Sunday, January 15, 2017

ज्ञानेश्वरी अध्याय १४ वा, ओव्या ११६ ते १७३




ज्ञानेश्वरी / अध्याय चौदावा / संत ज्ञानेश्वर
ओव्या ११६ ते १७३


सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४॥


याकारणें मी पिता | महद्ब्रह्म हे माता |
अपत्य पंडुसुता | जगडंबरु ॥ ११६ ॥

आतां शरीरें बहुतें | देखोनि न भेदें हो चित्तें |
जे मनबुद्ध्यादि भूतें | एकेंचि येथें ॥ ११७ ॥

हां गा एकाचि देहीं | काय अनारिसें अवयव नाहीं ? |
तेवीं विचित्र विश्व पाहीं | एकचि हें ॥ ११८ ॥

पैं उंचा नीचा डाहाळिया | विषमा वेगळालिया |
येकाचि जेवीं जालिया | बीजाचिया ॥ ११९ ॥

आणि संबंधु तोही ऐसा | मृत्तिके घटु लेंकु जैसा |
कां पटत्व कापुसा | नातू होय ॥ १२० ॥

नाना कल्लोळपरंपरा | संतती जैसी सागरा |
आम्हां आणि चराचरा | संबंधु तैसा ॥ १२१ ॥

म्हणौनि वन्हि आणि ज्वाळ | दोन्ही वन्हीचि केवळ |
तेवीं मी गा सकळ | संबंधु वावो ॥ १२२ ॥
वावो=व्यर्थ

जालेनि जगें मी झांकें | तरी जगत्वें कोण फांके ? |
किळेवरी माणिकें | लोपिजे काई ? ॥ १२३ ॥
किळेवरी=तेजाने

अळंकारातें आलें | तरी सोनेपण काइ गेलें ? |
कीं कमळ फांकलें | कमळत्वा मुके ? ॥ १२४ ॥

सांग पां धनंजया | अवयवीं अवयविया |
आच्छादिजे कीं तया | तेंचि रूप ? ॥ १२५
अवयविया=देहाला

कीं विरूढलिया जोंधळा | कणिसाचा निर्वाळा |
वेंचला कीं आगळा | दिसतसे ॥ १२६ ॥

म्हणौनि जग परौतें | सारूनि पाहिजे मातें |
तैसा नोव्हें उखितें | आघवें मीचि ॥ १२७ ॥
उखितें=पूर्णत:

हा तूं साचोकारा | निश्चयाचा खरा |
गांठीं बांध वीरा | जीवाचिये ॥ १२८ ॥

आतां मियां मज दाविला | शरीरीं वेगळाला |
गुणीं मीचि बांधला | ऐसा आवडें ॥ १२९ ॥
आवडें=वाटतो

जैसें स्वप्नीं आपण | उठूनियां आत्ममरण |
भोगिजे गा जाण | कपिध्वजा ॥ १३० ॥

कां कवळातें डोळे | प्रकाशूनि पिवळें |
देखती तेंही कळे | तयांसीचि ॥ १३१ ॥
कवळातें=काविळीत

नाना सूर्यप्रकाशें | प्रकटी तैं अभ्र भासे |
तो लोपला हेंही दिसे | सूर्येंचि कीं ॥ १३२ ॥

पैं आपणपेनि जालिया | छाया गा आपुलिया |
बिहोनि बिहालिया | आन आहे ? ॥ १३३ ॥

तैसीं इयें नाना देहें | दाऊनि मी नाना होयें |
तेथ ऐसा जो बंधु आहे | तेंही देखें ॥ १३४ ॥

बंधु कां न बंधिजे | हें जाणणें मज माझें |
नेणणेनि उपजे | आपलेनि ॥ १३५ ॥

तरी कोणें गुणें कैसा | मजचि मी बंधु ऐसा |
आवडे तें परियेसा | अर्जुनदेवा ॥ १३६ ॥

गुण ते किती किंधर्म | कायि ययां रूपनाम |
कें जालें हें वर्म | अवधारीं पां ॥ १३७ ॥


सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५॥


तरी सत्त्वरजतम | तिघांसि हें नाम |
आणि प्रकृति जन्म- | भूमिका ययां ॥ १३८ ॥

भूमिका=स्थान

येथ सत्त्व तें उत्तम | रज तें मध्यम |
तिहींमाजीं तम | सावियाधारें ॥ १३९ ॥

सावियाधारें= कनिष्ठ

हें एकेचि वृत्तीच्या ठायीं | त्रिगुणत्व आवडे पाहीं |
वयसात्रय देहीं | येकीं जेवीं ॥ १४० ॥

कां मीनलेनि कीडें | जंव जंव तूक वाढे |
तंव तंव सोनें हीन पडे | पांचिका कसीं ॥ १४१ ॥
कीडें=किटाळ पांचिका कसीं= पाचवा खालचा कस

पैं सावधपण जैसें | वाहविलें आळसें |
सुषुप्ति बैसे | घणावोनि ॥ १४२ ॥

सुषुप्ति=निद्रा

तैसी अज्ञानांगीकारें | निगाली वृत्ति विखुरे |
ते सत्त्वरजद्वारें | तमही होय ॥ १४३ ॥

अर्जुना गा जाण | ययां नाम गुण |
आतां दाखऊं खूण | बांधिती ते ॥ १४४ ॥

तरी क्षेत्रज्ञदशे | आत्मा मोटका पैसे |
हें देह मी ऐसें | मुहूर्त करी ॥ १४५ ॥

आजन्ममरणांतीं | देहधर्मीं समस्तीं |
ममत्वाची सूती | घे ना जंव ॥ १४६ ॥

जैसी मीनाच्या तोंडीं | पडेना जंव उंडी |
तंव गळ आसुडी | जळपारधी ॥ १४७ ॥


तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्।
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ ॥ ६॥


