ज्ञानेश्वरी
/ अध्याय अठरावा /
संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १७३० ते १७९४
आतां आयती गीता जगीं | मी सांगें मऱ्हाठिया
भंगीं |
येथ कें विस्मयालागीं | ठावो आहे ॥ १७३० ॥
श्रीगुरुचेनि नांवें माती
| डोंगरीं जयापासीं होती |
तेणें कोळियें त्रिजगतीं
| येकवद केली ॥ १७३१ ॥
माती=मूर्ती कोळियें=एकलव्य येकवद=कीर्ती
चंदनें वेधलीं झाडें | जालीं चंदनाचेनि पाडें |
वसिष्ठें मांनिली, कीं भांडे | भानूसीं शाटी ॥ १७३२ ॥
भांडे=भांडते (स्पर्धा करते) शाटी=छाटी
मा मी तव चित्ताथिला | आणि श्रीगुरु ऐसा दादुला |
जो दिठीवेनि आपुला | बैसवी पदीं ॥ १७३३ ॥
चित्ताथिला=चित्त संपन्न दादुला=श्रेष्ठ
आधींचि देखणी दिठी | वरी सूर्य पुरवी पाठी |
तैं न दिसे ऐसी गोठी | केंही आहे ? ॥ १७३४ ॥
देखणी =निर्दोष सूर्य =पाठी उभे असणे
म्हणौनि माझें नित्य नवे
| श्वासोश्वासही प्रबंध होआवे
|
श्रीगुरुकृपा काय नोहे | ज्ञानदेवो म्हणे ॥ १७३५
॥
प्रबंध=काव्य ग्रंथ
याकारणें मियां | श्रीगीतार्थु मऱ्हाठिया |
केला लोकां यया | दिठीचा विषो ॥ १७३६ ॥
परी मऱ्हाठे बोलरंगें | कवळितां पैं गीतांगें |
तैं गातयाचेनि पांगें | ये काढतां नोहे ॥ १७३७ ॥
गीतांगें =गीतेची पदे पैं=जर तैं=तेव्हा जर
पांगें =कमतरता
उणीव
म्हणौनि गीता गावों म्हणे
| तें गाणिवें होती लेणें
|
ना मोकळे तरी उणें | गीताही आणित ॥ १७३८ ॥
गाणिवें=गाण्याला मोकळे तरी= न गाता वाचली
उणें=मागे सारणे
सुंदर आंगीं लेणें न सूये
| तैं तो मोकळा शृंगारु होये
|
ना लेइलें तरी आहे | तैसें कें उचित ? ॥ १७३९ ॥
सूये=घालणे
कां मोतियांची जैसी जाती
| सोनयाही मान देती |
नातरी मानविती | अंगेंचि सडीं ॥ १७४० ॥
मानविती=शोभती
नाना गुंफिलीं कां मोकळीं
| उणीं न होती परीमळीं |
वसंतागमींचीं वाटोळीं | मोगरीं जैसीं ॥ १७४१ ॥
तैसा गाणिवेतें मिरवी | गीतेवीणही रंगु दावीं |
तो लाभाचा प्रबंधु ओंवी
| केला मियां ॥ १७४२ ॥
गीतेवीणही=न गाता ही
तेणें आबालसुबोधें | ओवीयेचेनि प्रबंधें |
ब्रह्मरससुस्वादें | अक्षरें गुंथिलीं ॥
१७४३ ॥
आतां चंदनाच्या तरुवरीं
| परीमळालागीं फुलवरीं |
पारुखणें जियापरी | लागेना कीं ॥ १७४४ ॥
पारुखणें=थांबणे
तैसा प्रबंधु हा श्रवणीं
| लागतखेंवो समाधि आणी |
ऐकिलियाही वाखाणी | काय व्यसन न लवी ? ॥ १७४५ ॥
पाठ करितां व्याजें | पांडित्यें येती वेषजे |
तैं अमृतातें नेणिजे | फावलिया ॥ १७४६ ॥
व्याजें =हौसेने
वेषजे=अलंकृत करते
तैसेंनि आइतेपणें | कवित्व जालें हें
उपेणें |
मनन निदिध्यास, श्रवणें | जिंतिलें आतां ॥ १७४७ ॥
आइतेपणें=सहज उपेणें=विश्रांति स्थान
हे स्वानंदभोगाची सेल | भलतयसीचि देईल |
सर्वेंद्रियां पोषवील | श्रवणाकरवीं ॥ १७४८ ॥
सेल=मुख्य भाग भलतयसी=चांगला
चंद्रातें आंगवणें | भोगूनि चकोर शाहाणे |
परी फावे जैसें चांदिणें
| भलतयाही ॥ १७४९ ॥
