ज्ञानेश्वरी / अध्याय
चौदावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ११६ ते १७३
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४॥
याकारणें मी पिता | महद्ब्रह्म हे माता |
अपत्य पंडुसुता | जगडंबरु ॥ ११६ ॥
आतां शरीरें बहुतें | देखोनि न भेदें हो चित्तें |
जे मनबुद्ध्यादि भूतें | एकेंचि येथें ॥ ११७ ॥
हां गा एकाचि देहीं | काय अनारिसें अवयव नाहीं ? |
तेवीं विचित्र विश्व पाहीं | एकचि हें ॥ ११८ ॥
पैं उंचा नीचा डाहाळिया | विषमा वेगळालिया |
येकाचि जेवीं जालिया | बीजाचिया ॥ ११९ ॥
आणि संबंधु तोही ऐसा | मृत्तिके घटु लेंकु जैसा |
कां पटत्व कापुसा | नातू होय ॥ १२० ॥
नाना कल्लोळपरंपरा | संतती जैसी सागरा |
आम्हां आणि चराचरा | संबंधु तैसा ॥ १२१ ॥
म्हणौनि वन्हि आणि ज्वाळ | दोन्ही वन्हीचि केवळ |
तेवीं मी गा सकळ | संबंधु वावो ॥ १२२ ॥
वावो=व्यर्थ
जालेनि जगें मी झांकें | तरी जगत्वें कोण फांके ? |
किळेवरी माणिकें | लोपिजे काई ? ॥ १२३ ॥
किळेवरी=तेजाने
अळंकारातें आलें | तरी सोनेपण काइ गेलें ? |
कीं कमळ फांकलें | कमळत्वा मुके ? ॥ १२४ ॥
सांग पां धनंजया | अवयवीं अवयविया |
आच्छादिजे कीं तया | तेंचि रूप ? ॥ १२५ ॥
अवयविया=देहाला
कीं विरूढलिया जोंधळा | कणिसाचा निर्वाळा |
वेंचला कीं आगळा | दिसतसे ॥ १२६ ॥
म्हणौनि जग परौतें | सारूनि पाहिजे मातें |
तैसा नोव्हें उखितें | आघवें मीचि ॥ १२७ ॥
उखितें=पूर्णत:
हा तूं साचोकारा | निश्चयाचा खरा |
गांठीं बांध वीरा | जीवाचिये ॥ १२८ ॥
आतां मियां मज दाविला | शरीरीं वेगळाला |
गुणीं मीचि बांधला | ऐसा आवडें ॥ १२९ ॥
आवडें=वाटतो
जैसें स्वप्नीं आपण | उठूनियां आत्ममरण |
भोगिजे गा जाण | कपिध्वजा ॥ १३० ॥
कां कवळातें डोळे | प्रकाशूनि पिवळें |
देखती तेंही कळे | तयांसीचि ॥ १३१ ॥
कवळातें=काविळीत
नाना सूर्यप्रकाशें | प्रकटी तैं अभ्र भासे |
तो लोपला हेंही दिसे | सूर्येंचि कीं ॥ १३२ ॥
पैं आपणपेनि जालिया | छाया गा आपुलिया |
बिहोनि बिहालिया | आन आहे ? ॥ १३३ ॥
तैसीं इयें नाना देहें | दाऊनि मी नाना होयें |
तेथ ऐसा जो बंधु आहे | तेंही देखें ॥ १३४ ॥
बंधु कां न बंधिजे | हें जाणणें मज माझें |
नेणणेनि उपजे | आपलेनि ॥ १३५ ॥
तरी कोणें गुणें कैसा | मजचि मी बंधु ऐसा |
आवडे तें परियेसा | अर्जुनदेवा ॥ १३६ ॥
गुण ते किती किंधर्म | कायि ययां रूपनाम |
कें जालें हें वर्म | अवधारीं पां ॥ १३७ ॥
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५॥
तरी सत्त्वरजतम | तिघांसि हें नाम |
आणि प्रकृति जन्म- | भूमिका ययां ॥ १३८ ॥
भूमिका=स्थान
येथ सत्त्व तें उत्तम | रज तें मध्यम |
तिहींमाजीं तम | सावियाधारें ॥ १३९ ॥
सावियाधारें= कनिष्ठ
हें एकेचि वृत्तीच्या ठायीं | त्रिगुणत्व आवडे पाहीं |
वयसात्रय देहीं | येकीं जेवीं ॥ १४० ॥
कां मीनलेनि कीडें | जंव जंव तूक वाढे |
तंव तंव सोनें हीन पडे | पांचिका कसीं ॥ १४१ ॥
कीडें=किटाळ पांचिका कसीं= पाचवा खालचा कस
पैं सावधपण जैसें | वाहविलें आळसें |
सुषुप्ति बैसे | घणावोनि ॥ १४२ ॥
सुषुप्ति=निद्रा
तैसी अज्ञानांगीकारें | निगाली वृत्ति विखुरे |
ते सत्त्वरजद्वारें | तमही होय ॥ १४३ ॥
अर्जुना गा जाण | ययां नाम गुण |
आतां दाखऊं खूण | बांधिती ते ॥ १४४ ॥
तरी क्षेत्रज्ञदशे | आत्मा मोटका पैसे |
हें देह मी ऐसें | मुहूर्त करी ॥ १४५ ॥
आजन्ममरणांतीं | देहधर्मीं समस्तीं |
ममत्वाची सूती | घे ना जंव ॥ १४६ ॥
जैसी मीनाच्या तोंडीं | पडेना जंव उंडी |
तंव गळ आसुडी | जळपारधी ॥ १४७ ॥