तेवीं सत्त्वें लुब्धकें | सुखज्ञानाचीं पाशकें |
वोढिजती मग खुडके | मृगु जैसा ॥ १४८ ॥

लुब्धकें=चोर ,पारधी   खुडके=अडके

मग ज्ञानें चडफडी | जाणिवेचे खुरखोडी |
स्वयं सुख हें धाडी | हातींचें गा ॥ १४९ ॥

चडफडी =जळफळणे  खुरखोडी=लाथ मारणे

तेव्हां विद्यामानें तोखे | लाभमात्रें हरिखे |
मी संतुष्ट हेंही देखे | श्लाघों लागे ॥ १५० ॥

श्लाघों=आत्म स्तुती

म्हणे भाग्य ना माझें ? | आजि सुखियें नाहीं दुजें |
विकाराष्टकें फुंजे | सात्त्विकाचेनि ॥ १५१ ॥

विकाराष्टकें= अष्टसत्विक भाव  फुंजे=गर्व करी

आणि येणेंही न सरे | लांकण लागे दुसरें |
जें विद्वत्तेचें भरे | भूत आंगीं ॥ १५२ ॥

लांकण=बंधन

आपणचि ज्ञानस्वरूप आहे | तें गेलें हें दुःख न वाहे |
कीं विषयज्ञानें होये | गगनायेवढा ॥ १५३ ॥

रावो जैसा स्वप्नीं | रंकपणें रिघे धानीं |
तो दों दाणां मानी | इंद्रु ना मी ॥ १५४ ॥

धानीं=भिक्षेस 
दों दाणां मानी=दोन दाने मिळता मानतो

तैसें गा देहातीता | जालेया देहवंता |
हों लागे पंडुसुता | बाह्यज्ञानें ॥ १५५ ॥

प्रवृत्तिशास्त्र बुझे | यज्ञविद्या उमजे |
किंबहुना सुझे | स्वर्गवरी ॥ १५६ ॥

बुझे =प्रवीण असणे सुझे=समजणे  

आणि म्हणे आजि आन | मीवांचूनि नाहीं सज्ञान |
चातुर्यचंद्रा गगन | चित्त माझें ॥ १५७ ॥

ऐसें सत्त्व सुखज्ञानीं | जीवासि लावूनि कानी |
बैलाची करी वानी | पांगुळाचिया ॥ १५८ ॥

कानी =वेसन काढण्या
पांगुळाचिया=पांगळा , कुंठीत

आतां हाचि शरीरीं | रजें जियापरी |
बांधिजे तें अवधारीं | सांगिजैल ॥ १५९ ॥


रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम् ॥ ७॥


हें रज याचि कारणें | जीवातें रंजऊं जाणे |
हें अभिलाखाचें तरुणें | सदाचि गा ॥ १६० ॥

हें जीवीं मोटकें रिगे | आणि कामाच्या मदीं लागे |
मग वारया वळघे | तृष्णेचिया ॥ १६१ ॥

वळघे=आरूढ होणे

घृतें आंबुखूनि आगियाळें | वज्राग्नीचें सादुकलें |
आतां बहु थेंकुलें | आहे तेथ ? ॥ १६२ ॥

आंबुखूनि=ओतून  आगियाळें= अग्नी कुंड
वज्राग्नी=वीज सादुकलें=भडकला
मग कमी जास्त काय राहणार (सारेच जळणार )

तैसी खवळें चाड | होय दुःखासकट गोड |
इंद्रश्रीहि सांकड | गमों लागे ॥ १६३ ॥

सांकड=कमी

तैसी तृष्णा वाढिनलिया | मेरुही हाता आलिया |
तऱ्ही म्हणे एखादिया | दारुणा वळघो ॥ १६४ ॥

एखादिया दारुणा वळघो=अधिक कठीण कार्यास लागणे

जीविताचि कुरोंडी | वोवाळूं लागे कवडी |
मानी तृणाचिये जोडी | कृतकृत्यता ॥ १६५ ॥

आजि असतें वेंचिजेल | परी पाहे काय कीजेल |
ऐसा पांगीं वडील | व्यवसाय मांडी ॥ १६६ ॥

पांगीं=आसक्ती आशा

म्हणे स्वर्गा हन जावें | तरी काय तेथें खावें |
इयालागीं धांवें | याग करूं ॥ १६७ ॥

व्रतापाठीं व्रतें | आचरें इष्टापूर्तें |
काम्यावांचूनि हातें | शिवणें नाहीं ॥ १६८ ॥

पैं ग्रीष्मांतींचा वारा | विसांवो नेणें वीरा |
तैसा न म्हणे व्यापारा | रात्रदिवस ॥ १६९ ॥

काय चंचळु मासा ? | कामिनीकटाक्षु जैसा |
लवलाहो तैसा | विजूही नाहीं ॥ १७० ॥

लवलाहो=चंचलता

तेतुलेनि गा वेगें | स्वर्गसंसारपांगें |
आगीमाजीं रिगे | क्रियांचिये ॥ १७१ ॥

पांगें=आशा

ऐसा देहीं देहावेगळा | ले तृष्णेचिया सांखळा |
खटाटोपु वाहे गळां | व्यापाराचा ॥ १७२ ॥

हें रजोगुणाचें दारुण | देहीं देहियासी बंधन |
परिस आतां विंदाण | तमाचें तें ॥ १७३ ॥

विंदाण=कौशल्य (विनाशकता)



by dr. vikrant tikone 

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