ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा,
संत ज्ञानेश्वर ओव्या ४२१ ते
४७०
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेवचाहम् ॥ १५॥
एऱ्हवीं सर्वांच्या हृदयदेशीं | मी अमुका आहें ऐसी |
जे बुद्धि स्फुरे अहर्निशीं | ते वस्तु गा मी ॥ ४२१ ॥
परी संतासवें वसतां | योगज्ञानीं पैसतां |
गुरुचरण उपासितां | वैराग्येंसीं ॥ ४२२ ॥
पैसतां=प्रवेशता
येणेंचि सत्कर्में | अशेषही अज्ञान विरमे |
जयांचें अहं विश्रामे | आत्मरूपीं ॥ ४२३ ॥
विरमे=विराम पावणे
ते आपेआप देखोनि देखीं | मियां आत्मेनि सदा सुखी |
येथें मीवांचून अवलोकीं | आन हेतु असे ? ॥ ४२४ ॥
अगा सूर्योदयो जालिया | सूर्यें सूर्यचि पहावा धनंजया |
तेवीं मातें मियां जाणावया | मीचि हेतु ॥ ४२५ ॥
ना शरीरपरातें सेवितां | संसारगौरवचि ऐकतां |
देहीं जयांची अहंता | बुडोनि ठेली ॥ ४२६ ॥
ते स्वर्गसंसारालागीं | धांवतां कर्ममार्गीं |
दुःखाच्या सेलभागीं | विभागी होती ॥ ४२७ ॥
परी हेंही होणें अर्जुना | मजचिस्तव तया अज्ञाना |
जैसा जागताचि हेतु स्वप्ना | निद्रेतें होय ॥ ४२८ ॥
पैं अभ्रें दिवसु हरपला | तोहि दिवसेंचि जाणों आला |
तेवीं मी नेणोनि विषयो देखिला | मजचिस्तव भूतीं ॥ ४२९ ॥
एवं निद्रा कां जागणिया | प्रबोधुचि हेतु धनंजया |
तेवीं ज्ञाना अज्ञाना जीवां यां | मीचि मूळ ॥ ४३० ॥
प्रबोधुचि=जागृती
जैसें सर्पत्वा कां दोरा | दोरुचि मूळ धनुर्धरा |
तैसा ज्ञाना अज्ञानाचिया संसारा | मियांचि सिद्धु ॥ ४३१ ॥
म्हणौनि जैसा असें तैसया | मातें नेणोनि धनंजया |
वेदु जाणों गेला तंव तया | जालिया शाखा ॥ ४३२ ॥
तरी तिहीं शाखाभेदीं | मीचि जाणिजे त्रिशुद्धी |
जैसा पूर्वापरा नदी | समुद्रचि ठी ॥ ४३३ ॥
ठी=शेवट
आणि महासिद्धांतापासीं | श्रुति हारपतीं शब्देंसीं |
जैसिया सगंधा आकाशीं | वातलहरी ॥ ४३४ ॥
तैसें समस्तही श्रुतिजात | ठाके लाजिले ऐसें निवांत |
तें मीचि करीं यथावत | प्रकटोनियां ॥ ४३५ ॥
पाठीं श्रुतिसकट अशेष | जग हारपे जेथ निःशेष |
तें निजज्ञानही चोख | जाणता मीचि ॥ ४३६ ॥
जैसें निदेलिया जागिजे | तेव्हां स्वप्नींचे कीर नाहीं दुजें |
परी एकत्वही देखों पाविजे | आपलेंचि ॥ ४३७ ॥
तैसें आपलें अद्वयपण | मी जाणतसें दुजेनवीण |
तयाही बोधाकारण | जाणता मीचि ॥ ४३८ ॥
मग आगी लागलिया कापुरा | ना काजळी ना वैश्वानरा |
उरणें नाहीं वीरा | जयापरी ॥ ४३९ ॥
तेवीं समूळ अविद्या खाये | तें ज्ञानही जैं बुडोनि जाये |
तऱ्ही नाहीं कीर नोहे | आणि न साहे असणेंही ॥ ४४० ॥
पैं विश्व घेऊनि गेला मागेंसीं | तया चोरातें कवण कें गिंवसी ? |
जे कोणी एकी दशा ऐसी | शुद्ध ते मी ॥ ४४१ ॥
मागेंसीं=मार्ग (?मार्ग काढणारा )
ऐसी जडाजडव्याप्ती | रूप करितां कैवल्यपती |
ठी केली निरुपहितीं | आपुल्या रूपीं ॥ ४४२ ॥
ठी केली निरुपहितीं | आपुल्या रूपीं ॥ ४४२ ॥
जडाजड=चराचर ठी=मुक्काम , निरुपहितीं=उपाधिरहित
तो आघवाचि बोधु सहसा | अर्जुनीं उमटला कैसा |
व्योमींचा चंद्रोदयो जैसा | क्षीरार्णवीं ॥ ४४३ ॥
व्योमींचा=आकाश
कां प्रतिभिंती चोखटे | समोरील चित्र उमटे |
तैसा अर्जुनें आणि वैकुंठें | नांदतसे बोधु ॥ ४४४ ॥
