Sunday, March 13, 2016

ज्ञानेश्वरी अध्याय १ ओव्या २२ ते ५०


मज हृदयी सद्गुरू | तेणे तारिलो हा संसारपूरु।
म्हणऊनि विशेष अत्यादरू | विवेकावरी ॥ २२ ॥

जैसे डोळ्यां अंजन भेटे | मग दृष्टीसी फांटा फुटे।
मग वास पाहे तेथ प्रकटे | महानिधी ॥ २३ ॥
दृष्टीसी फांटा फुटे=फाकणे |बघण्याची शक्ती वाढणे
वास =असेल तिथे (भूमिगत)

का चिंतामणी जालया हाती | सदा विजयवृत्ति मनोरथी।
तैसा मी पूर्णकाम निवृत्ती | ज्ञानदेवो म्हणे ॥ २४ ॥

म्हणोन जाणतेन गुरू भजिजे  | तेणे कृतकार्य होईजे।
जैसे मूळसिंचने सहजे | शाखापल्लव संतोषती ॥ २५ ॥

का तीर्थे जिये भुवनी | तिये घडती समुद्रावगहनी।
ना तरी अमृतरसास्वादनीं | रस सकळ ॥ २६ ॥
समुद्रावगहनी=समुद्र स्नानात

तैसा पुढतपुढती तोची | मियां अभिवंदिला श्रीगुरूचि।
जे अभिलषित मनोरुची | पुरविता तो ॥ २७ ॥
पुढतपुढती=पुन;पुन्हा

आता अवधारा कथा गहन | जे सकळां कौतुका जन्मस्थान।
की अभिनव उद्यान | विवेकतरूचे ॥ २८ ॥

ना तरी सर्व सुखांची आदि | जे प्रमेयमहानिधी।
नाना नवरससुधाब्धि | परिपूर्ण हे ॥ २९ ॥

की परमधाम प्रकट | सर्व विद्यांचे मूळपीठ।
शास्त्रजाता वसौट | अशेषांचे ॥ ३० ॥
सौट=वस्ती

ना तरी सकळ धर्मांचे माहेर | सज्जनांचे जिव्हार।
लावण्यरत्नभांडार | शारदियेचे ॥ ३१॥

नाना कथारूपे भारती | प्रकटली असे त्रिजगती।
आविष्करोनी महामती | व्यासाचिये ॥ ३२॥
आविष्करोनी=स्फुरुनी

म्हणोनी हा काव्यां रावो | ग्रंथ गुरुवतीचा ठावो।
एथुनि रसां आला आवो | रसाळपणाचा ॥ ३३॥
रावो=राजा, गुरुवतीचा=मोठेपणाचा

तेवींचि आइका आणिक एक | एथुनि शब्दश्री सच्छास्त्रिक
आणि महाबोधि कोवळीक | दुणावली ॥ ३४॥
शब्दश्री =शब्द सौंदर्य  सच्छास्त्रिक=सत शास्त्रीक

एथ चातुर्य शहाणे झाले | प्रमेय रुचीस आले।
आणि सौभाग्य पोखले | सुखाचे एथ ॥ ३५॥

माधुर्यी मधुरता | शृंगारी सुरेखता।
रूढपण उचितां | दिसे भले ॥ ३६॥
रूढपण=थोरपण,सन्मान उचितां=योग्य असलेल्यास

एथ कळाविदपण कळा | पुण्यासी प्रतापु आगळा।
म्हणऊनि जनमेजयाचे अवलीळा | दोष हरले ॥ ३७॥
कळाविदपण=कौशल्य अवलीळा=सहज

आणि पाहता नावेक | रंगी सुरंगतेची आगळीक।
गुणां सगुणतेचे बिक | बहुवस एथ ॥ ३८॥
नावेक=क्षणभर  रंगी सुरंगतेची=रंगावर सुंदरता  
बिक=बळ ,थोरवी

भानुचेनि तेजें धवळले | जैसे त्रैलोक्य दिसे उजळले।
तैसे व्यासमती कवळले | अवघे विश्व ॥ ३९॥


कां सुक्षेत्रीं बीज घातले | ते आपुलेयापरी विस्तारले।
तैसे भारतीं सुरवाडले | अर्थजात ॥ ४०॥
सुरवाडले =अनुकूल होणे (विस्तारले)

ना तरी नगरांतरी वसिजे | तरी नागराचि होइजे।
तैसे व्यासोक्तितेजे | धवळित सकळ ॥ ४१॥
नागराचि=सभ्य (शहरी) धवळित=उजळणे

कीं प्रथमवयसाकाळीं | लावण्याची नव्हाळी।
प्रकटे जैसी आगळी | अंगनाअंगी ॥ ४२॥
अंगना=स्त्री

ना तरी उद्यानी माधवी घडे | तेथ वनशोभेचि खाणी उघडे।
आदिलापासोनि अपाडे | जियापरी ॥ ४३॥
माधवी=वसंत
आदिलापासोनि अपाडे=पहिल्या पेक्षा अजोड (लहानापासून मोठे )

नाना घनीभूत सुवर्ण | जैसे न्याहाळितां साधारण।
मग अलंकारी बरवेपण | निवाडु दावी ॥ ४४॥
निवाडु=हवा तो चांगलेपणा, आगळेपण

तैसे व्यासोक्ती अळंकारिले | आवडे ते बरवेपण पातले।
ते जाणोनि काय आश्रयिले | इतिहासी ॥ ४५॥
व्यासोक्ती=व्यास उक्ती
बरवेपण=प्रियत्व
 
नाना पुरतिये प्रतिष्ठेलागीं | सानीव धरुनी आंगी।
पुराणे आख्यानरूपे जगीं | भारता आली ॥ ४६
पुरतिये=पूर्ण   सानीव=लहानपण

म्हणऊनि महाभारतीं जे नाही | ते नोहेचि लोकी तिहीं।
येणे कारणे म्हणिपे पाहीं | व्यासोच्छिष्ट जगत्रय ॥ ४७॥
व्यासोच्छिष्ट=व्यासांचे उष्टे  जगत्रय =तिन्ही जग

ऐसी सुरस जगीं कथा | जे जन्मभूमि परमार्था।
मुनि सांगे नृपनाथा | जनमेजया ॥ ४८॥

जे अद्वितीय उत्तम | पवित्रैक निरुपम।
परम मंगलधाम | अवधारिजो ॥ ४९॥

आता भारतीं कमळपरागु | गीताख्यु प्रसंगु।
जो संवादिला श्रीरंगु | अर्जुनेसी ॥ ५०॥


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