Tuesday, March 15, 2016

ज्ञानेश्वरी अध्याय १, ओव्या ८५ ते १५० संत ज्ञानेश्वर

       


 धृतराष्ट्र उवाच।
       धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
       मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ १॥

तरी पुत्रस्नेहे मोहितु | धृतराष्ट्र असे पुसतु ॥
म्हणे संजया सांगे मातु | कुरुक्षेत्रींची ॥ ८५॥
पुसतु=विचारले   मातु =वार्ता ,वृतांत

जें धर्मालय म्हणिजे | तेथ पांडव आणि माझे।
गेले असती व्याजें | झुंजाचेनि ॥ ८६॥
व्याजें=कारणे,निमित्ते  

तरी तिहीं येतुला अवसरीं | काय किजत असे येरयेरीं।
तें झडकरी कथन करी | मजप्रती ॥ ८७॥


     संजय उवाच।
       दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
       आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २॥

तिये वेळी तो संजय बोले | म्हणे पांडवसैन्य उचलले।
जैसें महाप्रळयीं पसरले | कृतांतमुख ॥ ८८॥
उचलले=सरसावले कृतांतमुख=मृत्यूचे तोंड

तैसे तें घनदाट | उठावले एकवाट।
जैसें उसळले कालकूट | धरीं कणव ॥ ८९॥
घनदाट=पुष्कळ मोठे एकवाट=एकदम

ना तरी वडवानलु सादुकला | प्रलयवाते पोखला।
सागर शोषूनि उधवला | अंबरासी ॥ ९०॥
सादुकला=पेटला  पोखला=वाढला
उधवला=उसळला

तैसे दळ दुर्धर | नाना व्यूहीं परिकर।
अवगमले भयासुर | तिये काळीं ॥ ९१॥
दुर्धर=अवघड (जिंकण्यास) व्यूहीं=सैन्य रचना  

परिकर=सज्ज ,परीपूर्ण  .अवगमले=वाटले

तें देखिलेयां दुर्योधनें | अव्हेरिले कवणे माने।
जैसें न गणिजे पंचाननें | गजवटांते ॥ ९२ ॥
कवणे माने=कश्या प्रकारे गणिजे =जुमानणे  
पंचाननें =सिंह | गजवटांते= हत्तींचे कळप
   
      पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
       व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३॥

मग द्रोणापासी आला | तयाते म्हणे हा देखिला।
कैसा दळभारु उचलला | पांडवांचा ॥ ९३॥
उचलला=सरसावला

गिरिदुर्ग जैसे चालते | तैसे विविध व्यूह संभवते।
हे रचिले आथि बुद्धिमंते | द्रुपद्कुमरें ॥ ९४॥
संभवते=निर्माण करून

जो का तुम्हीं शिक्षापिला | विद्या देऊनी कुरुठा केला।
तेणे हा पाखरिला | देखदेख ॥ ९५॥
शिक्षापिला=शिकवला कुरुठा=शहाणा
पाखरिला=आश्रय दिला (सांभाळला )

        अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
        युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ: ॥ ४॥

आणिकही असाधारण | जे शस्त्रास्त्रीं प्रवीण।
जे क्षात्रधर्मीं निपुण | वीर आहाती ॥ ९६॥

जे बळें प्रौढी पौरुषें | भीमार्जुनांसारिखे।
ते सांगेन कौतुकें | प्रसंगेचि ॥ ९७॥
प्रौढी=कीर्ती पौरुषें=पराक्रमी

एथ युयुधानु सुभटु | आला असे विराटु।
महारथी श्रेष्ठु | द्रुपद वीरु ॥ ९८ ॥
सुभटु=वीर योद्धा 

        धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजेश्च वीर्यवान।
        पुरुजित् कुंतिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगव: ॥ ५॥

       युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
       सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथ: ॥ ६॥

