्षेत्रज्ञा | अपाडु देखे ॥ ११२९ ॥
इया दोहींचें अंतर | देखावया चतुर |
ज्ञानियांचे द्वार | आराधिती ॥ ११३० ॥
याचिलागीं सुमती | जोडिती शांतिसंपत्ती |
शास्त्रांचीं दुभतीं | पोसिती घरीं ॥ ११३१ ॥
योगाचिया आकाशा | वळघिजे येवढाचि धिंवसा |
याचियाचि आशा | पुरुषासि गा ॥ ११३२ ॥
धिंवसा=इच्छा धैर्य वळघिजे=आरूढ होणे प्रवेशने
शरीरादि समस्त | मानिताति तृणवत |
जीवें संतांचे होत | वाहणधरु ॥ ११३३ ॥
वाहणधरु-=पाय धरतात सेवेकरी
ऐसैसियापरी | ज्ञानाचिया भरोवरी |
करूनियां अंतरीं | निरुतें होती ॥ ११३४ ॥
भरोवरी=सामग्री
मग क्षेत्रक्षेत्रज्ञांचें | जें अंतर देखती साचें |
ज्ञानें उन्मेख तयांचें | वोवाळूं आम्ही ॥ ११३५ ॥
आणि महाभूतादिकीं | प्रभेदलीं अनेकीं |
पसरलीसे लटिकी | प्रकृति जे हे ॥ ११३६ ॥
जे शुकनळिकान्यायें | न लगती लागली आहे |
हें जैसें तैसें होये | ठाउवें जयां ॥ ११३७ ॥
जैसी माळा ते माळा | ऐसीचि देखिजे डोळां |
सर्पबुद्धि टवाळा | उखी हौनी ॥ ११३८ ॥
उखी=लोप टवाळा=मिथ्या बुद्धी
कां शुक्ति ते शुक्ती | हे साच होय प्रतीती |
रुपेयाची भ्रांती | जाऊनियां ॥ ११३९ ॥
तैसी वेगळी वेगळेपणें | प्रकृति जे अंतःकरणें |
देखती ते मी म्हणें | ब्रह्म होती ॥ ११४० ॥
जें आकाशाहूनि वाड | जें अव्यक्ताची पैल कड |
जें भेटलिया अपाडा पाड | पडों नेदी ॥ ११४१ ॥
पाड=भेदभाव
आकारु जेथ सरे | जीवत्व जेथ विरे |
द्वैत जेथ नुरे | अद्वय जें ॥ ११४२ ॥
तें परम तत्त्व पार्था | होती ते सर्वथा |
जे आत्मानात्मव्यवस्था- | राजहंसु ॥ ११४३ ॥
ऐसा हा जी आघवा | श्रीकृष्णें तया पांडवा |
उगाणा दिधला जीवा | जीवाचिया ॥ ११४४ ॥
उगाणा=निवडा उलगडा
येर कलशींचें येरीं | रिचविजे जयापरी |
आपणपें तया श्रीहरी | दिधलें तैसें ॥ ११४५ ॥
एका कलशातील दुसऱ्या एका
आणि कोणा देता कोण | तो नर तैसा नारायण |
वरी अर्जुनातें श्रीकृष्ण | हा मी म्हणे ॥ ११४६ ॥
परी असो तें नाथिलें | न पुसतां कां मी बोलें |
किंबहुना दिधलें | सर्वस्व देवें ॥ ११४७ ॥
नाथिलें =कळणे
अवघड
कीं तो पार्थु जी मनीं | अझुनी तृप्ती न मनी |
अधिकाधिक उतान्ही | वाढवीतु असे ॥ ११४८ ॥
उतान्ही=इच्छा
स्नेहाचिया भरोवरी | आंबुथिला दीपु घे थोरी |
चाड अर्जुना अंतरीं | परिसतां तैसी ॥ ११४९ ॥
भरोवरी=परिपूर्णतेने आंबुथिला=पेटलेला
तेथ सुगरिणी आणि उदारे | रसज्ञ आणि जेवणारे |
मिळती मग अवतरे | हातु जैसा ॥ ११५० ॥
तैसें जी होतसे देवा | तया अवधानाचिया लवलवा |
पाहतां व्याख्यान चढलें थांवा | चौगुणें वरी ॥ ११५१ ॥
थांवा=भरास
सुवायें मेघु सांवरे | जैसा चंद्रें सिंधु भरे |
