ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १३५ ते १९९
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ ३॥
कर्म दोषयुक्त आहेत म्हणून त्यांचा त्याग
करावा? वा यज्ञ तप दान या
कर्माचा त्याग कधीही करू नये ?
एकां फळाभिलाष न ठके | ते कर्मांते म्हणती बंधकें |
जैसें आपण नग्न भांडकें | जगातें म्हणे ॥ १३५ ॥
ठके=साधत नाही
कां जिव्हालंपट रोगिया | अन्नें दूषी धनंजया |
आंगा न रुसे कोढिया | मासियां कोपे ॥ १३६ ॥
दूषी=दोष देणे कोढिया=कुष्टरोगी मासियां=माश्या
तैसे फळकाम दुर्बळ | म्हणती कर्मचि किडाळ |
मग निर्णयो देती केवळ | त्यजावें ऐसा ॥ १३७ ॥
मग निर्णयो देती केवळ | त्यजावें ऐसा ॥ १३७ ॥
किडाळ=वाईट
एक म्हणती यागादिक | करावेंचि आवश्यक |
जे यावांचूनि शोधक | आन नसे ॥ १३८ ॥
शोधक=शुद्ध करणारे
मनशुद्धीच्या मार्गीं | जैं विजयी व्हावें वेगीं |
तैं कर्म सबळालागीं | आळसु न कीजे ॥ १३९ ॥
सबळालागीं=(पाठ भेद) =संबंधालागी
भांगार आथी शोधावें | तरी आगी जेवी नुबगावें |
कां दर्पणालागीं सांचावें | अधिक रज ॥ १४० ॥
भांगार =सोने नुबगावें =न कंटाळावे
सांचावें =एकत्रित जमा करणे रज=धूळ
नाना वस्त्रें चोख होआवीं | ऐसें आथी जरी जीवीं |
तरी संवदणी न मनावी | मलिन जैसी ॥ १४१ ॥
संवदणी=सौदणी परटाचे भांडे
तैसीं कर्में क्लेशकारें | म्हणौनि न न्यावीं अव्हेरें |
कां अन्न लाभें अरुवारें | रांधितिये उणें ॥ १४२ ॥
अरुवारें=चवदार रुचकर रांधितिये=जेवण बनवणार्याच्या
उणें=कष्टविना
इहीं इहीं गा शब्दीं | एक कर्मीं बांधिती बुद्धी |
ऐसा त्यागु विसंवादीं | पडोनि ठेला ॥ १४३ ॥
इहीं=या अश्या विसंवादीं=वादात
तरी विसंवादु तो फिटे | त्यागाचा निश्चयो भेटे |
तैसें बोलों गोमटें | अवधान देईं ॥ १४४ ॥
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥ ४॥
(तीन प्रकारचा त्याग )
तरी त्यागु एथें पांडवा | त्रिविधु पैं जाणावा |
तया त्रिविधाही बरवा | विभाग करूं ॥ १४५ ॥
त्यागाचे तीन्ही प्रकार | कीजती जरी गोचर |
तरी तूं इत्यर्थाचें सार | इतुलें जाण ॥ १४६ ॥
गोचर=दिसतील असे स्पष्ट
इत्यर्थाचें=या सगळ्याचे
मज सर्वज्ञाचिये बुद्धी | जें अलोट माने त्रिशुद्धी |
निश्चयतत्व तें आधीं | अवधारीं पां ॥ १४७ ॥
अलोट=श्रेष्ठ
तरी आपुलिये सोडवणें | जो मुमुक्षु जागों म्हणे |
तया सर्वस्वें करणें | हेंचि एक ॥ १४८ ॥
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ ५॥
(यज्ञदानतपः यांचा त्याग करू नये ती चित्त शुद्धीकारक आहेत)
जियें यज्ञदानतपादिकें | इयें कर्में आवश्यकें |
तियें न सांडावीं पांथिकें | पाउलें जैसीं ॥ १४९ ॥
हारपलें न देखिजे | तंव तयाचा मागु न सांडिजे |
कां तृप्त न होतां न लोटिजे | भाणें जेवीं ॥ १५० ॥
भाणें=जेवण
नाव थडी न पवतां | न खांडिजे केळी न फळतां |
कां ठेविलें न दिसतां | दीपु जैसा ॥ १५१ ॥
तैसी आत्मज्ञानविखीं | जंव निश्चिती नाहीं निकी |
तंव नोहावें यागादिकीं | उदासीन ॥ १५२ ॥
तरी स्वाधिकारानुरुपें | तियें यज्ञदानें तपें |
अनुष्ठावींचि साक्षेपें | अधिकेंवर ॥ १५३ ॥
साक्षेपें =यथाविधि नीट
अधिकेंवर=अधिकच
जें चालणें वेगावत जाये | तो वेगु बैसावयाचि होये |
