Wednesday, January 11, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १३ वा,ओव्या १०८४ ते१११९




ज्ञानेश्वरी अध्याय १३ वा, ओव्या १०८४ ते१११९ 

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ ३०॥



एऱ्हवीं तैंचि अर्जुना | होईजे ब्रह्मसंपन्ना |
जैं या भूताकृती भिन्ना | दिसती एकी ॥ १०८४ ॥

लहरी जैसिया जळीं | परमाणुकणिका स्थळीं |
रश्मीकरमंडळीं | सूर्याच्या जेवीं ? ॥ १०८५ ॥

नातरी देहीं अवेव | मनीं आघवेचि भाव |
विस्फुलिंग सावेव | वन्हीं एकीं ॥ १०८६ ॥

तैसे भूताकार एकाचे | हें दिठी रिगे जैं साचें |
तैंचि ब्रह्मसंपत्तीचें | तारूं लागे ॥ १०८७ ॥

मग जया तयाकडे | ब्रह्मेचि दिठी उघडे |
किंबहुना जोडे | अपार सुख ॥ १०८८ ॥

येतुलेनि तुज पार्था | प्रकृतिपुरुषव्यवस्था |
ठायें ठावो प्रतीतिपथा- | माजीं जाहली ? ॥ १०८९ ॥

ठायें ठावो=नीटपणे

अमृत जैसें ये चुळा | कां निधान देखिजे डोळां |
तेतुला जिव्हाळा | मानावा हा ॥ १०९० ॥

जिव्हाळा=लाभ गोडी

जी जाहलिये प्रतीती | घर बांधणें जें चित्तीं |
तें आतां ना सुभद्रापती | इयावरी ॥ १०९१ ॥
घर बांधणें जें चित्तीं=मनातील इमले

तरी एक दोन्ही ते बोल | बोलिजती सखोल |
देईं मनातें वोल | मग ते घेईं ॥ १०९२ ॥

ऐसें देवें म्हणितलें | मग बोलों आदरिलें |
तेथें अवधानाचेचि केलें | सर्वांग येरें ॥ १०९३ ॥


अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३१॥


तरी परमात्मा म्हणिपे | तो ऐसा जाण स्वरूपें |
जळीं जळें न लिंपे | सूर्यु जैसा ॥ १०९४ ॥

कां जे जळा आदीं पाठीं | तो असतुचि असे किरीटी |
माजीं बिंबे तें दृष्टी | आणिकांचिये ॥ १०९५ ॥

तैसा आत्मा देहीं | आथि म्हणिपे हें कांहीं |
साचें तरी नाहीं | तो जेथिंचा तेथें ॥ १०९६ ॥

आरिसां मुख जैसें | बिंबलिया नाम असे |
देहीं वसणें तैसें | आत्मतत्त्वा ॥ १०९७ ॥

तया देहा म्हणती भेटी | हे सपायी निर्जीव गोठी |
वारिया वाळुवे गांठी | केंही आहे ? ॥ १०९८ ॥

सपायी=संपूर्णत:

आगी आणि कापुसा | दोरा सुवावा कैसा |
केउता सांदा आकाशा | पाषाणेंसी ? ॥ १०९९ ॥

एक निघे पूर्वेकडे | एक तें पश्चिमेकडे |
तिये भेटीचेनि पाडें | संबंधु हा ॥ ११०० ॥

उजियेडा आणि अंधारेया | जो पाडु मृता उभेयां |
तोचि गा आत्मया | देहा जाण ॥ ११०१ ॥

उभेयां=जीवित

रात्री आणि दिवसा | कनका आणि कापुसा |
अपाडु कां जैसा | तैसाचि यासी ॥ ११०२ ॥

अपाडु=संबंध

देह तंव पांचांचें जालें | हें कर्माचें गुणीं गुंथले |
भंवतसे चाकीं सूदलें | जन्ममृत्यूच्या ॥ ११०३ ॥

हें काळानळाच्या तोंडीं | घातली लोणियाची उंडी |
माशी पांखु पाखडी | तंव हें सरे ॥ ११०४ ॥

पाखडी=फडफडे

हें विपायें आगींत पडे | तरी भस्म होऊनि उडे |
जाहलें श्वाना वरपडें | तरी ते विष्ठा ॥ ११०५ ॥

या चुके दोहीं काजा | तरी होय कृमींचा पुंजा |
हा परिणामु कपिध्वजा | कश्मलु गा ॥ ११०६ ॥

कश्मलु=घाण

या देहाची हे दशा | आणि आत्मा तो एथ ऐसा |
पैं नित्य सिद्ध आपैसा | अनादिपणें ॥ ११०७ ॥

सकळु ना निष्कळु | अक्रियु ना क्रियाशीळु |
कृश ना स्थुळु | निर्गुणपणें ॥ ११०८ ॥

आभासु ना निराभासु | प्रकाशु ना अप्रकाशु |
अल्प ना बहुवसु | अरूपपणें ॥ ११०९ ॥

रिता ना भरितु | रहितु ना सहितु |
मूर्तु ना अमूर्तु | शून्यपणें ॥ १११० ॥

आनंदु ना निरानंदु | एक ना विविधु |
मुक्त ना बद्धु | आत्मपणें ॥ ११११ ॥

येतुला ना तेतुला | आइता ना रचिला |
बोलता ना उगला | अलक्षपणें ॥ १११२ ॥

अलक्षपणें=लक्षात न येणारा

सृष्टीच्या होणा न रचे | सर्वसंहारें न वेंचे |
आथी नाथी या दोहींचें | पंचत्व तो ॥ १११३ ॥

पंचत्व=मरण

मवे ना चर्चे | वाढे ना खांचे |
विटे ना वेंचे | अव्ययपणें ॥ १११४ ॥
मवे=मोजणे चर्चे =बोलणे
 
एवं रूप पैं आत्मा | देहीं जें म्हणती प्रियोत्तमा |
तें मठाकारें व्योमा | नाम जैसें ॥ १११५ ॥

तैसें तयाचिये अनुस्यूती | होती जाती देहाकृती |
तो घे ना सांडी सुमती | जैसा तैसा ॥ १११६ ॥

अनुस्यूती=सातत्य

अहोरात्रें जैशी | येती जाती आकाशीं |
आत्मसत्तें तैसीं | देहें जाण ॥ १११७ ॥

म्हणौनि इयें शरीरीं | कांहीं करवीं ना करी |
आयताही व्यापारीं | सज्ज न होय ॥ १११८ ॥

आयताही व्यापारी=आपोआप होणारे कर्म

यालागीं स्वरूपें | उणा पुरा न घेपे |
हें असो तो न लिंपे | देहीं देहा ॥ १११९ ॥
by dr. vikrant tikone

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