आंगवणें=अंगाणे स्वत:
तैसें अध्यात्मशास्त्रीं यिये | अंतरंगचि अधिकारिये |
परी लोकु वाक्चातुर्यें
| होईल सुखिया ॥ १७५० ॥
ऐसें श्रीनिवृत्तिनाथाचें
| गौरव आहे जी साचें |
ग्रंथु नोहे हें कृपेचें
| वैभव तिये ॥ १७५१ ॥
क्षीरसिंधु परिसरीं | शक्तीच्या कर्णकुहरीं |
नेणों कैं श्रीत्रिपुरारीं
| सांगितलें जें ॥ १७५२ ॥
तें क्षीरकल्लोळाआंतु | मकरोदरीं गुप्तु |
होता तयाचा हातु | पैठें जालें ॥ १७५३ ॥
तो मत्स्येंद्र सप्तशृंगीं
| भग्नावयवा चौरंगी |
भेटला कीं तो सर्वांगीं
| संपूर्ण जाला ॥ १७५४ ॥
मग समाधि अव्युत्थया | भोगावी वासना यया |
ते मुद्रा श्रीगोरक्षराया
| दिधली मीनीं ॥ १७५५ ॥
अव्युत्थया =अखंड मीनीं=माछिंद्र नाथ
तेणें योगाब्जिनीसरोवरु
| विषयविध्वंसैकवीरु |
तिये पदीं कां सर्वेश्वरु
| अभिषेकिला ॥ १७५६ ॥
योगाब्जिनी=योगरूपी कमळ
मग तिहीं तें शांभव | अद्वयानंदवैभव |
संपादिलें सप्रभव | श्रीगहिनीनाथा ॥ १७५७ ॥
शांभव=शैवागामी शिवाकडुन प्राप्त
तेणें कळिकळितु भूतां | आला देखोनि निरुता |
ते आज्ञा श्रीनिवृत्तिनाथा
| दिधली ऐसी ॥ १७५८ ॥
कळिकळितु= कली काळा शिणले निरुता=स्पष्ट
ना आदिगुरु शंकरा\- | लागोनि शिष्यपरंपरा |
बोधाचा हा संसरा | जाला जो आमुतें ॥ १७५९
॥
संसरा=लाभ
तो हा तूं घेऊनि आघवा | कळीं गिळितयां जीवां |
सर्व प्रकारीं धांवा | करीं पां वेगीं ॥ १७६०
॥
धांवा करीं=मदत कर
आधींच तंव तो कृपाळु | वरी गुरुआज्ञेचा बोलू |
जाला जैसा वर्षाकाळू | खवळणें मेघां ॥ १७६१ ॥
मग आर्ताचेनि वोरसें | गीतार्थग्रंथनमिसें |
वर्षला शांतरसें | तो हा ग्रंथु ॥ १७६२ ॥
वोरसें=करुणा प्रेम नमिसें=निमित्ते
तेथ पुढां मी बापिया | मांडला आर्ती आपुलिया |
कीं यासाठीं येवढिया | आणिलों यशा ॥ १७६३ ॥
बापिया=चातकपक्षी आर्ती =उत्कंठा
एवं गुरुक्रमें लाधलें | समाधिधन जें आपुलें |
तें ग्रंथें बोधौनि दिधलें
| गोसावी मज ॥ १७६४ ॥
वांचूनि पढे ना वाची | ना सेवाही जाणें
स्वामीची |
ऐशिया मज ग्रंथाची | योग्यता कें असे ? ॥ १७६५ ॥
परी साचचि गुरुनाथें | निमित्त करूनि मातें |
प्रबंधव्याजें जगातें | रक्षिलें जाणा ॥ १७६६ ॥
तऱ्ही पुरोहितगुणें | मी बोलिलों पुरें उणें |
तें तुम्हीं माउलीपणें | उपसाहिजो जी ॥ १७६७ ॥
शब्द कैसा घडिजे | प्रमेयीं कैसें पां
चढिजें |
अळंकारु म्हणिजे | काय तें नेणें ॥ १७६८ ॥
प्रमेयीं=तत्वर्थ
सायिखडेयाचें बाहुलें | चालवित्या सूत्राचेनि
चाले |
तैसा मातें दावीत बोले | स्वामी तो माझा ॥ १७६९
॥
यालागीं मी गुणदोष\- | विषीं क्षमाविना विशेष |
जे मी संजात ग्रंथलों देख
| आचार्यें कीं ॥ १७७० ॥
संजात =प्रेरित
केला क्षमाविना=क्षमा नको
आणि तुम्हां संतांचिये सभे
| जें उणीवेंसी ठाके उभें
|
तें पूर्ण नोहे तरी तैं लोभें | तुम्हांसीचि कोपें ॥ १७७१ ॥
कोपें=बोल येईल
(तुमच्यावरील प्रेमानेच वाढवता येईल)
