Saturday, March 19, 2016

ज्ञानेश्वरी .अध्याय 2 / ओव्या ८१ ते १९० /



संजय उवाच: एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतपः।
                न योत्स्य इति गोविंदमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥

ऐसें संजयो सांगतु | म्हणे राया तो पार्थु।
पुनरपि शोकाकुलितु | काय बोले ॥ ८१ ॥

आइकें सखेदु बोले श्रीकृष्णातें | आतां नाळवावें तुम्हीं मातें।
मी सर्वथा न झुंजें येथें | भरंवसेनि ॥ ८२ ॥

नाळवावें=न आळवावे=विनवावे .भरंवसेनि=नक्कीच

ऐसें येकि हेळां हेळां बोलिला | मग मौन धरोनि ठेला।
तेथ श्रीकृष्णा विस्मो पातला | देखोनि तयाते ॥ ८३ ॥

हेळां=वेळा विस्मो=विस्मय

     तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
     सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥ १० ॥

मग आपुला चित्तीं म्हणे | एथ हें काय आदरिलें येणें।
अर्जुन सर्वथा कांही नेणे | काय कीजे ॥ ८४ ॥

आदरिलें=आरंभिले

हा उमजे आतां कवणेपरी | कैसेनि धीरु स्वीकारी।
जैसा ग्रहाते पंचाक्षरी | अनुमानी कां ॥ ८५ ॥

ग्रहाते =बाधित व्यक्तीला  पंचाक्षरी=मांत्रिक

ना तरी असाध्य देखोनि व्याधी | अमृतासम दिव्य औषधी।
वैद्य सूचि निरवधि | निदानींची ॥ ८६ ॥

 सूचि=सुचवितो,योजतो  निरवधि=अपार निदानींची=शेवटची

तैसा विवरितु असे श्रीअनंतु | तया दोन्हीं सैन्याआंतु।
जयापरी पार्थु | भ्रांति सांडी ॥ ८७ ॥

तें कारण मनीं धरिलें | मग सरोष बोलों आदरिले।
जैसें मातेच्या कोपीं थोकलें | स्नेह आथी ॥ ८८ ॥

थोकलें=लपले,गुप्त

कीं औषधाचिया कडुवटपणीं | जैसी अमृताची पुरवणी।
ते आहाच न दिसे परी गुणीं | प्रकट होय ॥ ८९ ॥

पुरवणी=जोडणी, आहाच-वरवर

तैसे वरिवरि पाहतां उदासें | आंत तरी अतिसुरसें।
तियें वाक्यें हृषीकेशें | बोलों आदरिलीं ॥ ९० ॥


     श्रीभगवानुवाच: अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
                   गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडितः ॥ ११ ॥

मग अर्जुनाते म्हणितलें | आम्ही आजि हें नवल देखिलें।
जें तुवां येथ आदरिलें | माझारींचि ॥ ९१ ॥

माझारींचि=(रणा)मध्येच

तूं जाणता तरी म्हणविसी | परी नेणीवेतें न संडिसी।
आणि शिकवूं म्हणों तरी बोलसी | बहुसाल नीति ॥ ९२ ॥

बहुसाल=मोठमोठी

जात्यंधा लागे पिसें | मग तें सैरा धांवे जैसें।
तुझे शहाणपण तैसें | दिसतसे ॥ ९३ ॥

जात्यंधा=जन्मत: अंध

तूं आपणपें तरी नेणसी | परी या कौरवांते शोचूं पहासी |
हा बहु विस्मय आम्हांसी | पुढतपुढती ॥ ९४ ॥

शोचूं=शोक होणे,दु:ख करणे

तरी सांग पां मज अर्जुना | तुजपासोनि स्थिती या त्रिभुवना।
हे अनादि विश्वरचना | तें लटकें कायी ॥ ९५ ॥

लटकें=खोटे

एथ समर्थु एक आथीं | तयापासूनि भूतें होती।
तरी हें वायाचि काय बोलती | जगामाजीं ॥ ९६ ॥