तैसा कर्मातिशयो आहे | नैष्कर्म्यालागीं ॥ १५४ ॥
बैसावयाचि=बसण्यासाठीच (पुढे विश्रांती साठी
)
अधिकें जंव जंव औषधी | सेवनेची मांडी बांधी |
तंव तंव मुकिजे व्याधी | तयाचिये ॥ १५५ ॥
मांडी
बांधी= निश्चय करून घेणे
तैसीं कर्में हातोपातीं | जैं कीजती यथानिगुती |
तैं रजतमें झडती | झाडा देऊनी ॥ १५६ ॥
हातोपातीं= लगेचच त्वरा
कां पाठोवाटीं पुटें | भांगारा खारु देणें घटे |
तैं कीड झडकरी तुटे | निर्व्याजु होय ॥ १५७ ॥
पाठोवाटीं= वारंवार भांगारा=सोने खारु
देणें=एक
तैसें निष्ठा केलें कर्म | तें झाडी करूनि रजतम |
सत्वशुद्धीचें धाम | डोळां दावी ॥ १५८ ॥
म्हणौनियां धनंजया | सत्वशुद्धी गिंवसितया |
तीर्थांचिया सावाया | आलीं कर्में ॥ १५९ ॥
सावाया= सारखी
तीर्थें बाह्यमळु क्षाळे
| कर्में अभ्यंतर उजळे |
एवं तीर्थें जाण निर्मळें | सत्कर्मेचि ॥ १६० ॥
एवं तीर्थें जाण निर्मळें | सत्कर्मेचि ॥ १६० ॥
क्षाळे=धुणे
तृषार्ता मरुदेशीं | झळे अमृतें वोळलीं जैसीं |
कीं अंधालागीं डोळ्यांसी | सूर्यु आला ॥ १६१ ॥
वोळलीं=वर्षाव
बुडतया नदीच धाविन्नली | पडतया पृथ्वीच कळवळिली |
निमतया मृत्यूनें दिधली | आयुष्यवृद्धी ॥ १६२ ॥
निमतया=मरणार्याला
तैसें कर्में कर्मबद्धता | मुमुक्षु सोडविले पंडुसुता |
जैसा रसरीति मरतां | राखिला विषें ॥ १६३ ॥
रसरीति=औषध उपचार
तैसीं एके हातवटिया | कर्में कीजती धनंजया |
बंधकेंचि सोडवावया | मुख्यें होती ॥ १६४ ॥
आतां तेचि हातवटी | तुज सांगों गोमटी |
जया कर्मातें किरीटी | कर्मचि रुसे ॥ १६५ ॥
एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ ६॥
ही कर्मे फलत्याग करून कर्तव्य नीतीने करावी
तरी महायागप्रमुखें | कर्मे निफजतांही अचुकें |
कर्तेपणाचें न ठाके | फुंजणें आंगीं ॥ १६६ ॥
फुंजणें=गर्व
जो मोलें तीर्था जाये | तया मी यात्रा करितु आहे |
ऐसिये श्लाघ्यतेचा नोहे | तोषु जेवीं ॥ १६७ ॥
मोलें =कामासाठी नोकर म्हणून
श्लाघ्यतेचा=गर्व अहंकार
कां मुद्रा समर्थाचिया | जो एकवटु झोंबे राया |
तो मी जिणता ऐसिया | न येचि गर्वा ॥ १६८ ॥
जो कासें लागोनि तरे | तया पोहती ऊर्मी नुरे |
पुरोहितु नाविष्करे | दातेपणें ॥ १६९ ॥
नाविष्करे =दाखवणे मिरवणे
तैसें कर्तृत्व अहंकारें | नेघोनि यथा अवसरें |
कृत्यजातांचें मोहरें | सारीजती ॥ १७० ॥
मोहरें=बाजूला
केल्या कर्मा पांडवा | जो आथी फळाचा यावा |
तया मोहरा हों नेदावा | मनोरथु ॥ १७१ ॥
आधींचि फळीं आस तुटिया | कर्मे आरंभावीं धनंजया |
परावें बाळ धाया | पाहिजे जैसें ॥ १७२ ॥
धाया=दाई
पिंपरुवांचिया आशा | न शिंपिजे पिंपळु जैसा |
तैसिया फळनिराशा | कीजती कर्में ॥ १७३ ॥
पिंपरुवांचिया=पिंपळचे फळ
सांडूनि दुधाची टकळी | गोंवारी गांवधेनु वेंटाळी |
किंबहुना कर्मफळीं | तैसें कीजे ॥ १७४ ॥
टकळी=आशा गोंवारी=गुरे राखणारा
वेंटाळी=सांभाळी
ऐसी हे हातवटी | घेऊनि जे क्रिया उठी |
आपणा आपुलिया गांठी | लाहेची तो ॥ १७५ ॥
म्हणौनि फळीं लागु | सांडोनि देहसंगु |
कर्में करावीं हा चांगु | निरोपु माझा ॥ १७६ ॥
जो जीवबंधीं शिणला | सुटके जाचे आपला |
तेणें पुढतपुढतीं या बोला | आन न कीजे ॥ १७७ ॥
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ ७॥
