Monday, June 10, 2019

ज्ञानेश्वरी अध्याय १८ वा ओव्या १७३० ते १७९४




ज्ञानेश्वरी / अध्याय अठरावा / संत ज्ञानेश्वर

ओव्या १७३० ते  १७९४

आतां आयती गीता जगीं | मी सांगें मऱ्हाठिया भंगीं |
येथ कें विस्मयालागीं | ठावो आहे ॥ १७३० ॥

श्रीगुरुचेनि नांवें माती | डोंगरीं जयापासीं होती |
तेणें कोळियें त्रिजगतीं | येकवद केली ॥ १७३१ ॥
माती=मूर्ती    कोळियें=एकलव्य येकवद=कीर्ती

चंदनें वेधलीं झाडें | जालीं चंदनाचेनि पाडें |
वसिष्ठें मांनिली, कीं भांडे | भानूसीं शाटी ॥ १७३२ ॥
भांडे=भांडते (स्पर्धा करते)     शाटी=छाटी

मा मी तव चित्ताथिला | आणि श्रीगुरु ऐसा दादुला |
जो दिठीवेनि आपुला | बैसवी पदीं ॥ १७३३ ॥
चित्ताथिला=चित्त संपन्न    दादुला=श्रेष्ठ

आधींचि देखणी दिठी | वरी सूर्य पुरवी पाठी |
तैं न दिसे ऐसी गोठी | केंही आहे ? ॥ १७३४ ॥
देखणी =निर्दोष  सूर्य =पाठी उभे असणे

म्हणौनि माझें नित्य नवे | श्वासोश्वासही प्रबंध होआवे |
श्रीगुरुकृपा काय नोहे | ज्ञानदेवो म्हणे ॥ १७३५ ॥
प्रबंध=काव्य ग्रंथ

याकारणें मियां | श्रीगीतार्थु मऱ्हाठिया |
केला लोकां यया | दिठीचा विषो ॥ १७३६ ॥

परी मऱ्हाठे बोलरंगें | कवळितां पैं गीतांगें |
तैं गातयाचेनि पांगें | ये काढतां नोहे ॥ १७३७ ॥
गीतांगें =गीतेची पदे   पैं=जर   तैं=तेव्हा जर
पांगें =कमतरता उणीव

म्हणौनि गीता गावों म्हणे | तें गाणिवें होती लेणें |
ना मोकळे तरी उणें | गीताही आणित ॥ १७३८ ॥
गाणिवें=गाण्याला    मोकळे तरी= न गाता  वाचली
उणें=मागे सारणे

सुंदर आंगीं लेणें न सूये | तैं तो मोकळा शृंगारु होये |
ना लेइलें तरी आहे | तैसें कें उचित ? ॥ १७३९ ॥
सूये=घालणे   

कां मोतियांची जैसी जाती | सोनयाही मान देती |
नातरी मानविती | अंगेंचि सडीं ॥ १७४० ॥
मानविती=शोभती

नाना गुंफिलीं कां मोकळीं | उणीं न होती परीमळीं |
वसंतागमींचीं वाटोळीं | मोगरीं जैसीं ॥ १७४१ ॥

तैसा गाणिवेतें मिरवी | गीतेवीणही रंगु दावीं |
तो लाभाचा प्रबंधु ओंवी | केला मियां ॥ १७४२ ॥
गीतेवीणही=न गाता ही

तेणें आबालसुबोधें | ओवीयेचेनि प्रबंधें |
ब्रह्मरससुस्वादें | अक्षरें गुंथिलीं ॥ १७४३ ॥
 
आतां चंदनाच्या तरुवरीं | परीमळालागीं फुलवरीं |
पारुखणें जियापरी | लागेना कीं ॥ १७४४ ॥
पारुखणें=थांबणे
 
तैसा प्रबंधु हा श्रवणीं | लागतखेंवो समाधि आणी |
ऐकिलियाही वाखाणी | काय व्यसन न लवी ? ॥ १७४५ ॥

पाठ करितां व्याजें | पांडित्यें येती वेषजे |
तैं अमृतातें नेणिजे | फावलिया ॥ १७४६ ॥
व्याजें =हौसेने    वेषजे=अलंकृत करते

तैसेंनि आइतेपणें | कवित्व जालें हें उपेणें |
मनन निदिध्यास, श्रवणें | जिंतिलें आतां ॥ १७४७ ॥
आइतेपणें=सहज   उपेणें=विश्रांति स्थान

हे स्वानंदभोगाची सेल | भलतयसीचि देईल |
सर्वेंद्रियां पोषवील | श्रवणाकरवीं ॥ १७४८ ॥
सेल=मुख्य भाग भलतयसी=चांगला

चंद्रातें आंगवणें | भोगूनि चकोर शाहाणे |
परी फावे जैसें चांदिणें | भलतयाही ॥ १७४९ ॥
आंगवणें=अंगाणे स्वत:

