Saturday, November 25, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा, संत ज्ञानेश्वर ओव्या ३६८ ते ४२०




ज्ञानेश्वरी अध्याय १५ वा, संत ज्ञानेश्वर ओव्या ३६८ ते  ४२०



श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ ९॥


मग येथ अथवा स्वर्गीं | जेथ जें देह आपंगी |
तेथ तैसेंचि पुढती पांगी | मनादिक ॥ ३६८ ॥

आपंगी=आश्रय धरतो   पांगी=पसरतो

जैसा मालवलिया दिवा | प्रभेसी जाय पांडवा |
मग उजळिजे तेथ तेधवां | तैसाचि फांके ॥ ३६९ ॥

तरी ऐसैसिया राहाटी | अविवेकियांचे दिठी |
येतुलें हें किरीटी | गमेचि गा ॥ ३७० ॥

राहाटी=जग व्यवहार

जे आत्मा देहासि आला | आणि विषयो येणेंचि भोगिला |
अथवा देहोनि गेला | हें साचचि मानिती ॥ ३७१ ॥

एऱ्हवीं येणें आणि जाणें | कां करणें हा भोगणें |
हें प्रकृतीचें तेणें | मानियेलें ॥ ३७२ ॥


उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितं।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १०॥
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितं।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥ ११॥


परी देहाचे मोटकें उभें | आणि चेतना तेथ उपलभे |
तिये चळवळेचेनि लोभें | आला म्हणती ॥ ३७३

 मोटकें =लहानसे   उपलभे=उपलब्ध होणे
चळवळेचेनि=चलनवलन

तैसेंचि तयां संगती | इंद्रियें आपुलाल्या अर्थीं वर्तती |
तया नांव सुभद्रापती | भोगणें जया ॥ ३७४ ॥

पाठीं भोगक्षीण आपैसे | देह गेलिया ते न दिसे |
तेथें गेला गेला ऐसें | बोभाती गा ॥ ३७५ ॥

पैं रुखु डोलतु देखावा | तरी वारा वाजतु मानावा |
रुखु नसे तेथें पांडवा | नाहीं तो गा ? ॥ ३७६ ॥

कां आरिसा समोर ठेविजे | आणि आपणपें तेथ देखिजे |
तरी तेधवांचि जालें मानिजे | काय आधीं नाहीं ? ॥ ३७७ ॥

कां परता केलिया आरिसा | लोपु जाला तया आभासा |
तरी आपणपें नाहीं ऐसा | निश्चयो करावा ? ॥ ३७८ ॥

शब्द तरी आकाशाचा | परी कपाळीं पिटे मेघाचा |
कां चंद्रीं वेगु अभ्राचा | अरोपिजे ॥ ३७९ ॥

कपाळीं पिटे= जबाबदार धरणे

तैसें होइजे जाइजे देहें | तें आत्मसत्ते अविक्रिये |
निष्टंकिती गा मोहें | आंधळे ते ॥ ३८० ॥

निष्टंकिती=निश्चय करणे

येथ आत्मा आत्मयाच्या ठायीं | देखिजे देहींचा धर्मु देहीं |
ऐसें देखणें तें पाहीं | आन आहाती ॥ ३८१ ॥

ज्ञानें कां जयाचे डोळे | देखोनि न राहती देहींचे खोळे |
सूर्यरश्मी आणियाळे | ग्रीष्मीं जैसें ॥ ३८२ ॥

आणियाळे=तीक्ष्ण 

तैसे विवेकाचेनि पैसें | जयांची स्फूर्ती स्वरूपीं बैसे |
ते ज्ञानिये देखती ऐसें | आत्मयातें ॥ ३८३ ॥

जैसें तारांगणीं भरलें | गगन समुद्रीं बिंबलें |
परी तें तुटोनि नाहीं पडिलें | ऐसें निवडे ॥ ३८४ ॥

गगन गगनींचि आहे | हें आभासे तें वाये |
तैसा आत्मा देखती देहें | गंवसिलाही ॥ ३८५ ॥

वाये=वेगळे

खळाळाच्या लगबगीं | फेडूनि खळाळाच्या भागीं |
देखिजे चंद्रिका कां उगी | चंद्रीं जेवीं ॥ ३८६ ॥

खळाळा=ओढे

कां नाडरचि भरे शोषें | सूर्यु तो जैसा तैसाचि असे |
देह होतां जातां तैसें | देखती मातें ॥ ३८७ ॥

नाडरचि=डबके तळे

घटु मठु घडले | तेचि पाठीं मोडले |
परी आकाश तें संचलें | असतचि असे ॥ ३८८ ॥

तैसें अखंडे आत्मसत्ते | अज्ञानदृष्टि कल्पितें |
हें देहचि होतें जातें | जाणती फुडें ॥ ३८९ ॥

चैतन्य चढे ना वोहटे | चेष्टवी ना चेष्टे |
ऐसें आत्मज्ञानें चोखटें | जाणती ते ॥ ३९० ॥

चेष्टवी ना चेष्टे =कर्म करवी न करणे
चोखटें=शुद्ध

आणि ज्ञानही आपैतें होईल | प्रज्ञा परमाणुही उगाणा घेईल |
सकळ शास्त्रांचें येईल | सर्वस्व हातां ॥ ३९१ ॥
आपैतें=स्वाधीन   उगाणा=मोजणे बोध होणे

परी ते व्युत्पत्ति ऐसी | जरी विरक्ति न रिगे मानसीं |
तरी सर्वात्मका मजसीं | नव्हेचि भेटी ॥ ३९२ ॥

पैं तोंड भरो कां विचारा | आणि अंतःकरणीं विषयांसि थारा |
तरी नातुडें धनुर्धरा | त्रिशुद्धी मी ॥ ३९३ ॥

