Thursday, January 12, 2017

अध्याय १३ वा ओव्या ११२० ते ११७० समाप्त




अध्याय १३ वा  ओव्या ११२० ते ११७०  समाप्त

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते ॥ ३२॥


अगा आकाश कें नाहीं ? | हें न रिघेचि कवणे ठायीं ? |
परी कायिसेनि कहीं | गादिजेना ॥ ११२० ॥

गादिजेना=लिप्त होणे
   
तैसा सर्वत्र सर्व देहीं | आत्मा असतुचि असे पाहीं |
संगदोषें एकेंही | लिप्त नोहे ॥ ११२१ ॥

पुढतपुढती एथें | हेंचि लक्षण निरुतें |
जे जाणावें क्षेत्रज्ञातें | क्षेत्रविहीना ॥ ११२२ ॥

निरुतें=खरे

संसर्गें चेष्टिजे लोहें | परी लोह भ्रामकु नोहे |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञां आहे | तेतुला पाडु ॥ ११२३ ॥

भ्रामकु=चुंबक

दीपकाची अर्ची | राहाटी वाहे घरींची |
परी वेगळीक कोडीची | दीपा आणि घरा ॥ ११२४ ॥

अर्ची=ज्योत   कोडीची=कोटीची

पैं काष्ठाच्या पोटीं | वन्हि असे किरीटी |
परी काष्ठ नोहे या दृष्टी | पाहिजे हा ॥ ११२५ ॥

अपाडु नभा आभाळा | रवि आणि मृगजळा |
तैसाचि हाही डोळां | देखसी जरी ॥ ११२६ ॥

अपाडु=भिन्नत्व


यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्‌नं प्रकाशयति भारत ॥ ३३॥


हें आघवेंचि असो एकु | गगनौनि जैसा अर्कु |
प्रगटवी लोकु | नांवें नांवें ॥ ११२७ ॥

नांवें नांवें=पुन:पुन्हा

एथ क्षेत्रज्ञु तो ऐसा | प्रकाशकु क्षेत्राभासा |
यावरुतें हें न पुसा | शंका नेघा ॥ ११२८ ॥


क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगोनाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥


शब्दतत्त्वसारज्ञा | पैं देखणें तेचि प्रज्ञा |
जे क्षेत्रा क्षेत्रज्ञा | अपाडु देखे ॥ ११२९ ॥

इया दोहींचें अंतर | देखावया चतुर |
ज्ञानियांचे द्वार | आराधिती ॥ ११३० ॥

याचिलागीं सुमती | जोडिती शांतिसंपत्ती |
शास्त्रांचीं दुभतीं | पोसिती घरीं ॥ ११३१ ॥

योगाचिया आकाशा | वळघिजे येवढाचि धिंवसा |
याचियाचि आशा | पुरुषासि गा ॥ ११३२ ॥

धिंवसा=इच्छा धैर्य   वळघिजे=आरूढ होणे प्रवेशने

शरीरादि समस्त | मानिताति तृणवत |
जीवें संतांचे होत | वाहणधरु ॥ ११३३ ॥

वाहणधरु-=पाय धरतात सेवेकरी


ऐसैसियापरी | ज्ञानाचिया भरोवरी |
करूनियां अंतरीं | निरुतें होती ॥ ११३४ ॥

भरोवरी=सामग्री

मग क्षेत्रक्षेत्रज्ञांचें | जें अंतर देखती साचें |
ज्ञानें उन्मेख तयांचें | वोवाळूं आम्ही ॥ ११३५ ॥

आणि महाभूतादिकीं | प्रभेदलीं अनेकीं |
पसरलीसे लटिकी | प्रकृति जे हे ॥ ११३६ ॥

जे शुकनळिकान्यायें | न लगती लागली आहे |
हें जैसें तैसें होये | ठाउवें जयां ॥ ११३७ ॥

जैसी माळा ते माळा | ऐसीचि देखिजे डोळां |
सर्पबुद्धि टवाळा | उखी हौनी ॥ ११३८ ॥

उखी=लोप   टवाळा=मिथ्या बुद्धी

कां शुक्ति ते शुक्ती | हे साच होय प्रतीती |
रुपेयाची भ्रांती | जाऊनियां ॥ ११३९ ॥

तैसी वेगळी वेगळेपणें | प्रकृति जे अंतःकरणें |
देखती ते मी म्हणें | ब्रह्म होती ॥ ११४० ॥

जें आकाशाहूनि वाड | जें अव्यक्ताची पैल कड |
जें भेटलिया अपाडा पाड | पडों नेदी ॥ ११४१ ॥

पाड=भेदभाव  

आकारु जेथ सरे | जीवत्व जेथ विरे |
द्वैत जेथ नुरे | अद्वय जें ॥ ११४२ ॥

तें परम तत्त्व पार्था | होती ते सर्वथा |
जे आत्मानात्मव्यवस्था- | राजहंसु ॥ ११४३ ॥

ऐसा हा जी आघवा | श्रीकृष्णें तया पांडवा |
उगाणा दिधला जीवा | जीवाचिया ॥ ११४४ ॥

उगाणा=निवडा उलगडा

येर कलशींचें येरीं | रिचविजे जयापरी |
आपणपें तया श्रीहरी | दिधलें तैसें ॥ ११४५ ॥

एका कलशातील दुसऱ्या एका

आणि कोणा देता कोण | तो नर तैसा नारायण |
वरी अर्जुनातें श्रीकृष्ण | हा मी म्हणे ॥ ११४६ ॥