चेकितान धृष्टकेतु | काशिश्वरु विक्रांतु।
उत्तमौज नृपनाथु | शैब्य देख ॥ ९९ ॥
विक्रांतु=पराक्रमी

हा कुंतिभोजु पाहे | एथ युधामन्यु आला आहे।
आणि पुरुजितादि राय हे | सकळ देखे ॥ १००॥

हा सुभद्रहृदयनंदनु | जो अपरु नवा अर्जुनु।
तो अभिमन्यु म्हणे दुर्योधनु | देखे द्रोणा ॥ १०१॥
अपरु= दुसरा

आणिकही द्रौपदीकुमर | के सकळही महारथी वीर।
मिती नेणिजे अपार | मीनले आथि ॥ १०२ ॥
मिती=मोजमाप मीनले=एकत्रित जमले

        अस्माकं तु विशिष्टा ये तान् निबोध द्विजोत्तम।
        नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ते ॥ ७॥

        भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समिंतिंजय:।
        अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तिस्थैव च ॥ ८॥

आतां आमुचां दळीं नायक | जे रूढ वीर सैनिक।
ते प्रसंगे आइक | सांगिजती ॥ १०३॥
रूढ= नावजले

उद्देशें एक दोनी | जायिजती बोलोनी।
तुम्हीआदिकरूनि | मुख्य जे जे ॥ १०४॥

हा भीष्मु गंगानंदनु | जो प्रतापतेजस्वी भानू।
रिपुगजपंचाननु | कर्ण वीरु ॥ १०५ ॥
रिपुगजपंचाननु =शत्रूरुपी हत्तीना सिंह

या एकेकाचेनि मनोव्यापारें | हे विश्व होय संहरे।
हा कृपाचार्य न पुरे | एकलाचि ॥ १०६॥

एथ विकर्ण वीरु आहे | हा अश्वत्थामा पैल पाहें।
याचा अडदरु सदा वाहे | कृतांतु मनीं ॥ १०७॥
अडदरु=भिती  कृतांतु=काळ, यम

समितिंजयो सोमदत्ति | ऐसे आणिकही बहुत आहाती ॥
जयाचिया बळा मिती | धाताही नेणे ॥ १०८॥
धाताही=ब्रह्मदेव

       अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता:।
       नानाशस्त्रप्रहरण: सर्वे युद्धविशरद: ॥ ९॥

जे शस्त्रविद्यापारंगत | मंत्रावतार मूर्त।
हो कां जे अस्त्रजात | एथूनि रूढ।। १०९॥

हे अप्रतिमल्ल जगीं | पुरता प्रतापु अंगी।
परी सर्व प्राणें मजचिलागी | आराइले असती ॥ ११०॥
आराइले=अनुकूल ,अनुसरणारे (अर्पित)

पतिव्रतेचे हृदय जैसे | पतीवांचूनि न स्पर्शे।
मी सर्वस्व या तैसे | सुभटांसी ॥ १११॥
सुभटांसी=वीरांना

आमुचिया काजाचेनि पाडें | देखती आपुलें जीवित थोकडें।
ऐसे निरवधि चोखडे | स्वामिभक्त ॥ ११२॥
काजाचेनि पाडें =कार्याच्या पुढे .थोकडें=लहान
निरवधि= पूर्णतः चोखडे =चोख ,खरे

झुंजती कुळकणी जाणती | कळे कीर्तीसी जिती।
हे बहु असो क्षात्रनीती | एथोनियां ॥ ११३॥
कुळकणी=कौशल्य  कळे=शस्त्रकले

ऐसें सर्वापरी पुरते | वीर दळी आमुतें।
आतां काय गणूं यांतें | अपार हे ॥ ११४॥
गणूं=मोजू

         अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
         पर्याप्तं त्विदमेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १०॥