विचारा=ज्ञान नातुडें=न भेटणे  त्रिशुद्धी=नि:शंक नक्की

हां गा वोसणतयाच्या ग्रंथीं | काई तुटती संसारगुंती ? |
कीं परिवसिलिया पोथी | वाचिली होय ? ॥ ३९४ ॥

वोसणतयाच्या=झोपलेल्याच्या    ग्रंथीं=ग्रंथ (वाचनी )बडबडीने
परिवसिलिया=स्पर्श करून

नाना बांधोनियां डोळे | घ्राणीं लाविजती मुक्ताफळें |
तरी तयांचें काय कळे | मोल मान ? ॥ ३९५ ॥

मुक्ताफळें =मोती

तैसा चित्तीं अहंते ठावो | आणि जिभे सकळशास्त्रांचा सरावो |
ऐसेनि कोडी एक जन्म जावो | परी न पविजे मातें ॥ ३९६ ॥

जो एक मी कां समस्तीं | व्यापकु असें भूतजातीं |
ऐक तिये व्याप्ती | रूप करूं ॥ ३९७ ॥


यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ १२॥


तरी सूर्यासकट आघवी | हे विश्वरचना जे दावी |
ते दीप्ति माझी जाणावी | आद्यंतीं आहे ॥ ३९८ ॥

जल शोषूनि गेलिया सविता | ओलांश पुरवीतसे जे माघौता |
ते चंद्रीं पंडुसुता | ज्यो{त्}स्ना माझी ॥ ३९९ ॥

आणि दहन-पाचनसिद्धी | करीतसे जें निरवधी |
ते हुताशीं तेजोवृद्धी | माझीचि गा ॥ ४०० ॥


गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ १३॥


मी रिगालों असें भूतळीं | म्हणौनि समुद्र महाजळीं |
हे पांसूचि ढेंपुळी | विरेचिना ॥ ४०१ ॥

आणी भूतेंही चराचरें | हे धरितसे जियें अपारें |
तियें मीचि धरी धरे | रिगोनियां ॥ ४०२ ॥

गगनीं मी पंडुसुता | चंद्राचेनि मिसें अमृता |
भरला जालों चालता | सरोवरु ॥ ४०३ ॥

तेथूनि फांकती रश्मिकर | ते पाट पेलूनि अपार |
सर्वौषधींचे आगर | भरित असें मी ॥ ४०४ ॥

ऐसेनि सस्यादिकां सकळां | करी धान्यजाती सुकाळा |
दें अन्नद्वारां जिव्हाळा | भूतजातां ॥ ४०५ ॥

सस्यादिकां=धान्य पिके

आणि निपजविलें अन्न | तरी तैसें कैचें दीपन |
जेणें जिरूनि समाधान | भोगिती जीव ॥ ४०६ ॥


अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १४॥


म्हणौनि प्राणिजातांच्या घटीं | करूनि कंदावरी आगिठी |
दीप्ति जठरींही किरीटी | मीचि जालों ॥ ४०७ ॥

कंदावरी=मणिपूर चक्री

प्राणापानाच्या जोडभातीं | फुंकफुंकोनियां अहोराती |
आटीतसें नेणों किती | उदरामाजीं ॥ ४०८ ॥

आटीतसें=आटवणे ,पचवणे

शुष्कें अथवा स्निग्धें | सुपक्वें कां विदग्धें |
परी मीचि गा चतुर्विधें | अन्नें पचीं ॥ ४०९ ॥

विदग्धें=करपले

एवं मीचि आघवें जन | जना निरवितें मीचि जीवन |
जीवनीं मुख्य साधन | वन्हिही मीचि ॥ ४१० ॥

आतां ऐसियाहीवरी काई | सांगों व्याप्तीची नवाई |
येथ दुजें नाहींचि घेईं | सर्वत्र मी गा ॥ ४११ ॥

तरी कैसेनि पां वेखें | सदा सुखियें एकें |
एकें तियें बहुदुःखें | क्रांत भूतें ॥ ४१२ ॥

वेखें=कारणाने

जैसी सगळिये पाटणीं | एकेंचि दीपें दिवेलावणी |
जालिया, कां न देखणी | उरलीं एकें ॥ ४१३ ॥

पाटणीं=शहरी    न देखणी =न दिसणे (नीट न पेटणे)   

ऐसी हन उखिविखी | करित आहासि मानसीं कीं |
तरी परिस तेही निकी | शंका फेडुं ॥ ४१४ ॥

उखिविखी=तर्क वितर्क

पैं आघवा मीचि असें | येथ नाहीं कीर अनारिसें |
परी प्राणियांचिया उल्लासें | बुद्धि ऐसा ॥ ४१५ ॥

उल्लासें=प्रकट होणे (भिन्न) भासने

जैसें एकचि आकाशध्वनी | वाद्यविशेषीं आनानीं |
वाजावें पडे भिन्नीं | नादांतरीं ॥ ४१६ ॥

कां लोकचेष्टीं वेगळालां | जो हा एकचि भानु उदैला |
तो आनानी परी गेला | उपयोगासी ॥ ४१७ ॥

नाना बीजधर्मानुरूप | झाडीं उपजविलें आप |
तैसें परिणमलें स्वरूप | माझें जीवां ॥ ४१८ ॥

आप=पाणी

अगा नेणा आणि चतुरा | पुढां निळयांचा दुसरा |
नेणा सर्पत्वें जाला येरा | सुखालागीं ॥ ४१९ ॥

दुसरा=सुपादारी हार

हें असो स्वातीचें उदक | शुक्तीं मोतीं व्याळीं विख |
तैसा सज्ञानांसी मी सुख | दुःख तों अज्ञानांसी ॥ ४२० ॥

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by dr. vikrant tikone

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