Wednesday, March 16, 2016

ज्ञानेश्वरी / अध्याय १ ओव्या १५१ ते २o६


        काश्यश्च परमेश्वासः शिखंडी च महारथः।
        दृष्टद्युम्नो विराटश्च सातकिश्चापराजितः ॥ १७॥

        द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वेशः पृथिवीपते।
        सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान् दध्मुः पृथक् पृथक् ॥ १८॥

तेथ भूपती होते अनेक | द्रुपद द्रौपदेयादिक।
हा काशीपती देख | महाबाहु ॥ १५१॥
भूपती=राजे . द्रौपदेयादिक= द्रौपदीचे पुत्र


तेथ अर्जुनाचा सुतु | सात्यकि अपराजितु।
दृष्टद्युम्नु नृपनाथु | शिखंडी हन ॥ १५२॥
हन=आणि 
विराटादि नृपवर | जे सैनिक मुख्य वीर |
तिहीं नाना शंख निरंतर | आस्फुरिले ॥ १५३॥

तेणें महाघोषनिर्घातें | शेषकूर्म अवचिते।
गजबजोनि भूभारातें | सांडूं पाहती ॥ १५४॥
निर्घातें=आघाते  गजबजोनि=दचकून

तेथ तिन्हीं लोक डंडळित | मेरु मांदार आंदोळित।
समुद्रजळ उसळत | कैलासवेरी ॥ १५५॥

         स घोषो धार्त्रराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
         नभश्च पृथिवींश्चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १९॥

पृथ्वीतळ उलथों पाहत | आकाश असे आसुडत।
तेथ सडा होत  | नक्षत्रांचा।। १५६॥

सृष्टि गेली रे गेली ॥ देवां मोकळवादी जाहली।
ऐशी एक टाळी पिटिली | सत्यलोकीं | १५७ ॥
मोकळवादी=निराश टाळी पिटिली=वार्ता पसरली

दिहाचि दिन थोकला | जैसा प्रलयकाळ मांडला।
तैसा हाहाकारु उठिला | तिन्हीं लोकीं ॥ १५८॥
दिहाचि= दिवसा  थोकला=थांबला

तंव आदिपुरुषु विस्मितु | म्हणे झणें होय पां अंतु।
मग लोपला अद्भुतु | संभ्रमु तो ॥ १५९॥
झणें=कदाचित,  
म्हणोनि विश्व सांवरले | ऱ्हवी युगांत होतें वोडवले।
जै महाशंख आस्फुरिले | कृष्णादिकीं ॥ १६०॥

तो घोष तरी उपसंहरला | परी पडिसाद होता राहिला ॥
तेणें दळभार विध्वंसिला | कौरवांचा ॥ १६१॥

तो जैसा गजघटाआंतु | सिंह लीला विदारितु।
तैसा हृदयातें भेदितु | कौरवांचिया ॥ १६२॥
गजघटाआंतु=हत्तीचा कळप

तो गाजत जंव आइकती | तंव उभेचि हिये घालिती।
एकमेकांते म्हणती | सावध रे सावध ॥ १६३॥
हिये घालिती=हृदयाचा ठाव सोडत

         अथ व्यवस्थितान् दृष्टवा धार्तराष्ट्रानं कपिध्वजः।
         प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पांडवः ॥ २०॥

तेथ बळें प्रौढीपुरते | जे महारथी वीर होते।
तिहीं पुनरपि दळातें | आवरिलें ॥ १६४॥
बळें=बलवान  प्रौढीपुरते=अनुभवी

मग सरिसपणें उठावले | दुणावटोनि उचलले।
तया दंडी क्षोभलें | लोकत्रय ॥ १६५॥
दुणावटोनि=दुप्पटीने  उचलले=उसळले

तेथ बाणवरी धनुर्धर | वर्षताती निरंतर।
जैसे प्रलयांत जलधर | अनिवार का ॥ १६६॥
जलधर=मेघ

तें देखलिया अर्जुनें | संतोष घेऊनि मने।
मग संभ्रमे दिठी सेने | घालितसे ॥ १६७॥

तंव संग्रामीं सज्ज जाहले | सकळ कौरव देखिले।
मग लीला धनुष्य उचलिले | पंडुकुमरें ॥ १६८॥

          हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
          अर्जुन उवाच - सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१।

ते वेळीं अर्जुन म्हणतसे देवा | आतां झडकरी रथु पेलावा।
नेऊनि मध्यें घालावा | दोहीं दळां ॥ १६९॥

         यावदेतान् निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
         कैर्मया सह योद्धव्यस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२॥

         योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागतः।
         धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकिर्षवः ॥ २३॥

जंव मी नावेक | हे सकळ वीर सैनिक।
न्याहळीन अशेख | झुंजते जे ॥ १७०॥
नावेक=क्षणभर  अशेख=सारे

एथ आले असती आघवे | परी कवणेंसी म्यां झुंजावे।
हे रणीं लागे पहावें | म्हणऊनियां ॥ १७१॥

बहुतकरुनि कौरव | हे आतुर दुःस्वभाव।
वाटिवांवीण हांव | बांधिती झुंजीं ॥ १७२॥
वाटिवांवीण=पुरुषार्थ .पराक्रम

झुंजाची आवडी धरती | परी संग्रामी धीर नव्हती।
हे सांगोनि रायाप्रती | काय संजयो म्हणे | १७३॥

                संजय उवाच: एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
                सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४॥

आइका अर्जुन इतुकें बोलिला | तंव कृष्णें रथु पेलिला।
दोहीं सैन्यामाजि केला | उभा तेणें ॥ १७४॥


        भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
        उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनिति ॥ २५॥

        तत्रापश्यत् स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
        आचार्यान् मातुलान् भ्रातृन् पुत्रान् पौत्रान् सखींस्थता ॥ २६॥

        श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
        तान् समीक्ष स कौंतेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥ २७॥

जेथ भीष्माद्रोणादिक | जवळिकेचि सन्मुख।
पृथिवीपति आणिक | बहुत आहाति ॥ १७५॥
सन्मुख=समोर

तेथ स्थिर करूनि रथु | अर्जुन असे पाहतु।
तो दळभार समस्तु | संभ्रमेसी ॥ १७६॥

मग देवा म्हणे देख देख | हे गोत्रगुरु अशेख।
तंव कृष्णा मनीं नावेक | विस्मो जाहला ॥ १७७॥

तो आपणयां आपण म्हणे | एथ कायि कवण जाणे।
हें मनीं धरिले येणें | परि कांही आश्चर्य असे ॥ १७८॥

ऐसी पुढील से घेतु | तो सहजें जाणे हृदयस्थु।
परि उगा असे निवांतु | तिये वेळीं ॥ १७९॥
से घेतु=अनुमान (भविष्यातील होणारे जाणणे )

तंव तेथ पार्थु सकळ | पितृपितामह केवळ।
गुरू बंधु मातुळ | देखता जाहला ॥ १८०॥
मातुळ=मामा

इष्टमित्र आपुले | कुमरजन देखिले।
हे सकळ असती आले | तयांमाजि ॥ १८१॥

सुहृज्जन सासरे | आणिकही सखे सोईरे।
कुमर पौत्र धनुर्धरें | देखिले तेथ ॥ १८२॥
सुहृज्जन=सुह्र्द

जयां उपकार होते केले | कां आपदीं जे राखिले।
हे असो वडील धाकुले - | आदिकरुनि ॥ १८३॥

ऐसे गोत्रचि दोहीं दळीं | उदित जालें असे कळीं।
हें अर्जुने तिये वेळीं | अवलोकिलें ॥ १८४॥
कळीं=भांडण युद्ध

        कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदन्नमब्रवीत।

तेथ मनीं गजबज जाहली | आणि आपैसी कृपा आली।
तेणें अपमानें निघाली | वीरवृत्ति ॥ १८५ ॥
गजबज = अस्वस्थ ,गडबड  आपैसी=आपोआप सहज

जिया उत्तम कुळींचिया होती | आणि गुणलावण्य आथी।
तिया आणिकींते न साहति | सुतेजपणें ॥ १८६॥
आणिकींते=दुसरीस  सुतेजपणें=अभिमाने
 