तरी बाप वस्तुस्वभावो | फावे तंव तंव गोडिये थांवो |
म्हणौनि अनुभवियांचा रावो | अर्जुन म्हणे ॥ ४४५ ॥
बाप=श्रेष्ठ वस्तुस्वभावो =परब्रह्म
रूपाचा भाव
फावे=मिळे
थांवो=वाढ
जी व्यापकपण बोलतां | निरुपाधिक जें आतां |
स्वरूप प्रसंगता | बोलिले देवो ॥ ४४६ ॥
ते एक वेळ अव्यंगवाणें | कीजो कां मजकारणें |
तेथ द्वारकेचा नाथु म्हणे | भलें केलें ॥ ४४७ ॥
पैं अर्जुना आम्हांहि वाडेंकोडें | अखंडा बोलों आवडे |
परी काय कीजे न जोडे | पुसतें ऐसें ॥ ४४८ ॥
वाडेंकोडें=गोडी कौतुक
आजि मनोरथांसि फळ | जोडलासि तूं केवळ |
जे तोंड भरूनि निखळ | आलासि पुसों ॥ ४४९ ॥
जें अद्वैताहीवरी भोगिजे | तें अनुभवींच तूं विरजे |
पुसोनि मज माझें | देतासि सुख ॥ ४५० ॥
विरजे=सहायक
जैसा आरिसा आलिया जवळां | दिसे आपणपें आपला डोळा |
तैसा संवादिया तूं निर्मळा | शिरोमणी ॥ ४५१ ॥
तुवां नेणोनि पुसावें | मग आम्ही परिसऊं बैसावें |
तो गा हा पाडु नव्हे | सोयरेया ॥ ४५२ ॥
ऐसें म्हणौनि आलिंगिलें | कृपादृष्टी अवलोकिलें |
मग देवो काय बोलिले | अर्जुनेंसीं ॥ ४५३ ॥
पैं दोहीं वोठीं एक बोलणें | दोहीं चरणीं एक चालणें |
तैसें पुसणें सांगणें | तुझें माझें ॥ ४५४ ॥
एवं आम्ही तुम्ही येथें | देखावें एका अर्थातें |
सांगतें पुसतें येथें | दोन्ही एक ॥ ४५५ ॥
ऐसा बोलत देवो भुलला मोहें | अर्जुनातें आलिंगूनि ठाये |
मग बिहाला म्हणे नोहें | आवडी हे ॥ ४५६ ॥
जाले इक्षुरसाचें ढाळ | तरी लवण देणें किडाळ |
जे संवादसुखाचें रसाळ | नासेल थितें ॥ ४५७ ॥
ढाळ=ढेप किडाळ=अयोग्य
आधींच आम्हां यया कांहीं | नरनारायणासी भिन्न नाहीं |
परी आतां जिरो माझ्या ठाईं | वेगु हा माझा ॥ ४५८ ॥
इया बुद्धी सहसा | श्रीकृष्ण म्हणे वीरेशा |
पैं गा तो तुवां कैसा | प्रश्नु केला ? ॥ ४५९ ॥
जो अर्जुन श्रीकृष्णीं विरत होता | तो परतोनि मागुता |
प्रश्नावळीची कथा | ऐकों आला ॥ ४६० ॥
तेथ सद्गदें बोलें | अर्जुनें जी जी म्हणितलें |
निरुपाधिक आपुलें | रूप सांगा ॥ ४६१ ॥
यया बोला तो शारङ्गी | तेंचि सांगावयालागीं |
उपाधी दोहीं भागीं | निरूपीत असे ॥ ४६२ ॥
पुसिलिया निरुपहित | उपाधि कां सांगे येथ |
हें कोण्हाही प्रस्तुत | गमे जरी ॥ ४६३ ॥
तरी ताकाचें अंश फेडणें | याचि नांव लोणी काढणें |
चोखाचिये शुद्धी तोडणें | कीडचि जेवीं ॥ ४६४ ॥
चोखा=सोने
बाबुळीचि सारावी हातें | परी पाणी तंव असे आइतें |
अभ्रचि जावें गगन तें | सिद्धचि कीं ॥ ४६५ ॥
बाबुळीचि=शेवाळ
वरील कोंडियाचा गुंडाळा | झाडूनि केलिया वेगळा |
कणु घेतां विरंगोळा | असे काई ? ॥ ४६६ ॥
विरंगोळा=वेळ उशीर
तैसा उपाधि उपहितां | शेवटु जेथ विचारितां |
तें कोणातेंही न पुसतां | निरुपाधिक ॥ ४६७ ॥
उपहितां=नासता
जैसें न सांगणेंवरी | बाळा पतीसी रूप करी |
बोल निमालेपणें विवरी | अचर्चातें ॥ ४६८ ॥
न सांगणेंवरी= न बोलता ही बाळा= नव तरुणी
पैं सांगणेया जोगें नव्हे | तेथींचें सांगणें ऐसें आहे |
म्हणौनि उपाधि लक्ष्मीनाहे | बोलिजे आदीं ॥ ४६९ ॥
पाडिव्याची चंद्ररेखा | निरुती दावावया शाखा |
दाविजे तेवीं औपाधिका | बोली इया ॥ ४७० ॥
by dr. vikrant tikone
सुंदर !
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