हो कां सांप्रत ऐसें जहालें | जे हे जन्ममृत्यू तुवा सृजिले।
आणि नाशु पाविले | तुझेनि कायी ॥ ९७ ॥

सांप्रत=सध्या , सृजिले=निर्मिल्रे

तूं भ्रमलेपणें अहंकृती | यांसी घातु न करिसी चितीं।
तरी सांगे कायि हे होती | चिरंतन ॥ ९८ ॥

अहंकृती=अभिमानाने ,अहंकाराने

कीं तूं एक वधिता | आणि सकळ लोकु हा मरता।
ऐसी भ्रांति झणें चित्ता | येवो देसी ॥ ९९ ॥

झणें=नको

अनादिसिद्ध हें आघवें | होत जात स्वभावें।
तरी तुवा का शोचावे | सांग मज ॥ १०० ॥

परी मूर्खपणे नेणसी | न चिंतावें तें चिंतसी।
आणि तूंचि नीति सांगसी | आम्हाप्रति ॥ १०१ ॥

देखें जे विवेकी जे होती | ते दोहींतेही न शोचती।
जे होय जाय हे भ्रांती | म्हणऊनियां ॥ १०२ ॥

भ्रांती=भ्रम ,माया

     न त्वेवाहं जातुं नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
     न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ॥

अर्जुना सांगेन आइक | एथ आम्ही तुम्ही देख।
आणि हे भूपति अशेख | आदिकरुनी ॥ १०३ ॥

 आदिकरुनी=सुरवातीपासून

नित्यता ऐसेचि असोनि | ना तरी निश्चित क्षया जाऊनि।
हे भ्रांति वेगळी करूनी | दोन्हीं नाहीं ॥ १०४ ॥

हे उपजे आणि नाशे | ते मायावशें दिसे।
येऱ्हवीं तत्वता वस्तु जे असे | ते अविनाशचि ॥ १०५ ॥

जैसें पवनें तोय हालविलें | आणि तरंगाकार जाहलें।
तरी कवण कें जन्मलें | म्हणों ये तेथ ॥ १०६ ॥

तेंचि वायूचे स्फुरण ठेलें | आणि उदक सहज सपाटलें।
तरी आता काय निमालें | विचारीं पां ॥ १०७ ॥

     देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
     तथा देहांतरप्राप्तिर्धीरस्त्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥

आइकें शरीर तरी एक | परी वयसा भेद अनेक।
हें प्रत्यक्षचि देख | प्रमाण तूं ॥ १०८ ॥

एथ कौमारत्व दिसे | मग तारुण्यीं तें भ्रंशे।
परी देहचि न नाशे | एकेकासवें ॥ १०९ ॥

तैसीं चैतन्याचां ठायीं | इयें शरीरांतरे होति जाति पाहीं।
ऐसें जाणे जया नाहीं | व्यामोहदुःख ॥ ११० ॥

व्यामोहदुःख=अज्ञानजन्य दु:ख भ्रांतीमुळे होणारे

     मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः।
     आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥

एथ नेणावया हेंचि कारण | जें इंद्रियांआधीनपण।
तिहीं आकळिजे अंतःकरण | म्हणऊनि भ्रमे ॥ १११ ॥

नेणावया = नकळणे आकळिजे=व्यापणे

इंद्रियें विषय सेविती | तेथ हर्ष शोकु उपजती।
ते अंतर आप्लविती | संगें येणें ॥ ११२ ॥

आप्लविती=व्यापिती

जयां विषायांचां ठायीं | एकनिष्ठता कहीं नाहीं।
तेथ दुःख आणि कांहीं | सुखहि दिसे ॥ ११३ ॥

देखें हे शब्दाची व्याप्ति | निंदा आणि स्तुति।
तेथ द्वेषाद्वेष उपजति | श्रवणद्वारें ॥ ११४ ॥

मृदु आणि कठीण | जे स्पर्शाचे दोन्ही गुण।
जे वपूचेनि संगे कारण संतोषखेदां ॥ ११५ ॥

वपूचेनि=देहाचे

भ्यासुर आणि सुरेख | हें रुपाचें स्वरूप देख।
जें उपजवी सुखदुःख | नेत्राद्वारें ॥ ११६ ॥

