ओव्या १ ते ४० । गुणत्रयविभागयोगः।
॥ ॐ श्री परमात्मने नमः ॥
॥ अथ श्रीमद्भगवद्गीता ॥
। अथ चतुर्दशोऽध्यायः।
॥ अथ श्रीमद्भगवद्गीता ॥
। अथ चतुर्दशोऽध्यायः।
जय जय आचार्या | समस्तसुरवर्या |
प्रज्ञाप्रभातसूर्या | सुखोदया ॥ १ ॥
समस्तसुरवर्या=सर्व देवात श्रेष्ठ
प्रज्ञा रुपी प्रभातीचा
सूर्य
सुखोदया=सुखाचा उदय करणारा
जय जय सर्व विसांवया | सोहंभावसुहावया |
नाना लोक हेलावया | समुद्रा तूं ॥ २ ॥
सुहावया=सहायक होणारा, सेवन करू देणारा
आइकें गा आर्तबंधू | निरंतरकारुण्यसिंधू |
विशदविद्यावधू- | वल्लभा जी ॥ ३ ॥
आर्त=दु:खी विशद=उघड स्पष्ट
विद्यावधू=ब्रह्म विद्यारूपी वधूचा
तू जयांप्रति लपसी | तया विश्व हें दाविसी |
प्रकट जयांप्रति तैं करिसी | आघवेंचि तूं ॥ ४ ॥
जयांप्रति=ज्यांच्यापासून (अज्ञानी)
तैं =त्यांना आघवेंचि तूं=सारे काही तूच होतो (त्यांना व्यापून)
कीं पुढिलाची दृष्टि चोरिजे | हा दृष्टिबंधु निफजे |
परी नवल लाघव तुझें | जें आपणपें चोरें ॥ ५ ॥
दृष्टिबंधु=नजरबंदी (जादुगार करतात ती, दुसऱ्याची)
जी तूंचि तूं सर्वां यया | मा कोणा बोधु कोणा माया |
ऐसिया आपेंआप लाघविया | नमो तुज ॥ ६ ॥
आपेंआप=आपल्या ठिकाणी आपण लाघव(खेळ)करता
जाणों जगीं आप वोलें | तें तुझिया बोला सुरस जालें |
तुझेनि क्षमत्व आलें | पृथ्वियेसी ॥ ७ ॥
आप=पाणी सुरस=गोडी क्षमत्व=सहनशीलता
रविचंद्रादि शुक्ती | उदो करिती त्रिजगतीं |
तें तुझिया दीप्ती | तेज तेजां ॥ ८ ॥
शुक्ती=शिंपले
चळवळिजे अनिळें | तें दैविकेनि जी निजबळें |
नभ तुजमाजीं खेळे | लपीथपी ॥ ९ ॥
अनिळें =वारा दैविकेनि= दैवी
निजबळें=तुझ्या आपल्या शक्ती मुळे
किंबहुना माया असोस | ज्ञान जी तुझेनि डोळस |
असो वानणें सायास | श्रुतीसि हे ॥ १० ॥
असोस=(विश्व भासाने )असणे
वेद वानूनि तंवचि चांग | जंव न दिसे तुझें आंग |
मग आम्हां तया मूग | एके पांती ॥ ११ ॥
मूग=मौन
जी एकार्णवाचे ठाईं | पाहतां थेंबाचा पाडु नाहीं |
मा महानदी काई | जाणिजती ॥ १२ ॥
एकार्णवाचे=जलप्रलय पाडु=पार ,मूल्य
काई=कसे काय
कां उदयलिया भास्वतु | चंद्र जैसा खद्योतु |
आम्हां श्रुति तुज आंतु | तो पाडु असे ॥ १३ ॥
भास्वतु=सूर्य खद्योतु=काजवा पाडु=स्थिती तुलना
आणि दुजया थांवो मोडे | जेथ परेशीं वैखरी बुडे |
तो तूं मा कोणें तोंडें | वानावासी ॥ १४ ॥
थांवो=ठाव ठिकाण परेशीं=परावाणी
वानावासी=कीर्ती गाऊ
यालागीं आतां | स्तुति सांडूनि निवांता |
चरणीं ठेविजे माथा | हेंचि भलें ॥ १५ ॥
तरी तू जैसा आहासि तैसिया | नमो जी श्रीगुरुराया |
मज ग्रंथोद्यमु फळावया | वेव्हारा होईं ॥ १६ ॥
ग्रंथोद्यमु =ग्रंथ व्यापार वेव्हारा=सावकार
आतां कृपाभांडवल सोडीं | भरीं मति माझी पोतडी |
करीं ज्ञानपद्य जोडी | थोरा मातें ॥ १७ ॥
करीं =हाती
ज्ञानपद्य=ज्ञानरूपी पदे
मग मी संसरेन तेणें | करीन संतांसी कर्णभूषणें |