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्।
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ ॥ ६॥
तेवीं सत्त्वें लुब्धकें | सुखज्ञानाचीं पाशकें |
वोढिजती मग खुडके | मृगु जैसा ॥ १४८ ॥
लुब्धकें=चोर ,पारधी खुडके=अडके
मग ज्ञानें चडफडी | जाणिवेचे खुरखोडी |
स्वयं सुख हें धाडी | हातींचें गा ॥ १४९ ॥
चडफडी =जळफळणे खुरखोडी=लाथ मारणे
तेव्हां विद्यामानें तोखे | लाभमात्रें हरिखे |
मी संतुष्ट हेंही देखे | श्लाघों लागे ॥ १५० ॥
श्लाघों=आत्म स्तुती
म्हणे भाग्य ना माझें ? | आजि सुखियें नाहीं दुजें |
विकाराष्टकें फुंजे | सात्त्विकाचेनि ॥ १५१ ॥
विकाराष्टकें= अष्टसत्विक
भाव फुंजे=गर्व करी
आणि येणेंही न सरे | लांकण लागे दुसरें |
जें विद्वत्तेचें भरे | भूत आंगीं ॥ १५२ ॥
लांकण=बंधन
आपणचि ज्ञानस्वरूप आहे | तें गेलें हें दुःख न वाहे |
कीं विषयज्ञानें होये | गगनायेवढा ॥ १५३ ॥
रावो जैसा स्वप्नीं | रंकपणें रिघे धानीं |
तो दों दाणां मानी | इंद्रु ना मी ॥ १५४ ॥
धानीं=भिक्षेस
दों दाणां मानी=दोन दाने मिळता मानतो
तैसें गा देहातीता | जालेया देहवंता |
हों लागे पंडुसुता | बाह्यज्ञानें ॥ १५५ ॥
प्रवृत्तिशास्त्र बुझे | यज्ञविद्या उमजे |
किंबहुना सुझे | स्वर्गवरी ॥ १५६ ॥
बुझे =प्रवीण
असणे सुझे=समजणे
आणि म्हणे आजि आन | मीवांचूनि नाहीं सज्ञान |
चातुर्यचंद्रा गगन | चित्त माझें ॥ १५७ ॥
ऐसें सत्त्व सुखज्ञानीं | जीवासि लावूनि कानी |
बैलाची करी वानी | पांगुळाचिया ॥ १५८ ॥
कानी =वेसन काढण्या
पांगुळाचिया=पांगळा , कुंठीत
आतां हाचि शरीरीं | रजें जियापरी |
बांधिजे तें अवधारीं | सांगिजैल ॥ १५९ ॥
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम् ॥ ७॥
हें रज याचि कारणें | जीवातें रंजऊं जाणे |
हें अभिलाखाचें तरुणें | सदाचि गा ॥ १६० ॥
हें जीवीं मोटकें रिगे | आणि कामाच्या मदीं लागे |
मग वारया वळघे | तृष्णेचिया ॥ १६१ ॥
वळघे=आरूढ होणे
घृतें आंबुखूनि आगियाळें | वज्राग्नीचें सादुकलें |
आतां बहु थेंकुलें | आहे तेथ ? ॥ १६२ ॥
आंबुखूनि=ओतून आगियाळें= अग्नी कुंड
वज्राग्नी=वीज सादुकलें=भडकला
मग कमी जास्त काय राहणार (सारेच
जळणार )
तैसी खवळें चाड | होय दुःखासकट गोड |
इंद्रश्रीहि सांकड | गमों लागे ॥ १६३ ॥
सांकड=कमी
तैसी तृष्णा वाढिनलिया | मेरुही हाता आलिया |
तऱ्ही म्हणे एखादिया | दारुणा वळघो ॥ १६४ ॥
एखादिया दारुणा वळघो=अधिक कठीण कार्यास लागणे
जीविताचि कुरोंडी | वोवाळूं लागे कवडी |
मानी तृणाचिये जोडी | कृतकृत्यता ॥ १६५ ॥
आजि असतें वेंचिजेल | परी पाहे काय कीजेल |
ऐसा पांगीं वडील | व्यवसाय मांडी ॥ १६६ ॥
पांगीं=आसक्ती आशा
म्हणे स्वर्गा हन जावें | तरी काय तेथें खावें |
इयालागीं धांवें | याग करूं ॥ १६७ ॥
व्रतापाठीं व्रतें | आचरें इष्टापूर्तें |
काम्यावांचूनि हातें | शिवणें नाहीं ॥ १६८ ॥
पैं ग्रीष्मांतींचा वारा | विसांवो नेणें वीरा |
तैसा न म्हणे व्यापारा | रात्रदिवस ॥ १६९ ॥
काय चंचळु मासा ? | कामिनीकटाक्षु जैसा |
लवलाहो तैसा | विजूही नाहीं ॥ १७० ॥
लवलाहो=चंचलता
तेतुलेनि गा वेगें | स्वर्गसंसारपांगें |
आगीमाजीं रिगे | क्रियांचिये ॥ १७१ ॥
पांगें=आशा
ऐसा देहीं देहावेगळा | ले तृष्णेचिया सांखळा |
खटाटोपु वाहे गळां | व्यापाराचा ॥ १७२ ॥
हें रजोगुणाचें दारुण | देहीं देहियासी बंधन |
परिस आतां विंदाण | तमाचें तें ॥ १७३ ॥
विंदाण=कौशल्य
(विनाशकता)
by dr. vikrant tikone
सुंदर !
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