सुगंधु आणि दुर्गंधु | हा परिमळाचा भेदु।
जो घ्राणसंगे विषादु - | तोषु देता ॥ ११७ ॥

परिमळ=गंध

तैसाचि द्विविध रसु | उपजवी प्रीतित्रासु।
म्हणूनि हा अपभ्रंशु | विषयसंगु ॥ ११८ ॥

अपभ्रंशु=भ्रमित करणारा 

देखें इंद्रियां आधीन होईजे।तें शीतोष्णांते पाविजे।
आणि सुखदुःखी आकळिजे | आपणपें ॥ ११९ ॥

या विषयावांचूनि कांही | आणीक सर्वथा रम्य नाहीं।
ऐसा स्वभावोचि पाहीं | इंद्रियांचा ॥ १२० ॥

हे विषय तरी कैसे | रोहिणीचें जळ जैसें।
कां स्वप्नींचा आभासे | भद्रजाति ॥ १२१ ॥

रोहिणीचें जळ=मृगजळ भद्रजाति=गजान्तलक्षी(हत्ती)

देखें अनित्य तियापरी | म्हणऊनि तूं अव्हेरीं।
हा सर्वथा संगु न धरीं | धनुर्धरा ॥ १२२ ॥

     यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषषर्भ।
     समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥

हे विषय जयाते नाकळिती | तयाते सुखदुःखें दोन्ही न पवती।
आणि गर्भवासुसंगती | नाहीं तया ॥ १२३ ॥

नाकळिती=न ग्रासती

तो नित्यरूपु पार्था | वोळखावा सर्वथा।
जो या इंद्रियार्था | नागवेचि ॥ १२४ ॥

नागवेचि= न सापडे

     नासंतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
     उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥

आतां अर्जुना आणिक कांही एक | सांगेन मी आइक।
जें विचारें परलोक | वोळखिती ॥ १२५ ॥

या उपाधिमाजि गुप्त | चैतन्य असे सर्वगत।
तें तत्वज्ञ संत | स्वीकारिती ॥ १२६ ॥

उपाधिमाजि= देह प्रपंच यांची बंधने. सर्वगत=सर्वव्यापी

सलिलीं पय जैसें | एक होऊन मीनलें असे।
परीं निवडूनि राजहंसें | वेगळें कीजे ॥ १२७ ॥

सलिलीं=पाण्यात पय=दुध

कीं अग्निमुखें किडाळ | तोडोनियां चोखाळ।
निवडिती केवळ | बुद्धिमंत ॥ १२८ ॥

किडाळ=कचरा हिणकस

ना तरी जाणिवेच्या आयणी | करितां दधिकडसणी।
मग नवनीत निर्वाणीं | दिसे जैसें ॥ १२९ ॥

आयणी=स्थानी ठिकाणी. नवनीत=लोणी. निर्वाणीं=शेवटी

कीं भूस बीज एकवट | उपणितां राहे घनवट।
तेथ उडे तें फलकट | जाणों आले ॥ १३० ॥

तैसें विचारितां निरसलें | तें प्रपंचु सहजें सांडवलें।
मग तत्वता तत्व उरलें | ज्ञानियांसी ॥ १३१ ॥

निरसलें= अनित्य ठरवले

म्हणोनि अनित्याचां ठायीं | तयां आस्तिक्यबुद्धि नाहीं।
निष्कर्ष दोहींही | देखिला असे ॥ १३२ ॥

आस्तिक्यबुद्धि=नित्यतेचा निश्चय

     अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमैदं तत्।
     विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥

देखें सारासार विचारितां | भ्रांति जे पाहीं असारता।
तरी सार तें स्वभावता | नित्य जाणें ॥ १३३ ॥

