Sunday, March 20, 2016

ज्ञानेश्वरी .अध्याय 2 / ओव्या १९१ ते २७७ / संत ज्ञानेश्वर,

     

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृत्तम्।
     सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभंते युद्धमीदृशम् ॥ ३२ ॥

अर्जुना झुंज देखें आतांचें | हें हो काय दैव तुमचे।
कीं निधान सकळ धर्माचें | प्रगटले असे ॥ १९१ ॥

दैव =सुदैव निधान-गुप्त धन ,

हा संग्रामु काय म्हणिपे | कीं स्वर्गुचि येणें रूपें।
मूर्त कां प्रतापे | उदो केला ॥ १९२ ॥

उदो=उगवला

ना तरी गुणाचेनि पतिकरें | आर्तिंचेनि पडिभरें।
हें कीर्तीचि स्वयंवरे | आली तुज ॥ १९३ ॥

पतिकरें =अनुभवे .पडिभरें=तीव्रता   

क्षत्रियें बहुत पुण्य कीजे | तें झुंज ऐसें हें लाहिजे।
जैसें मार्गें जातां आडळिजे | चिंतामणीसी ॥ १९४ ॥

लाहिजे =मिळणे आडळिजे=आढळणे ,सापडणे

ना तरी जांभया पसरे मुख | तेथ अवचटें पडे पीयूख।
तैसा संग्रामु हा देख | पातला असे ॥ १९५ ॥

पीयूख=अमृत 

     अथ चेत् त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
     ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्यसिं ॥ ३३ ॥

आतां हा ऐसा अव्हेरिजे | मग नाथिले शोचूं बैसिजे।
तरी आपण आहाणा होईजे | आपणपेयां ॥ १९६ ॥

आहाणा=हानीकारक  घातक 

पूर्वजांचे जोडलें | आपणचि होय धाडिलें।
जरी आजि शस्त्र सांडिले | रणीं इये ॥ १९७ ॥

धाडिलें=परत पाठवले,नाकारले

असती कीर्ति जाईल | जग अभिशापु देईल।
आणि गिंवसित पावतील | महादोष ॥ १९८ ॥

अभिशापु=नावे ठेवणे गिंवसित=शोधत

जैसी भ्रतारेहीन वनिता | उपहृती पावे सर्वथा।
तैशी दशा जीविता | स्वधर्मेंवीण ॥ १९९ ॥

भ्रतार=पती वनिता=पत्नी उपहृती=अनादर

ना तरी रणीं शव सांडिजे | तें चौमेरीं गिधीं विदारिजे।
तैसे स्वधर्महीन अभिभविजे | महादोषी ॥ २०० ॥

चौमेरीं=चोहीकडून  गिधीं=गिधाडे अभिभविजे=घेरणे व्यापणे

     अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यंति तेऽव्याम्।
     संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥

म्हणोनि स्वधर्म हा सांडसील | तरी पापा वरपडा होसील।
आणि अपेश तें न वचेल | कल्पांतावरी ॥ २०१ ॥

वरपडा=प्राप्त  अपेश=अपयश. कल्पांतावरी=कल्पांतापर्यंत

जाणतेनि तंवचि जियावे | जंव अपकीर्ति आंगा न पवे।
आणि सांग पां केवी निगावें | एथोनियां ॥ २०२ ॥

तूं निर्मत्सरु सदयता | येथूनि निघसी कीर माघौता।
परी ते गति समस्तां | न मनेल ययां ॥ २०३ ॥

कीर=खरंच गति=स्थिती

हें चहूंकडून वेढितील | बाणवरी घेतील।
तेथ पार्था न सुटिजेल | कृपाळुपणे ॥ २०४ ॥

ऐसेनिही प्राण्संकटे | जरी विपायें पां निघणें घटे।
तरी तें जियालेंही वोखटें | मरणाहुनी ॥ २०५ ॥

घटे=घडे

     भयाद् रणादुपरं मंस्यते त्वां महारथाः।
     येषां त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ ३५ ॥

तूं आणिकही एक न विचारिसी | एथ संभ्रमे झुंजो आलासी।
आणि सकणवपणे निघालासी | मागुता जरी ॥ २०६ ॥

विचारिसी=विचार करशी सकणवपणे=दयाळूपणे

तरी तुझें तें अर्जुना | या वैरियां दुर्जनां
कां प्रत्यया येईल मना | सांगे मज ॥ २०६ ॥

     अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यंति तवाहिताः।
     निंदंतस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३६ ॥