वरी क्षत्रीयांमाजि श्रेष्ठु | जो जगजेठी गा सुभटु।
तया दळवैपणाचा पाटु | भीष्मासी पैं ॥ ११५॥
जगजेठी=जगातील जेष्ठ . दळवैपणाचा पाटु= सेनापती पद

आतां याचेनि बळें गवसलें | हें दुर्ग जैसे पन्नासीलें।
येणे पाडे थेंकुले | लोकत्रय ॥ ११६॥
गवसलें=पांघरणे व्यापणे (आश्रय देणे) पन्नासीलें=शृंगारले   थेंकुले=लहान

आधींच समुद्र पाहीं | तेथ दुवाडपणा कवणा नाहीं ॥
मग वडवानळु तैसेयाही | विरजा जैसा ॥ ११७॥
दुवाडपणा=द्वाडपणा,दुस्तर  विरजा=सहायक

ना तरी प्रवन्ही महावातु | या दोघां जैसा सांघातु।
तैसा हा गंगासुतु | सेनापति ॥ ११८॥
सांघातु=एकत्रीकरण

आतां येणेंसि कवण भिडे | हे पांडव सैन्य कीर थोडें।
ओइचलेनि पाडे | दिसत असे ॥ ११९॥
कीर =खरोखर ओइचलेनि=उगा लहान

वरी भीमसेन बेथु | तो जाहला असे सेनानाथु।
ऐसें बोलोनि हे मातु | सांडिली असे ॥ १२०॥
बेथु=दांडगा मातु=गोष्ट
         अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
         भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११॥

मग पुनरपि काय बोले | सकळ सैनिकांते म्हणितलें।
आता दळभार आपुलाले | सरसे करा ॥ १२१॥

जिया जिया अक्षौहिणी | तिये तिये आरणी।
वरगण कवणकवणी | महारथिया ॥ १२२॥
आरणी= रणभूमी  वरगण=वाटणी

तेणे तिया आवरिजे | भीष्मातळीं राहिजे।
द्रोणाते म्हणिजे | तुम्हीं सकळ ॥ १२३॥

हाचि एकु रक्षावा | मी तैसा हा देखावा।
येणें दळभारु आघवा | साचु आमुचा॥ १२४॥
साचु=समर्थ

       तस्य सनरयन् हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
       सिंहनादं विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२॥

या राजाचिया बोला | सेनापति संतोषला।
मग तेणे केला | सिंहनादु ॥ १२५॥

तो गाजत असे अद्भुतु | दोन्ही सैन्यांआंतु।
प्रतिध्वनि न समातु | उपजत असे ॥ १२६॥
समातु-थांबणे

तयाचि तुलगासवे | वीरवृत्तिचेनि थावें।
दिव्य शंख भीष्मदेवें | आस्फुरिला ॥ १२७॥
तुलग= आवाज ध्वनी  

ते दोन्ही नाद मिनले | तेथ त्रैलोक्य बधीरभूत जाहलें।
जैसें आकाश कां पडिलें | तुटोनियां ॥ १२८॥

घडघडीत अंबर | उचंबळत सागर।
क्षोभलें चराचर | कांपत असे ॥ १२९॥

तेणें महाघोषगजरें | दुमदुमताती गिरिकंदरें।
तंव दळामाजि रणतुरें | आस्फुरिलीं ॥१३०॥

        ततः शंखाश्च भैर्यश्च पणवानकगोमुखः।
        सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१३॥

उदंड सैंघ वाजतें | भयानकें खाखाते।
महाप्रळयो जेथें | धाकडांसी ॥ १३१ ॥
सैंघ =जिकडेतिकडे खाखाते=कर्कश
धाकडांसी=धीराचे 

भेरी निशाण मांदळ | शंख काहळा भोंगळ।
आणि भयासुर रणकोल्हाळ | सुभटांचे ॥ १३२॥
कोल्हाळ=गोंधळ,प्रचंड आवाज
 