(नियत कर्म संन्यास योग्य नाही . मोहग्रस्त होवून केलेला त्याग तामस असतो )
नातरी आंधाराचेनि रोखें | जैसीं डोळां रोंविजती नखें |
तैसा कर्मद्वेषें अशेखें | कर्मेंचि सांडी ॥ १७८ ॥
रोखें=रोषाने रागाने अशेखें=सर्व
रोंविजती=खुपसणे
तयाचें जें कर्म सांडणें | तें तामस पैं मी म्हणें |
शिसाराचे रागें लोटणें | शिरचि जैसें ॥ १७९ ॥
शिसाराचे=डोकेदुखी लोटणें=तोडणे
हां गा मार्गु दुवाडु होये | तरी निस्तरितील पाये |
कीं तेचि खांडणें आहे | मार्गापराधें ॥ १८० ॥
दुवाडु=कठीण
भुकेलियापुढें अन्न | हो कां भलतैसें उन्ह |
तरी बुद्धी न घेतां लंघन | भाणें पापरां हल्या ॥ १८१ ॥
पापरां
हल्या=पायाने उडवून
तैसा कर्माचा बाधु कर्में | निस्तरीजे करितेनि वर्में |
हे तामसु नेणें भ्रमें | माजविला ॥ १८२ ॥
वर्में=वर्म जाणून
कीं स्वभावें आलें विभागा | तें कर्मचि वोसंडी पैं गा |
तरी झणें आतळा त्यागा | तामसा तया ॥ १८३ ॥
वोसंडी=सोडणे झणें आतळा=नका स्पर्शू
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥ ८॥
(दुख व काया क्लेशच्या भीतीने केलेला कर्मत्याग राजस असतो व त्याने त्यागाचे फळ मिळत नाही)
अथवा स्वाधिकारु बुझे | आपले विहितही सुजे |
परी करितया उमजे | निबरपणा ॥ १८४ ॥
बुझे=कळे सुजे=समजे, उमजे
निबरपणा=कठीण
जे कर्माची ऐलीकड | नावेक दिसे दुवाड |
जे वाहतिये वेळे जड | शिदोरी जैसी ॥ १८५ ॥
ऐलीकड=आरंभ
जैसा निंब जिभे कडवटु | हिरडा पहिलें तुरटु |
तैसा कर्मा ऐल शेवटु | खणुवाळा होय ॥ १८६ ॥
खणुवाळा=कठीण
कां धेनु दुवाड शिंग | शेवंतीये अडव आंग |
भोजनसुख महाग | पाकु करितां ॥ १८७ ॥
भोजनसुख महाग | पाकु करितां ॥ १८७ ॥
अडव=आडवी पसरली
तैसें पुढतपुढती कर्म | आरंभींच अति विषम |
म्हणौनि तो तें श्रम | करितां मानी ॥ १८८ ॥
विषम= अवघड नकोसे
येऱ्हवीं विहितत्वें मांडी | परी घालितां असुरवाडीं |
तेथ पोळला ऐसा सांडी | आदरिलेंही ॥ १८९ ॥
विहितत्वें=विधिपूर्वक घालितां=सुरू करे
असुरवाडीं=दु:ख आदरिलेंही=सुरू केलेले
म्हणे वस्तु देहासारिखी | आली बहुतीं भाग्यविशेखीं |
मा जाचूं कां कर्मादिकीं | पापिया जैसा ? ॥ १९० ॥
केलें कर्मीं जे द्यावें | तें झणें मज होआवें |
आजि भोगूं ना कां बरवे | हातींचे भोग ? ॥ १९१ ॥
ऐसा शरीराचिया क्लेशा | भेणें कर्में वीरेशा |
सांडी तो परीयेसा | राजसु त्यागु ॥ १९२ ॥
येऱ्हवीं तेथही कर्म सांडे | परी तया त्यागफळ न जोडे |
जैसें उतलें आगीं पडे | तें नलगेचि होमा ॥ १९३ ॥
कां बुडोनि प्राण गेले | ते अर्धोदकीं निमाले |
हें म्हणों नये जाहलें | दुर्मरणचि ॥ १९४ ॥
अर्धोदकीं=जलसमाधी
तैसें देहाचेनि लोभें | जेणें कर्मा पाणी सुभे |
तेणें साच न लभे | त्यागाचें फळ ॥ १९५ ॥
पाणी
सुभे =पाणी सोडणे
किंबहुना आपुलें | जैं ज्ञान होय उदया आलें |
तैं नक्षत्रातें पाहलें | गिळी जैसें ॥ १९६ ॥
पाहलें=पहाट(सूर्य आल्यावर)
तैशा सकारण क्रिया | हारपती धनंजया |
तो कर्मत्यागु ये जया | मोक्षफळासी ॥ १९७ ॥
तें मोक्षफळ अज्ञाना | त्यागिया नाहीं अर्जुना |
म्हणौनि तो त्यागु न माना | राजसु जो ॥ १९८ ॥
तरी कोणे पां एथ त्यागें | तें मोक्षफळ घर रिघे |
हेंही आइक प्रसंगे | बोलिजेल ॥ १९९ ॥
by dr. vikrant tikone