लेववीन सुलक्षणें | विवेकाचीं ॥ १८ ॥
संसरेन=सरसावून {पा.भेद (संवसरेन सांभाळून) }
जी गीतार्थनिधान | काढू माझें मन |
सुयीं स्नेहांजन | आपलें तूं ॥ १९ ॥
गीतार्थनिधान =गीतारूपी गुप्तधन
स्नेहांजन =स्नेहरूपी
दिव्य अंजन
हे वाक्सृष्टि एके वेळे | देखतु माझे बुद्धीचे डोळे |
तैसा उदैजो जो निर्मळें | कारुण्यबिंबें ॥ २० ॥
माझी प्रज्ञावेली वेल्हाळ | काव्यें होय सफळ |
तो वसंतु होय स्नेहाळ- | शिरोमणी ॥ २१ ॥
वेल्हाळ=विस्तार
प्रमेय महापूरें | हे मतिगंगा ये थोरें |
तैसा वरिष उदारें | दिठीवेनी ॥ २२ ॥
थोरें-=भरास
अगा विश्वैकधामा | तुझा प्रसाद चंद्रमा |
करूं मज पूर्णिमा | स्फूर्तीची जी ॥ २३ ॥
जी अवलोकिलिया मातें | उन्मेषसागरीं भरितें |
वोसंडेल स्फूर्तीतें | रसवृत्तीचें ॥ २४ ॥
तंव संतोषोनि श्रीगुरुराजें | म्हणितलें विनतिव्याजें |
मांडिलें देखोनि दुजें | स्तवनमिषें ॥ २५ ॥
हें असो आतां वांजटा | तो ज्ञानार्थ करूनि गोमटा |
ग्रंथु दावीं उत्कंठा | भंगो नेदीं ॥ २६ ॥
वांजटा=व्यर्थ
हो कां जी स्वामी | हेंचि पाहत होतों मी |
जे श्रीमुखें म्हणा तुम्ही | ग्रंथु सांग ॥ २७ ॥
सहजें दुर्वेचा डिरु | आंगेंचि तंव अमरु |
वरी आला पूरु | पीयूषाचा ॥ २८ ॥
डिरु=अंकुर
तरी आतां येणें प्रसादें | विन्यासें विदग्धें |
मूळशास्त्रपदें | वाखाणीन ॥ २९ ॥
विन्यासें=विस्तारे विदग्धें=चातुर्ये
परी जीवा आंतुलीकडे | जैसी संदेहाची डोणी बुडे |
ना श्रवणीं तरी चाडे | वाढी दिसे ॥ ३० ॥
संदेहाची डोणी =शंकारुपी होडी बुडणे (शंका परिहार होणे )
चाडे=गोडी
तैसी बोली साचारी | अवतरो माझी माधुरी |
माले मागूनि घरीं | गुरुकृपेच्या ॥ ३१ ॥
माले=गळ्यात साखळी बांधून कर्ज निवारण्यासाठी
भिक्षा मागणे
तरी मागां त्रयोदशीं | अध्यायीं गोठी ऐसी |
श्रीकृष्ण अर्जुनेंसी | चावळले ॥ ३२ ॥
चावळले=बोलले
जे क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगें | होईजे येणें जगें |
आत्मा गुणसंगें | संसारिया ॥ ३३ ॥
आणि हाचि प्रकृतिगतु | सुखदुःख भोगीं हेतु |
अथवा गुणातीतु | केवळु हा ॥ ३४ ॥
तरी कैसा पां असंगा संगु | कोण तो क्षेत्रक्षेत्रज्ञायोगु |
सुखदुःखादि भोगु | केवीं तया ? ॥ ३५ ॥
गुण ते कैसे किती | बांधती कवणे रीती |
नातरी गुणातीतीं | चिन्हें काई ? ॥ ३६ ॥
एवं इया आघवेया | अर्था रूप करावया |
विषो एथ चौदाविया | अध्यायासी ॥ ३७ ॥
तरी तो आतां ऐसा | प्रस्तुत परियेसा |
अभिप्रायो विश्वेशा | वैकुंठाचा ॥ ३८ ॥
तो म्हणे गा अर्जुना | अवधानाची सर्व सेना |
मेळऊनि इया ज्ञाना | झोंबावें हो ॥ ३९ ॥
आम्हीं मागां तुज बहुतीं | दाविलें हें उपपत्ती |
तरी आझुनी प्रतीती- | कुशीं न निघे ॥ ४० ॥
कुशीं न निघे=प्रत्ययाला येत नाही
by dr. vikrant tikone
सुंदर !
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