तैसा मातुला रसु आदरें | श्रोतयांचेनि ॥ ११५२ ॥
सुवायें=अनुकूल सांवरे=जमति
आतां आनंदमय आघवें | विश्व कीजेल देवें |
तें रायें परिसावें | संजयो म्हणे ॥ ११५३ ॥
एवं जे महाभारतीं | श्रीव्यासें आप्रांतमती |
भीष्मपर्वसंगतीं | म्हणितली कथा ॥ ११५४ ॥
आप्रांतमती=असीम बुद्धीच्या
तो कृष्णार्जुनसंवादु | नागरीं बोलीं विशदु |
सांगोनि दाऊं प्रबंधु | वोवियेचा ॥ ११५५ ॥
नुसधीचि शांतिकथा | आणिजेल कीर वाक्पथा |
जे शृंगाराच्या माथां | पाय ठेवी ॥ ११५६ ॥
वाक्पथा =सिद्धांतमार्गावर
दाऊं वेल्हाळे देशी नवी | जे साहित्यातें वोजावी |
अमृतातें चुकी ठेवी | गोडिसेंपणें ॥ ११५७ ॥
वेल्हाळे=सुंदर देशी=मराठीत वोजावी =उजळीन
चुकी ठेवी=मागे सारील
बोल वोल्हावतेनि गुणें | चंद्रासि घे उमाणे |
रसरंगीं भुलवणें | नादु लोपी ॥ ११५८ ॥
वोल्हावतेनि=सुंदर विस्तार
करण्याच्या
उमाणे=बरोबरी
खेचरांचियाही मना | आणीन सात्त्विकाचा पान्हा |
श्रवणासवें सुमना | समाधि जोडे ॥ ११५९ ॥
खेचरांचियाही=वायू वर चालणारे भुते
इत्यादी
तैसा वाग्विलास विस्तारू | गीतार्थेंसी विश्व भरूं |
आनंदाचें आवारूं | मांडूं जगा ॥ ११६० ॥
फिटो विवेकाची वाणी | हो कानामनाची जिणी |
देखो आवडे तो खाणी | ब्रह्मविद्येची ॥ ११६१ ॥
वाणी=कमीपणा जिणी=धन्य सार्थक
दिसो परतत्त्व डोळां | पाहो सुखाचा सोहळा |
रिघो महाबोध सुकाळा- | माजीं विश्व ॥ ११६२ ॥
हें निफजेल आतां आघवें | ऐसें बोलिजेल बरवें |
जें अधिष्ठिला असें परमदेवें | श्रीनिवृत्तीं मी ॥ ११६३ ॥
म्हणौनि अक्षरीं सुभेदीं | उपमा श्लोक कोंदाकोंदी |
झाडा देईन प्रतिपदीं | ग्रंथार्थासी ॥ ११६४ ॥
सुभेदीं=मर्म विशद करून
हा ठावोवरी मातें | पुरतया सारस्वतें |
केलें असे श्रीमंतें | श्रीगुरुरायें ॥ ११६५ ॥
तेणें जी कृपासावायें | मी बोलें तेतुलें सामाये |
आणि तुमचिये सभे लाहें | गीता म्हणों ॥ ११६६ ॥
सामाये=सामावाल लाहें=बळ मिळणे
वरी तुम्हा संतांचे पाये | आजि मी लाधलों आहें |
म्हणौनि जी नोहे | अटकु काहीं ॥ ११६७ ॥
प्रभु काश्मिरीं मुकें | नुपजे हें काय कौतुकें |
नाहीं उणीं सामुद्रिकें | लक्ष्मीयेसी ॥ ११६८ ॥
काश्मिरीं=सरस्वती पोटी मुकें=बोलायला मुके मुल
सामुद्रिकें=सामुद्रिक चिन्हे
तैसी तुम्हां संतांपासीं | अज्ञानाची गोठी कायसी |
यालागीं नवरसीं | वरुषेन मी ॥ ११६९ ॥
किंबहुना आतां देवा | अवसरु मज देयावा |
ज्ञानदेव म्हणे बरवा | सांगेन ग्रंथु ॥ ११७० ॥
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां त्रयोदशोऽध्यायः ॥
by dr. vikrant tikone
सुंदर !
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