आवेशें भुजा त्राहाटिती | विसणैले हांका देती।
जेथ महामद भद्रजाती | आवरती ना ॥ १३३॥
त्राहाटिती=थोपाटती विसणैले=युध्दमद चढलेले चिडलेले
 
तेथ भेडांची कवण मातु | कांचया केर फिटतु।
जेणें दचकला कृतांतु | आंग नेघे ॥ १३४॥
कांचया=कच्चे ,केर फिटतु=कस्पटागत उडती
आंग नेघे =सावरता न येणे

एकां उभयाचि प्राण गेले | चांगांचे दांत बैसले।
बिरुदांचे दादुले | हिंवताती ॥ १३५॥
चांगांचे=चांगले धीराचे  बिरुदांचे =प्रतिष्ठा असलेले  

दादुले=वीर
 
ऐसा अद्भुत तूरबंबाळु | ऐकोनि ब्रह्मा व्याकुळु।
देव म्हणती प्रळयकाळु | ओढवला आजि ॥ १३६॥
तूरबंबाळु =वाद्याचा आवाज

ऐसी स्वर्गीं मातु | देखोनि तो आकांतु।
तंव पांडवदळा आंतु | वर्तलें कायी ॥ १३७॥
मातु=हकीकत गोष्ट

हो कां निजसार विजयाचे | कीं ते भांडार महातेजाचे।
जेथ गरुडाचिचे जावळिये | कांतले चार्ही ॥ १३८॥
जावळिये = सारखे . कांतले चार्ही=जुंपलेले चार


        ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
        माधवः पांडवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥ १४॥

की पाखांचा मेरु जैसा | रहंवरु मिरवितसे तैसा।
तेजें कोंदटलिया दिशा जयाचेनि ॥१३९॥
रहंवरु=रथ
जेथ अश्ववाहकु आपण | वैकुंठीचा राणा जाण।
तया रथाचे गुण | काय वर्णूं ॥ १४०॥

ध्वजस्तंभावरी वानरु | तो मूर्तिमंत शंकरु।
सारथी शारङधरु | अर्जुनेसीं ॥ १४१॥

देखा नवल तया प्रभूचें | प्रेम अद्भुत भक्तांचे।
जे सारथ्य पार्थाचें | करीतु असे ॥ १४२॥

पाईकु पाठीसीं घातला | आपण पुढां राहिला।
तेणें पांचजन्यु आस्फुरिला | अवलीळाचि।। १४३॥

        पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
        पौंड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५॥

परी तो महाघोषु थोरु | गाजत असे गंहिरु।
जैसा उदैला लोपि दिनकरु | नक्षत्रांते ॥ १४४॥

तैसें तुरबंबाळु भंवते | कौरवदळी गाजत होते।
ते हारपोनि नेणों केऊते | गेले तेथ ॥ १४५॥

तैसाचि देखे येरें | निनादें अति गंहिरे।
देवदत्त धनुर्धरे | आस्फुरिला ॥ १४६॥

ते दोनी शब्द अचाट | मिनले एकवट।
तेथ ब्रह्मकटाह शतकूट | हों पाहत असे ॥ १४७॥
ब्रह्मकटाह=ब्रह्मांड (कढई) 

तंव भीमसेनु विसणैला | जैसा महाकाळु खवळला।
तेणें पौंड्र आस्फुरिला | महाशंखु ॥ १४८॥
विसणैला=आवेशात आलेला चिडलेला 

         अनंतविजयं राजा कुंतीपुत्रो युधिष्ठिरः।
         नकुलः सहदेवश्चं सुघोष्मणिपुष्पकौ ॥ १६॥

तो महाप्रलयजलधरु | जैसा घडघडिला गंहिरु।
तंव अनंतविजयो युधिष्ठिरु | आस्फुरित असे ॥ १४९॥

नकुळें सुघोषु | सहदेवे मणिपुष्पकु।
जेणें नादें अतंकु | गजबजला असे ॥ १५०॥
अतंकु =यम

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