ज्ञानेश्वरी / अध्याय
सोळावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या १८६ ते २१६
by dr. vikrant tikone
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥ ३॥
आतां ईश्वरप्राप्तीलागीं | प्रवर्ततां ज्ञानमार्गीं |
धिंवसेयाचि आंगी | उणीव नोहे ॥ १८६ ॥
धिंवसेयाचि= धैर्याच्या (इच्छा)
वोखटें मरणा{ऐ}सें | तेंही आलें अग्निप्रवेशें |
परी प्राणेश्वरोद्देशें | न गणीचि सती ॥ १८७ ॥
वोखटें=वाईट
तैसें आत्मनाथाचिया आधी | लाऊनि विषयविषाची बाधी |
धांवों आवडे पाणधी | शून्याचिये ॥ १८८ ॥
आधी =चिंतेने
(ओढीने) लाऊनि =नाहीशी करून
पाणधी=(काटेरी)पाय वाट
न ठाके निषेधु आड | न पडे विधीची भीड |
नुपजेचि जीवीं कोड | महासिद्धीचें ॥ १८९ ॥
ऐसें ईश्वराकडे निज | धांवे आपसया सहज |
तया नांव तेज | आध्यात्मिक तें ॥ १९० ॥
आतां सर्व=ही साहातिया गरिमा | गर्वा न ये तेचि क्षमा |
जैसें देह वाहोनि रोमा | वाहणें नेणें ॥ १९१ ॥
गरिमा=मोठेपण प्रतिष्ठा
आणि मातलिया इंद्रियांचे वेग | कां प्राचीनें खवळले रोग |
अथवा योगवियोग | प्रियाप्रियांचे ॥ १९२ ॥
प्राचीनें=प्रारब्ध
यया आघवियांचाचि थोरु | एके वेळे आलिया पूरु |
तरी अगस्त्य कां होऊनि धीरु | उभा ठाके ॥ १९३ ॥
आकाशीं धूमाची रेखा | उठिली बहुवा आगळिका |
ते गिळी येकी झुळुका | वारा जेवीं ॥ १९४ ॥
तैसें अधिभूताधिदैवां | अध्यात्मादि उपद्रवां |
पातलेयां पांडवा | गिळुनि घाली ॥ १९५ ॥
ऐसें चित्तक्षोभाच्या अवसरीं | उचलूनि धैर्या जें चांगावें करी |
धृति म्हणिपे अवधारीं | तियेतें गा ॥ १९६ ॥
आतां निर्वाळूनि कनकें | भरिला गांगें पीयूखें |
तया कलशाचियासारिखें | शौच असें ॥ १९७ ॥
जे आंगीं निष्काम आचारु | जीवीं विवेकु साचारु |
तो सबाह्य घडला आकारु | शुचित्वाचाचि ॥ १९८ ॥
कां फेडित पाप ताप | पोखीत तीरींचे पादप |
समुद्रा जाय आप | गंगेचें जैसें ॥ १९९ ॥
पादप=वृक्ष
कां जगाचें आंध्य फेडितु | श्रियेचीं राउळें उघडितु |
निघे जैसा भास्वतु | प्रदक्षिणे ॥ २०० ॥
श्रियेचीं रावुळे =लक्ष्मीची निवास स्थान असलेली कमळे
भास्वतु=सूर्य
तैसीं बांधिलीं सोडिता | बुडालीं काढिता |
सांकडी फेडिता | आर्तांचिया ॥ २०१ ॥
किंबहुना दिवसराती | पुढिलांचें सुख उन्नति |
आणित आणित स्वार्थीं | प्रवेशिजे ॥ २०२ ॥
स्वार्थीं=आत्मतत्वी स्व अर्थ
वांचूनि आपुलिया काजालागीं | प्राणिजाताच्या अहितभागीं |
संकल्पाचीही आडवंगी | न करणें जें ॥ २०३ ॥
आडवंगी=अडसर
पैं अद्रोहत्व ऐशिया गोष्टी | ऐकसी जिया किरीटी |
तें सांगितलें हें दिठी | पाहों ये तैसें ॥ २०४ ॥
आणि गंगा शंभूचा माथां | पावोनि संकोचे जेवीं पार्था |
तेवीं मान्यपणें सर्वथा | लाजणें जें ॥ २०५ ॥
तें हें पुढत पुढती | अमानित्व जाण सुमती |
मागां सांगितलेंसे किती | तेंचि तें बोलों ॥ २०६ ॥
एवं इहीं सव्विसें | ब्रह्मसंपदा हे वसत असे |
मोक्षचक्रवर्तीचें जैसें | अग्रहार होय ॥ २०७ ॥
सव्विसें=२६ वे तत्व अग्रहार=ईमान
नाना हे संपत्ति दैवी | या गुणतीर्थांची नीच नवी |
निर्विण्णसगरांची दैवी | गंगाचि आली ॥ २०८ ॥
निर्विण्ण=निरिच्छ
कीं गणकुसुमांची माळा | हे घेऊनि मुक्तिबाळा |
वैराग्यनिरपेक्षाचा गळा | गिंवसीत असे ॥ २०९ ॥
कीं सव्विसें गुणज्योती | इहीं उजळूनि आरती |
गीता आत्मया निजपती | नीरांजना आली ॥ २१० ॥
उगळितें निर्मळें | गुण इयेंचि मुक्ताफळें |
दैवी शुक्तिकळें | गीतार्णवींची ॥ २११ ॥
उगळितें=बाहेर टाकणे
काय बहु वानूं ऐसी | अभिव्यक्ती ये अपैसी |
केलें दैवी गुणराशी | संपत्तिरूप ॥ २१२ ॥
आतां दुःखाची आंतुवट वेली | दोषकाट्यांची जरी भरली |
तरी निजाभिधानी घाली | आसुरी ते ॥ २१३ ॥
आंतुवट=आत असलेली
पैं त्याज्य त्यजावयालागीं | जाणावी जरी अनुपयोगी |
तरी ऐका ते चांगी | श्रोत्रशक्ती ॥ २१४ ॥
तरी नरकव्यथा थोरी | आणावया दोषींघोरीं |
मेळु केला ते आसुरी | संपत्ति हे ॥ २१५ ॥
नाना विषवर्गु एकवटु | तया नांव जैसा बासटु |
आसुरी संपत्ती हा खोटु | दोषांचा तैसा ॥ २१६ ॥
बासटु=काळकूट
by dr. vikrant tikone
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सुंदर !
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