सिवतलियाही परीसें | लोहत्वाचिये अवदसे |
न मुकिजे आयसें | तैं कवणा बोलु | ॥ १७७२ ॥
लोहत्वा=लोखंड
अवदसे=खालची स्थिति आयसें=सहज
वोहळें हेंचि करावें | जे गंगेचें आंग ठाकावें |
मगही गंगा जरी नोहावें | तैं तो काय करी ? ॥ १७७३ ॥
म्हणौनि भाग्ययोगें बहुवें
| तुम्हां संतांचें मी पाये
|
पातलों आतां कें लाहे | उणें जगीं | ॥ १७७४ ॥
अहो जी माझेनि स्वामी | मज संत जोडुनि तुम्हीं |
दिधलेति तेणें सर्वकामीं
| परीपूर्ण जालों ॥ १७७५ ॥
पाहा पां मातें तुम्हां सांगडें | माहेर तेणें सुरवाडें |
ग्रंथाचें आळियाडें | सिद्धी गेलें ॥ १७७६ ॥
सांगडें =सारखे
सुरवाडें =सुखावतो आळियाडें =हट्ट
जी कनकाचें निखळ | वोतूं येईल भूमंडळ |
चिंतारत्नी कुळाचळ | निर्मूं येती ॥ १७७७ ॥
कुळाचळ=डोंगर
सातांही हो सागरांतें | सोपें भरितां अमृतें |
दुवाड नोहे तारांतें | चंद्र करितां ॥ १७७८ ॥
दुवाड=कठीण
कल्पतरूचे आराम | लावितां नाहीं विषम |
परी गीतार्थाचें वर्म | निवडूं न ये ॥ १७७९ ॥
आराम=बाग विषम=त्रास
तो मी येकु सर्व मुका | बोलोनि मऱ्हाठिया भाखा |
करी, डोळेवरी लोकां | घेवों ये ऐसें जें ॥ १७८० ॥
डोळेवरी=डोळ्यांनी
हा ग्रंथसागरु येव्हढा | उतरोनि पैलीकडा |
कीर्तिविजयाचा धेंडा | नाचे जो कां ॥ १७८१ ॥
गीतार्थाचा आवारु | कलशेंसीं महामेरु |
रचूनि माजीं श्रीगुरु\- | लिंग जें पूजीं ॥ १७८२
॥
गीता निष्कपट माय | चुकोनि तान्हें हिंडे
जें वाय |
तें मायपूता भेटी होय | हा धर्म तुमचा ॥ १७८३ ॥
तुम्हां सज्जनांचें केलें
| आकळुनी जी मी बोलें |
ज्ञानदेव म्हणे थेंकुलें
| तैसें नोहें ॥ १७८४ ॥
केलें =उपकार थेंकुलें=क्षुल्लक
काय बहु बोलों सकळां | मेळविलों जन्मफळा |
ग्रंथसिद्धीचा सोहळा | दाविला जो हा ॥ १७८५ ॥
मियां जैसजैसिया आशा | केला तुमचा भरंवसा |
ते पुरवूनि जी बहुवसा | आणिलों सुखा ॥ १७८६ ॥
बहुवसा=सर्व
मजलागीं ग्रंथाची स्वामी
| दुजीं सृष्टी जे हे केली तुम्ही |
तें पाहोनि हांसों आम्हीं
| विश्वामित्रातेंही ॥ १७८७ ॥
जे असोनि त्रिशंकुदोषें
| धातयाही आणावें वोसें |
तें नासतें, कीजे कीं ऐसें | निर्मावें नाहीं ॥ १७८८ ॥
वोसें =कमीपणा निर्मावें=नाशवंत नाही (हा ग्रंथ )
शंभू उपमन्युचेनि मोहें
| क्षीरसागरूही केला आहे |
येथ तोही उपमे सरी नोहे
| जे विषगर्भ कीं ॥ १७८९ ॥
विषगर्भ=पोती विष असलेला
अंधकारु निशाचरां | गिळितां, सूर्यें चराचरां |
धांवा केला, तरी खरा | ताउनी कीं तो ॥ १७९० ॥
ताउनी=तप्त
तातलियाही जगाकारणें | चंद्रें वेंचिलें
चांदणें |
तया सदोषा केवीं म्हणे | सारिखें हें ॥ १७९१ ॥
सदोषा=(कला असल्याने) दोष युक्त
म्हणौनि तुम्हीं मज संतीं
| ग्रंथरूप जो हा त्रिजगतीं
|
उपयोग केला तो पुढती | निरुपम जी ॥ १७९२ ॥
किंबहुना तुमचें केलें | धर्मकीर्तन हें सिद्धी
नेलें |
येथ माझें जी उरलें | पाईकपण ॥ १७९३ ॥
by dr. vikrant tikone