तैसें अध्यात्मशास्त्रीं यिये | अंतरंगचि अधिकारिये |
परी लोकु वाक्चातुर्यें | होईल सुखिया ॥ १७५० ॥

ऐसें श्रीनिवृत्तिनाथाचें | गौरव आहे जी साचें |
ग्रंथु नोहे हें कृपेचें | वैभव तिये ॥ १७५१ ॥

क्षीरसिंधु परिसरीं | शक्तीच्या कर्णकुहरीं |
नेणों कैं श्रीत्रिपुरारीं | सांगितलें जें ॥ १७५२ ॥

तें क्षीरकल्लोळाआंतु | मकरोदरीं गुप्तु |
होता तयाचा हातु | पैठें जालें ॥ १७५३ ॥

तो मत्स्येंद्र सप्तशृंगीं | भग्नावयवा चौरंगी |
भेटला कीं तो सर्वांगीं | संपूर्ण जाला ॥ १७५४ ॥

मग समाधि अव्युत्थया | भोगावी वासना यया |
ते मुद्रा श्रीगोरक्षराया | दिधली मीनीं ॥ १७५५ ॥
अव्युत्थया =अखंड   मीनीं=माछिंद्र नाथ

तेणें योगाब्जिनीसरोवरु | विषयविध्वंसैकवीरु |
तिये पदीं कां सर्वेश्वरु | अभिषेकिला ॥ १७५६ ॥
योगाब्जिनी=योगरूपी कमळ  

मग तिहीं तें शांभव | अद्वयानंदवैभव |
संपादिलें सप्रभव | श्रीगहिनीनाथा ॥ १७५७ ॥
शांभव=शैवागामी शिवाकडुन प्राप्त

तेणें कळिकळितु भूतां | आला देखोनि निरुता |
ते आज्ञा श्रीनिवृत्तिनाथा | दिधली ऐसी ॥ १७५८ ॥
कळिकळितु= कली काळा शिणले   निरुता=स्पष्ट

ना आदिगुरु शंकरा\- | लागोनि शिष्यपरंपरा |
बोधाचा हा संसरा | जाला जो आमुतें ॥ १७५९ ॥
संसरा=लाभ

तो हा तूं घेऊनि आघवा | कळीं गिळितयां जीवां |
सर्व प्रकारीं धांवा | करीं पां वेगीं ॥ १७६० ॥
धांवा  करीं=मदत कर

आधींच तंव तो कृपाळु | वरी गुरुआज्ञेचा बोलू |
जाला जैसा वर्षाकाळू | खवळणें मेघां ॥ १७६१ ॥

मग आर्ताचेनि वोरसें | गीतार्थग्रंथनमिसें |
वर्षला शांतरसें | तो हा ग्रंथु ॥ १७६२ ॥
वोरसें=करुणा प्रेम  नमिसें=निमित्ते

तेथ पुढां मी बापिया | मांडला आर्ती आपुलिया |
कीं यासाठीं येवढिया | आणिलों यशा ॥ १७६३ ॥
बापिया=चातकपक्षी  आर्ती =उत्कंठा  

एवं गुरुक्रमें लाधलें | समाधिधन जें आपुलें |
तें ग्रंथें बोधौनि दिधलें | गोसावी मज ॥ १७६४ ॥

वांचूनि पढे ना वाची | ना सेवाही जाणें स्वामीची |
ऐशिया मज ग्रंथाची | योग्यता कें असे ? ॥ १७६५ ॥

परी साचचि गुरुनाथें | निमित्त करूनि मातें |
प्रबंधव्याजें जगातें | रक्षिलें जाणा ॥ १७६६ ॥

तऱ्ही पुरोहितगुणें | मी बोलिलों पुरें उणें |
तें तुम्हीं माउलीपणें | उपसाहिजो जी ॥ १७६७ ॥

शब्द कैसा घडिजे | प्रमेयीं कैसें पां चढिजें |
अळंकारु म्हणिजे | काय तें नेणें ॥ १७६८ ॥
प्रमेयीं=तत्वर्थ

सायिखडेयाचें बाहुलें | चालवित्या सूत्राचेनि चाले |
तैसा मातें दावीत बोले | स्वामी तो माझा ॥ १७६९ ॥

यालागीं मी गुणदोष\- | विषीं क्षमाविना विशेष |
जे मी संजात ग्रंथलों देख | आचार्यें कीं ॥ १७७० ॥
संजात =प्रेरित केला क्षमाविना=क्षमा नको

आणि तुम्हां संतांचिये सभे | जें उणीवेंसी ठाके उभें |
तें पूर्ण नोहे तरी तैं लोभें | तुम्हांसीचि कोपें ॥ १७७१ ॥
कोपें=बोल येईल
(तुमच्यावरील प्रेमानेच वाढवता येईल)