हा लोकत्रयाकारु | तो जयाचा विस्तारु।
तेथ नाम वर्ण आकारु | चिन्ह नाही ॥ १३४ ॥

जो सर्वदा सर्वगतु | जन्मक्षयातीतु।
तया केलियाहि घातु | कदाचि नोहे ॥ १३५ ॥

     अन्तवंतः इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
     अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्याद् युध्यस्व भारत ॥ १८ ॥

आणि शरीरजात हे आघवें | हें नाशवंत स्वभावें।
म्हणोनि तुवा झुंजावें | पंडुकुमरा ॥ १३६ ॥

     य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
     उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥

तूं धरूनि देहाभिमानातें | दिठी सूनि या शरीरातें।
मी मारिता हे मरते | म्हणत आहासी ॥ १३७ ॥

दिठी सूनि =दृष्टी घालून

तरी अर्जुना तूं हें नेणसी | जरी तत्वता विचारिसी।
तरी वधिता तूं नव्हेसी | हे वध्य नव्हती ॥ १३८ ॥

     न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता न भूयः।
     अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥

     वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजव्ययम्।
     कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥

जैसें स्वप्नामाजिं देखिजे | तें स्वप्नींचि साच आपजे।
मग चेऊनियां पाहिजे | तंव कांही नाहीं ॥ १३९ ॥

आपजे=वाटणे   चेऊनियां=जागे होता

तैसी हे जाण माया | तूं भ्रमत आहासी वायां।
शस्त्रें हाणितलिया छाया | जैसी आंगी न रुपे ॥ १४० ॥

कां पूर्ण कुंभ उलंडला | तेथ बिंबाकारु दिसे भ्रंशला।
परी भानु नाहीं नासला | तयासवें ॥ १४१ ॥

ना तरी मठीं आकाश जैसें | मठाकृती अवतरले असे।
तो भंगलिया आपैसे | स्वरूपचि ॥ १४२ ॥

मठाकृती=मातीचा माठ भांडे

तैसें शरीराचां लोपीं | सर्वथा नाशु नाहीं स्वरूपीं।
म्हणऊनि तूं हें नारोपीं | भ्रांति बापा ॥ १४३॥

     वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
     तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नावानि देही ॥ २२॥

जैसें जीर्ण वस्त्र सांडिजे | मग नूतन वेढिजे।
तैसे देहांतराते स्वीकारिजे | चैतन्यनाथें ॥ १४४ ॥

चैतन्यनाथें=आत्मा

     नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
     न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३॥

     अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
     नित्य सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥

हा अनादि नित्यसिद्धु | निरुपाधि विशुद्धु।
म्हणऊनि शस्त्रादिकीं छेदु | न घडे यया ॥ १४५ ॥

     अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
     तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥

हा प्रळयोदके नाप्लवे | अग्निदाहो न संभवे।
एथ महाशोषु न प्रभवे | मारुताचा ॥ १४६ ॥

नाप्लवे=बुडणे अग्निदाहो-अग्नीने जळणे प्रभवे=प्रभावीत करणे

अर्जुना हा नित्यु | अचळु हा शाश्वतु।
सर्वत्र सदोदितु | परिपूर्णु हा ॥ १४७ ॥

हा तर्काचिये दिठी | गोचर नोहे किरिटी।
ध्यान याचिये भेटी | उत्कंठा वाहे ॥ १४८ ॥

गोचर =दिसणे कळणे 

हा सदा दुर्लभु मना | आपु नोहे साधना।
निःसीमु हा अर्जुना | पुरुषोत्तमु ॥ १४९ ॥

आपु=प्राप्त

हा गुणत्रयरहितु | अनादि अविकृतु
व्यक्तीसी अतीतु | सर्वरूप ॥ १५० ॥

अतीतु=आकलना पलिकडला

अर्जुना ऐसा जाणावा | हा सकळात्मकु देखावा।
मग सहजे शोकु आघवा | हरेल तुझा ॥ १५१ ॥

सकळात्मकु=सकळांचा आत्मा

     अथ चैनं नित्यजात नित्यं वा मन्यसे मृतं।
     तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥

अथवा ऐसा नेणसी | तूं अंतवंतचि हें मानिसी।
तऱ्ही शोचूं न पवसी | पंडुकुमरा ॥ १५२ ॥

अंतवंतचि=अंत होणारा

जे आदि-स्थिती- अंतु | हा निरंतर असे नित्यु।
जैसा प्रवाहो अनुस्यूतु | गंगाजळाचा ॥ १५३ ॥

अनुस्यूतु=सतत, अखंड

तें आदि नाहीं खंडले | समुद्रीं तरी असे मिनलें।
आणि जातचि मध्यें उरले | दिसे जैसें ॥ १५४॥

मिनलें=मिळाले

इये तिन्हीं तयापरी | सरसींच सदा अवधारीं।
भूतांसी कवणीं अवसरीं | ठाकती ना ॥ १५५ ॥

सरसींच=सारखीच

म्हणोनि हे आघवें | एथ तुज न लगे शोचावें।
जे स्थितीची हे स्वभावें | अनादि ऐसी ॥ १५६ ॥

ना तरी हे अर्जुना | न येचि तुझिया मना।
जे देखोनि लोकु अधीना | जन्मक्षया ॥ १५७ ॥

तरी येथ कांही | तुज शोकासि कारण नाहीं।
जे जन्ममृत्यु हे पाहीं | अपरिहर ॥ १५८ ॥

अपरिहर=अनिवार्य

     जातस्य हि धृवो मृत्युर्धृवं जन्म मृतस्य च।
     तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥

उपजे तें नाशे | नाशलें पुनरपि दिसे।
हें घटिकायंत्र तैसें | परिभ्रमे गा ॥ १५९ ॥

ना तरी उदो अस्तु आपैसे | अखंडित होत जात जैसें।
हें जन्ममरण तैसें | अनिवार जगीं ॥ १६० ॥

महाप्रळय अवसरे | हें त्रैलोक्यही संहरे।
म्हणोनि हा परिहरे | आदि अंतु ॥ १६१ ॥

परिहरे=अटळ नक्की

तूं जरी हे ऐसें मानसी | तरी खेदु कां करिसी।
काय जाणतचि नेणसी | धनुर्धरा ॥ १६२ ॥

एथ आणिकही एक पार्था | तुज बहुतीं परी पाहतां।
दुःख करावया सर्वथा | विषो नाहीं ॥ १६३ ॥

विषो=कारण ,विषय

     अव्यक्तादिनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
     अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८ ॥

जियें समस्तें इयें भूते | जन्मा आदि अमूर्ते।
मग पातलीं व्यक्तीतें | जन्मलेया ॥ १६४ ॥

तियें क्षयासि जेथ जाती | तेथ निभ्रांत आने नव्हती।
देखें पूर्व स्थितीच येती | आपुलिये ॥ १६५ ॥

येर मध्यें जें प्रतिभासे | तें निद्रिता स्वप्न जैसें।
तैसा आकारु हा मायावशें | सत्स्वरूपीं ॥ १६६ ॥

प्रतिभासे=भासतात सत्स्वरूपीं=आत्मतत्व

ना तरी पवनें स्पर्शिलें नीर | पढियासे तरंगाकार।
का परापेक्षा अळकांर- | व्यक्ति कनकीं ॥ १६७ ॥

पढियासे=वाटते परापेक्षा=पर अपेक्षा व्यक्ति=व्यक्त होते
कनकी =सुवर्णात

तैसें सकळ हें मूर्त | जाण पां मायाकारित।
जैसें आकाशीं बिंबत | अभ्रपटल ॥ १६८ ॥

तैसें आदीचि जें नाही | तयालागीं तूं रुदसि कायी।
तूं अवीट तें पाहीं | चैतन्य एक ॥ १६९ ॥

जयाचि आर्तीचि भोगित | विषयी त्यजिले संत।
जयालागीं विरक्त | वनवासिये ॥ १७० ॥

आर्ती=उत्कंठा  तीव्र इच्छा

दिठी सूनि जयातें | ब्रह्मचर्यादि व्रतें।
मुनीश्वर तयातें आचरताती ॥ १७१ ॥

दिठी सूनि=दृष्टीत ठेवून

     आश्चर्यवत् पश्चति कश्चिदेनमाश्चर्यवद् वदति तथैव चान्यः।
     आश्चर्यवत् चैनमन्यः शृणोति | शृत्वाऽप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥

एक अंतरी निश्चळ | जें निहाळितां केवळ।
विसरले सकळ | संसारजात ॥ १७२ ॥

एकां गुणानुवादु करितां | उपरती होऊनि चिता।
निरवधि तल्लीनता | निरंतर ॥ १७३ ॥

उपरती=विरक्त

एक ऐकतांचि निवाले | ते देहभावीं सांडले।
एक अनुभवें पातले | तद्रुपता ॥ १७४ ॥

जैसा सरिता ओघ समस्त | समुद्रामाजिं मिळत।
परी माघौते न समात | परतले नाहीं ॥ १७५ ॥

समात=सामावता

तैसिया योगीश्वरांचिया मती | मिळणीसवें एकवटती।
परी जे विचारूनि पुनरावृत्ति | भजतीचिना ॥ १७६ ॥

पुनरावृत्ति=पुनर्जन्म

     देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
     तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥

जें सर्वत्र सर्वही देहीं | जया करितांही घातु नाहीं।
तें विश्वात्मक तूं पाहीं | चैतन्य एक ॥ १७७ ॥

विश्वात्मक=विश्वरूप

याचेनिचि स्वभावें | हें होत जात आघवें।
तरी सांग काय शोचावें | एथ तुवां ॥ १७८ ॥

एऱ्हवी तरी पार्था | तुज कां नेणों न मनें चित्ता।
परी किडाळ हें शोचितां | बहुतीं परीं ॥ १७९ ॥

किडाळ=वाईट शोचितां=विचार करता

     स्वधर्मपि चावेक्ष्य न विकंपितुमर्हसि।
     धर्म्याद्धि युद्धात् श्रेयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१ ॥

तूं अझुनि कां न विचारिसी | काय हें चिंतितु आहासी।
स्वधर्मु तो विसरलासी | तरावें जेणें ॥ १८० ॥

या कौरवां भलतें जाहलें | अथवा तुजचि कांही पातलें।
कीं युगचि हें बुडालें | जर्हीं एथ ॥ १८१ ॥

तरी स्वधर्मु एक आहे | तो सर्वथा त्याज्य नोहे।
मग तरिजेल काय पाहे | कृपाळुपणें ॥ १८२ ॥

अर्जुना तुझें चित्त | जऱ्ही जाहलें द्रवीभूत।
तऱ्ही न हें अनुचित | संग्रामसमयीं ॥ १८३ ॥

अगा गोक्षीर जरी जाहलें | तरी पथ्यासि नाही म्हणितलें।
ऐसेनिहि विष होय सुदलें | नवज्वरीं देतां ॥ १८४ ॥

गोक्षीर=दुध सुदलें= दिले ,वाढले

तैसे आनीं आन करितां | नाशु होईल हिता।
म्हणऊनि तूं आतां | सावध होई ॥ १८५ ॥

आन=भलते वेगळे

वायांचि व्याकुळ कायी | आपुला निजधर्मु पाहीं।
जो आचरिता बाधु नाहीं | कवणे काळीं ॥ १८६ ॥

जैसें मार्गेंचि चालतां | अपावो न पवे सर्वथा।
कां दीपाधारें वर्ततां | नाडळिजे ॥ १८७ ॥

नाडळिजे=अडखळणे

म्हणोनि यालागीं पाहीं | तुम्हां क्षत्रियां आणीक कांही।
संग्रामावांचूनि नाहीं | उचित जाणें ॥ १८९ ॥

निष्कपटा होआवें | उसिणा घाई जुंझावें।
हें असो काय सांगावे | प्रत्यक्षावरी ॥ १९० ॥

उसिणा घाई= अधिक नेटाने


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2 comments:

  1. महाविष्णूचा अवतार । सखा माझा ज्ञानेश्वर ।।

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