हे म्हणतील गेला रे गेला | अर्जुन आम्हां बिहाला।
हा सांगें बोलु उरला | निका कायी ॥ २०८ ॥

बिहाला=भ्याला

लोक सायासें करूनि बहुतें | कां वेंचिती आपुली जीवितें।
परी वाढविती कीर्तीतें | धनुर्धरा ॥ २०९ ॥

सायासें=यत्न

ते तुज अनायसें | अनकळित जोडिली असे।
हें अद्वितीय जैसें | गगन आहे ॥ २१० ॥

अनायसें =सहज अनकळित=संपूर्ण

तैसी कीर्ती निःसीम | तुझां ठायीं निरुपम।
तुझे गुण उत्तम | तिहीं लोकीं ॥ २११॥

निःसीम =खरी, सीमा नसलेली, निरुपम=अनुपमेय

दिगंतीचे भूपति | भाट होऊनि वाखाणिती।
जे ऐकिलिया दचकती | कृतांतादिक ॥ २१२ ॥

दिगंतीचे भाट=शाहीर कृतांत=यम

ऐसा महिमा घनवट | गंगा तैसी चोखट।
जयां देखी जगीं सुभट | वा जाहली ॥ २१३ ॥

घनवट=भरीव ठोस थोर   सुभट =वीरांना   वाट=मार्ग

ते पौरुष तुझें अद्भुत | आइकोनियां हे समस्त।
जाहले आथि विरक्त | जीवितेंसी ॥ २१४ ॥

आथि=इथे

जैसा सिंहाचिया हांका | युगांतु होय मदमुखा।
तैसा कौरवां अशेखां | धाकु तुझा॥ २१५ ॥

मदमुखा=हत्ती

जैसे पर्वत वज्रांते | ना तरी सर्प गरुडातें।
तैसा अर्जुना हे तूंते | मानिती सदा ॥ २१६ ॥

ते अगाधपण जाईल | मग हिणावो अंगा येईल।
जरी मागुता निघसील | न झुंजतचि ॥ २१७ ॥

अगाधपण=मोठेपण कीर्ती  हिणावो=कमीपणा

आणि हे पळतां पळों नेदिती | धरूनि अवकळा करिती।
न गणित कुटी बोलती | आइकतां तुज ॥ २१८ ॥

अवकळा=अपमान कुटी=कडवट,वाईट अपमानकारक  

मग ते वेळी हियें फुटावें | आंता लाठेपणे कां न झुंजावे।
हें जिंतले तरी भोगावें | पृथ्वीतल ॥ २१९ ॥

हियें=हृदय लाठेपणे=शर्थीने पराक्रमाने

     हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्षसे महीम्।
     तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥

ना तरी रणीं एथ | झुंजतां वेंचलें जीवित।
तरी स्वर्गसुख अनकळित | पावसील ॥ २२० ॥

अनकळित=सहज

म्हणोनि ये गोठी | विचारु न करीं किरिटी।
आतां धनुष्य घेऊनि उठी | झुंजें वेगीं ॥ २२१ ॥

देखें स्वधर्मु हा आचरतां | दोषु नासे असता।
तुज भ्रांति हे कवण चित्ता | एथ पातकाची ॥ २२२ ॥

सांगे प्लवेंचि काय बुडिजे | कां मार्गीं जातां आडळिजे।
परी विपायें चालो नेणिजे | तरी तेंही घडे ॥ २२३ ॥

प्लवेंचि=नाव विपायें=चुकून

अमृतें तरीचि मरीजे | जरी विखेंसी सेवीजे।
तैसा स्वधर्में दोषु पाविजे | हेतुकपणे ॥ २२४ ॥

अमृतें=दुध विखेंसी=विष

म्हणोनि तुज पार्था | हेतु सांडोनि सर्वथा।
क्षात्रवृत्ती झुंजतां | पाप नाही ॥ २२५ ॥

     सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
     ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥

सुखीं संतोषा न यावे | दुःखी विषादा न भजावें।
आणि लाभालाभ न धरावे | मनामाजीं ॥ २२६ ॥

एथ विजयपण होईल | कां सर्वथा देह जाईल।
हें आधींचि कांही पुढील | चिंतावेना ॥ २२७ ॥

आधींचि=अगोदरच

आपणयां उचिता | स्वधर्मातेंचि रहाटतां।
जे पावें तें निवांता | साहोनि जावें ॥ २२८ ॥