परी असो तें नाथिलें | न पुसतां कां मी बोलें |
किंबहुना दिधलें | सर्वस्व देवें ॥ ११४७ ॥

नाथिलें =कळणे अवघड

कीं तो पार्थु जी मनीं | अझुनी तृप्ती न मनी |
अधिकाधिक उतान्ही | वाढवीतु असे ॥ ११४८ ॥

उतान्ही=इच्छा

स्नेहाचिया भरोवरी | आंबुथिला दीपु घे थोरी |
चाड अर्जुना अंतरीं | परिसतां तैसी ॥ ११४९ ॥

भरोवरी=परिपूर्णतेने आंबुथिला=पेटलेला

तेथ सुगरिणी आणि उदारे | रसज्ञ आणि जेवणारे |
मिळती मग अवतरे | हातु जैसा ॥ ११५० ॥

तैसें जी होतसे देवा | तया अवधानाचिया लवलवा |
पाहतां व्याख्यान चढलें थांवा | चौगुणें वरी ॥ ११५१ ॥

 थांवा=भरास

सुवायें मेघु सांवरे | जैसा चंद्रें सिंधु भरे |
तैसा मातुला रसु आदरें | श्रोतयांचेनि ॥ ११५२ ॥

सुवायें=अनुकूल सांवरे=जमति

आतां आनंदमय आघवें | विश्व कीजेल देवें |
तें रायें परिसावें | संजयो म्हणे ॥ ११५३ ॥
एवं जे महाभारतीं | श्रीव्यासें आप्रांतमती |
भीष्मपर्वसंगतीं | म्हणितली कथा ॥ ११५४ ॥

आप्रांतमती=असीम बुद्धीच्या

तो कृष्णार्जुनसंवादु | नागरीं बोलीं विशदु |
सांगोनि दाऊं प्रबंधु | वोवियेचा ॥ ११५५ ॥

नुसधीचि शांतिकथा | आणिजेल कीर वाक्पथा |
जे शृंगाराच्या माथां | पाय ठेवी ॥ ११५६ ॥

वाक्पथा =सिद्धांतमार्गावर

दाऊं वेल्हाळे देशी नवी | जे साहित्यातें वोजावी |
अमृतातें चुकी ठेवी | गोडिसेंपणें ॥ ११५७ ॥

वेल्हाळे=सुंदर देशी=मराठीत वोजावी =उजळीन
चुकी ठेवी=मागे सारील

बोल वोल्हावतेनि गुणें | चंद्रासि घे उमाणे |
रसरंगीं भुलवणें | नादु लोपी ॥ ११५८ ॥

वोल्हावतेनि=सुंदर विस्तार करण्याच्या
उमाणे=बरोबरी

खेचरांचियाही मना | आणीन सात्त्विकाचा पान्हा |
श्रवणासवें सुमना | समाधि जोडे ॥ ११५९ ॥

खेचरांचियाही=वायू वर चालणारे भुते  इत्यादी


तैसा वाग्विलास विस्तारू | गीतार्थेंसी विश्व भरूं |
आनंदाचें आवारूं | मांडूं जगा ॥ ११६० ॥

फिटो विवेकाची वाणी | हो कानामनाची जिणी |
देखो आवडे तो खाणी | ब्रह्मविद्येची ॥ ११६१ ॥

वाणी=कमीपणा जिणी=धन्य सार्थक

दिसो परतत्त्व डोळां | पाहो सुखाचा सोहळा |
रिघो महाबोध सुकाळा- | माजीं विश्व ॥ ११६२ ॥

हें निफजेल आतां आघवें | ऐसें बोलिजेल बरवें |
जें अधिष्ठिला असें परमदेवें | श्रीनिवृत्तीं मी ॥ ११६३ ॥

म्हणौनि अक्षरीं सुभेदीं | उपमा श्लोक कोंदाकोंदी |
झाडा देईन प्रतिपदीं | ग्रंथार्थासी ॥ ११६४ ॥

सुभेदीं=मर्म विशद करून

हा ठावोवरी मातें | पुरतया सारस्वतें |
केलें असे श्रीमंतें | श्रीगुरुरायें ॥ ११६५ ॥

तेणें जी कृपासावायें | मी बोलें तेतुलें सामाये |
आणि तुमचिये सभे लाहें | गीता म्हणों ॥ ११६६ ॥

सामाये=सामावाल    लाहें=बळ मिळणे

वरी तुम्हा संतांचे पाये | आजि मी लाधलों आहें |
म्हणौनि जी नोहे | अटकु काहीं ॥ ११६७ ॥

प्रभु काश्मिरीं मुकें | नुपजे हें काय कौतुकें |
नाहीं उणीं सामुद्रिकें | लक्ष्मीयेसी ॥ ११६८ ॥

काश्मिरीं=सरस्वती पोटी  मुकें=बोलायला मुके मुल
सामुद्रिकें=सामुद्रिक चिन्हे

तैसी तुम्हां संतांपासीं | अज्ञानाची गोठी कायसी |
यालागीं नवरसीं | वरुषेन मी ॥ ११६९ ॥

किंबहुना आतां देवा | अवसरु मज देयावा |
ज्ञानदेव म्हणे बरवा | सांगेन ग्रंथु ॥ ११७० ॥
इति श्रीज्ञानदेवविरचितायां भावार्थदीपिकायां त्रयोदशोऽध्यायः ॥

by dr. vikrant tikone


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