नविये आवडीचेनि भरें | कामुक निजवनिता विसरे।
मग पाडेंविण अनुसरें | भ्रमला जैसा ॥ १८७॥
निजवनिता=स्व पत्नी  पाडेंविण=योग्यतेविना

कीं तपोबळें ऋद्धी | पातलिया भ्रंशे बुद्धी।
मग तया विरक्तता सिद्धी | आठवेना॥ १८८॥

तैसें अर्जुना तेथ जाहले | असतें पुरुषत्व गेले।
जें अंतःकरण दिधले | कारुण्यासी ॥ १८९॥

देखा मंत्रज्ञु बरळु जाये | मग तेथ कां जैसा संचारु होये।
तैसा तो धनुर्धर महामोहें | आकळिला ॥ १९०॥
बरळु=काहीही बडबडणे

म्हणऊनि असता धीरु गेला | हृदया द्रावो आला।
जैसा चंद्रकळीं सिंपिला | सोमकांतु ॥ १९१॥
द्रावो=दया ,द्रवणे

तयापरी पार्थु | अतिस्नेहें मोहितु।
मग सखेद असे बोलतु | अच्युतेसी ॥ १९२॥

        दृष्ट्वेनं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थिताम्।।२८॥

        सीदन्ती मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
        वेपथुश्च शरीरे मे रोमाहर्षश्च जायते ॥ २९॥

        गांडीवम् स्त्रंसते हस्तात् त्वक् चैव परिदह्यते।
        न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ ३०॥

तो म्हणे अवधारी देवा | म्यां पाहिला हा मेळावा।
तंव गोत्रवर्गु आघवा | देखिला एथ ॥ १९३॥

हे संग्रामीं अति उदि | जाहाले असती कीर समस्त।
पण आपणपेयां उचित | केवीं होय ॥ १९४॥
दि= सज्ज ,उत्सुक

येणें नांवेंचिं नेणों कायी | मज आपणपें सर्वथा नाहीं।
मन बुद्धी ठायीं | स्थिर नोहे ॥ १९५ ॥
नांवेंचिं=नावानेच (युद्धाच्या कल्पनेने काही सुचत नाही )
आपणपें=स्वतःचे भान
 
देखें देह कांपत | तोंड असे कोरडें होत।
विकळता उपजत | गात्रांसी ॥ १९६ ॥

सर्वांगा कांटाळा आला | अति संतापु उपनला।
तेथ बेंबळे हातु गेला | गांडीवाचा ॥ १९७ ॥
कांटाळा=काटा  बेंबळ=ढिला

तें न धरताचि निष्टलें | परि नेणेंचि हातोनि पडिले।
ऐसे हृदय असे व्यापिलें | मोहें येणें ॥ १९८ ॥
निष्टलें=निसटले

जें वज्रापासोनि कठिण | दुर्धर अतिदारुण।
तयाहून असाधारण | हें स्नेह नवल ॥ १९९ ॥
 
जेणे संग्रामी हरू जिंतिला | निवातकवचांचा ठावो फेडिला।
तो अर्जुन मोहें कवळिला | क्षणामाजि ॥ २०० ॥
हरू=शंकर  निवातकवचांचा= या राक्षसांचा

जैसा भ्रमर भेदी कोडें | भलतैसें काष्ठ कोरडें।
परि कळिकेमाजीं सापडें | कोवळियें ॥ २०१ ॥
कोडें =सहज कौतुके

तेथ उत्तीर्ण होईल प्राणें | परीं ते कमळदळु चिरूं नेणे।
तैसे कठीण कोवळेंपणे | स्नेह देखा ॥ २०२ ॥

हे आदिपुरुषाची माया | ब्रह्मेयाहि नयेचि आया।
म्हणऊनी भुलविला ऐकें राया | संजयो म्हणे ॥ २०३ ॥
आया= ध्यानात

अवधारीं मग तो अर्जुनु।देखोनि सकळ स्वजनु।
विसरला अभिमानु | संग्रामींचा ॥ २०४ ॥

कैसी नेणों सदयता | उपनली येथे चित्ता।
मग म्हणे कृष्णा आता | नसिजे एथ ॥ २०५ ॥

माझें अतिशय मन व्याकुळ | होतसे वाचा बरळ।
जे वधावे हे सकळ | येणें नांवे ॥ २०६ ॥



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