सिवतलियाही परीसें | लोहत्वाचिये अवदसे |
न मुकिजे आयसें | तैं कवणा बोलु | ॥ १७७२ ॥
लोहत्वा=लोखंड अवदसे=खालची स्थिति आयसें=सहज

वोहळें हेंचि करावें | जे गंगेचें आंग ठाकावें |
मगही गंगा जरी नोहावें | तैं तो काय करी ? ॥ १७७३ ॥

म्हणौनि भाग्ययोगें बहुवें | तुम्हां संतांचें मी पाये |
पातलों आतां कें लाहे | उणें जगीं | ॥ १७७४ ॥

अहो जी माझेनि स्वामी | मज संत जोडुनि तुम्हीं |
दिधलेति तेणें सर्वकामीं | परीपूर्ण जालों ॥ १७७५ ॥

पाहा पां मातें तुम्हां सांगडें | माहेर तेणें सुरवाडें |
ग्रंथाचें आळियाडें | सिद्धी गेलें ॥ १७७६ ॥
सांगडें =सारखे सुरवाडें =सुखावतो आळियाडें =हट्ट

जी कनकाचें निखळ | वोतूं येईल भूमंडळ |
चिंतारत्नी कुळाचळ | निर्मूं येती ॥ १७७७ ॥
कुळाचळ=डोंगर

सातांही हो सागरांतें | सोपें भरितां अमृतें |
दुवाड नोहे तारांतें | चंद्र करितां ॥ १७७८ ॥
 दुवाड=कठीण

कल्पतरूचे आराम | लावितां नाहीं विषम |
परी गीतार्थाचें वर्म | निवडूं न ये ॥ १७७९ ॥
आराम=बाग   विषम=त्रास

तो मी येकु सर्व मुका | बोलोनि मऱ्हाठिया भाखा |
करी, डोळेवरी लोकां | घेवों ये ऐसें जें ॥ १७८० ॥
डोळेवरी=डोळ्यांनी
 
हा ग्रंथसागरु येव्हढा | उतरोनि पैलीकडा |
कीर्तिविजयाचा धेंडा | नाचे जो कां ॥ १७८१ ॥

गीतार्थाचा आवारु | कलशेंसीं महामेरु |
रचूनि माजीं श्रीगुरु\- | लिंग जें पूजीं ॥ १७८२ ॥

गीता निष्कपट माय | चुकोनि तान्हें हिंडे जें वाय |
तें मायपूता भेटी होय | हा धर्म तुमचा ॥ १७८३ ॥

तुम्हां सज्जनांचें केलें | आकळुनी जी मी बोलें |
ज्ञानदेव म्हणे थेंकुलें | तैसें नोहें ॥ १७८४ ॥
केलें =उपकार    थेंकुलें=क्षुल्लक

काय बहु बोलों सकळां | मेळविलों जन्मफळा |
ग्रंथसिद्धीचा सोहळा | दाविला जो हा ॥ १७८५ ॥

मियां जैसजैसिया आशा | केला तुमचा भरंवसा |
ते पुरवूनि जी बहुवसा | आणिलों सुखा ॥ १७८६ ॥
बहुवसा=सर्व

मजलागीं ग्रंथाची स्वामी | दुजीं सृष्टी जे हे केली तुम्ही |
तें पाहोनि हांसों आम्हीं | विश्वामित्रातेंही ॥ १७८७ ॥

जे असोनि त्रिशंकुदोषें | धातयाही आणावें वोसें |
तें नासतें, कीजे कीं ऐसें | निर्मावें नाहीं ॥ १७८८ ॥
वोसें =कमीपणा     निर्मावें=नाशवंत नाही (हा ग्रंथ )

शंभू उपमन्युचेनि मोहें | क्षीरसागरूही केला आहे |
येथ तोही उपमे सरी नोहे | जे विषगर्भ कीं ॥ १७८९ ॥
विषगर्भ=पोती विष असलेला

अंधकारु निशाचरां | गिळितां, सूर्यें चराचरां |
धांवा केला, तरी खरा | ताउनी कीं तो ॥ १७९० ॥
ताउनी=तप्त
तातलियाही जगाकारणें | चंद्रें वेंचिलें चांदणें |
तया सदोषा केवीं म्हणे | सारिखें हें ॥ १७९१ ॥
सदोषा=(कला असल्याने) दोष युक्त

म्हणौनि तुम्हीं मज संतीं | ग्रंथरूप जो हा त्रिजगतीं |
उपयोग केला तो पुढती | निरुपम जी ॥ १७९२ ॥

किंबहुना तुमचें केलें | धर्मकीर्तन हें सिद्धी नेलें |
येथ माझें जी उरलें | पाईकपण ॥ १७९३ ॥

by dr. vikrant tikone


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