रहाटतां=वागता जीवन जगता निवांता=शांतपणे

ऐसेया मनें होआवें | तरी दोषु न घडे स्वभावें।
म्हणोनि आतां झुंजावें | निभ्रांत तुवां ॥ २२९ ॥

     एषाऽतेभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
     बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबंधं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥

हे सांख्यस्थिति मुकुळि | सांगितली तुज एथ।
आतां बुद्धियोगु निश्चित | अवधारीं पां ॥ २३० ॥

मुकुळि=थोडक्यात

जया बुद्धियुक्ता | आहालिया पार्था।
कर्मबंधु सर्वथा | बांधू न पावे ॥ २३१ ॥

जैसे वज्रकवच लेईजे | मग शस्त्रांचा वर्षावो साहिजे।
परी जैतेंसी उरिजे | अचुंबिता ॥ २३२ ॥

जैतेंसी=जीत होवून, विजयी

     नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
     स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥

तैसें ऐहिक तरी न नशे | आणि मोक्षु तो उरला असे।
जेथ पूर्वानुक्रम दिसे | चोखाळत ॥ २३३ ॥

पूर्वानुक्रम=पूर्वापार चाललेले

कर्माधारे राहाटिजे | परी कर्मफळ न निरीक्षिजे।
जैसा मंत्रज्ञु न बधिजे | भूतबाधा ॥ २३४ ॥

निरीक्षिजे=पाहणे ध्यान देणे

तियापरी जे सुबुद्धि | आपुलाल्या निरवधि।
हां असतांचि उपाधि | आंकळू न सके ॥ २३५ ॥

आपुलाल्या =प्राप्त केल्यावर निरवधि=पूर्णपणे
हां= हा योग उपाधि=देह जन्म रुपी दु:ख

जेथ न संचरे पुण्यपाप | जे सूक्ष्म अति निष्कंप।
गुणत्रयादि लेप | न लगती जेथ ॥ २३६ ॥

अर्जुना ते पुण्यवशें | जरी अल्पचि हृदयीं बुद्धि प्रकाशे।
तरी अशेषही नाशे | संसारभय ॥ २३७ ॥

     व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
     बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवस्थिताम् ॥ ४१ ॥

जैसी दीपकळिका धाकुटी | परी बहु तेजातें प्रगटी।
तरी सद्बुद्धि हे थेकुटी | म्हणों नये ॥ २३८ ॥

धाकुटी =छोटी ,इवली .थेकुटी=लहान

पार्था बहुतीं परी | हे अपेक्षिजे विचारशूरी।
जे दुर्लभ चराचरीं | सद्वासना ॥ २३९ ॥

विचारशूरी=शहाणे विचारवंत

आणिकासारिखा बहुवसु | जैसा न जोडे परिसु।
कां अमृताचा लेशु | दैवगुणें ॥ २४० ॥

बहुवसु=भरपूर प्रमाणात लेशु=थेंब

तैसी दुर्लभ जे सद्बुद्धि | जिये परमात्माचि अवधि।
जैसा गंगेसी उदधि | निरंतर ॥ २४१ ॥

अवधि=सीमा शेवट उदधि=समुद्र

तैसी ईश्वरावांचूनि कांही | जिये आणिक लाणी नाहीं।
ते एकचि बुद्धि पाहीं | अर्जुना जगीं ॥ २४२ ॥

लाणी= आश्रय

येरी ते दुर्मति | जे बहुधा असे विकरती।
तेथ निरंतर रमती | अविवेकिये ॥ २४३ ॥

विकरती=विकृत 

म्हणोनि तया पार्था | स्वर्ग संसार नरकावस्था।
आत्मसुख सर्वथा | दृष्ट नाहीं ॥ २४४ ॥

     यामिनां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
     वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ ४२ ॥

वेदाधारें बोलती | केवळ कर्म प्रतिष्ठिती।
परी कर्मफळीं आसक्ती | धरूनियां ॥ २४५ ॥

म्हणती संसारी जन्मिजे | यज्ञादि कर्म कीजें।
मग स्वर्गसुख भोगिजे | मनोहर ॥ २४६ ॥

एथ हें वांचूनि कांही | आणिक सर्वथा सुखचि नाही।
ऐसें अर्जुना बोलती पाहीं | दुर्बुद्धि ते ॥ २४७ ॥

     कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
     क्रियाविषेश्बहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥

देखें कामना अभिभूत | होऊनि कर्में आचरत।
ते केवळ भोगीं चित्त | देऊनियां ॥ २४८ ॥

अभिभूत=व्यापून

क्रियाविशेषें बहुतें | न लोपितीं विधीतें।
निपुण होऊनि धर्मातें | अनुष्ठिती ॥ २४९ ॥

     भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
     व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥

परि एकचि कुडें करिती | जे स्वर्गकामु मनीं धरिती।
यज्ञपुरुषा चुकती | भोक्ता जो ॥ २५० ॥

कुडें=वाईट चुकीचे

जैसा कर्पुराचा राशि कीजे | मग अग्नि लाऊनि दीजे।
कां मिष्टानीं संचरविजे | काळकूट ॥ २५१ ॥

दैवें अमृतकुंभ जोडला | तो पायें हाणोनि उलंडिला।
तैसा नासिती धर्म निपजला | हेतुकपणें ॥ २५२ ॥

सायासें पुण्य अर्जिजे | मग संसारु का अपेक्षिजे।
परी नेणती ते काय कीजे | अप्राप् देखें ॥ २५३ ॥

जैसे रांधवणी रससोय निकी | करुनियां मोले विकी।
तैसा भोगासाठी अविवेकी | धाडिती धर्मु ॥ २५४ ॥

रांधवणी-जेवण बनवून निकी=सुंदर चांगला

म्हणोनि हे पार्था | दुर्बुद्धि देख सर्वथा।
तयां वेदवादरतां | मनीं वसे ॥ २५५ ॥

वेदवादरतां=वेदांच्या अर्थवादात मग्न लोक

     त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
     निर्द्वंद्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ ४५ ॥

तिन्हीं गुणीं आवृत्त | हे वेद जाणे निभ्रांत।
म्हणोनि उपनिषदादि समस्त | सात्विक ते ॥ २५६ ॥

आवृत्त=व्याप्त  निभ्रांत=निश्चित

येर रजतमात्मक | जेथ निरुपिजे कर्मादिक।
जे केवळ स्वर्गसूचक | धनुर्धरा ॥ २५७ ॥

म्हणोनि तूं जाण | हे सुखदुःखासीच कारण।
एथ झणे अंतःकरण | रिगों देसी ॥ २५८ ॥

तूं गुणत्रयातें अव्हेरीं | मी माझें हें न करीं।
एक आत्मसुख अंतरी | विसंब झणीं ॥ २५९ ॥

झणीं=लगेच ताबडतोब

     यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
     तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥

जरी वेदें बहुत बोललें | विविध भेद सूचिले।
तऱ्ही आपण हित आपुलें | तेंचि घेपे ॥ २६० ॥

घेपे=घेणे 

जैसा प्रगटलिया गभस्ती | अशेषही मार्ग दिसती।
तरी तेतुलेही काय चालिजती | सांगे मज ॥ २६१ ॥

गभस्ती=सूर्य अशेषही=सर्व

का उदकमय सकळ | जऱ्ही  जाहलें असे महीतळ।
तरी आपण घेपे केवळ | आर्तीचजोगें ॥ २६२ ॥

महीतळ=पृथ्वी आर्ती=तहान  

तैसे ज्ञानिये जे होती | ते वेदार्थाते विवरिती।
मग अपेक्षित तें स्वीकारिती | शाश्वत जें ॥ २६३ ॥

विवरिती=विवरण करतात अभ्यासतात

     कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
     मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥

म्हणौनि आइकें पार्था | याचिवरी पाहतां।
तुज उचित होय आतां | स्वकर्म हें ॥ २६४ ॥

आम्हीं समस्तही विचारिलें | तंव ऐसेंचि हें मना आलें।
जे न संडिजे तुवा आपुलें | विहित कर्म ॥ २६५ ॥

परी कर्मफळीं आस न करावी | आणि कुकर्मी संगति न व्हावी।
हे सत्क्रियाचि आचरावी | हेतूविण ॥ २६६ ॥

     योगस्थ कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
     सिद्ध्यसिद्ध्यो समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥

तूं योगयुक्त होऊनी | फळाचा संग सांडुनी।
मग अर्जुना चित्त देऊनी | करीं कर्में ॥ २६७ ॥

परी आदरिले कर्म दैवें | जरी समाप्तीतें पावे।
तरी विशेषें तेथ तोषावें | हेही नको ॥ २६८ ॥

आदरिले=आरंभिले तोषावें=खुश व्हावे

कां निमित्तें कोणे एकें | तें सिद्धी न वचतां ठाकें।
तरी तेथिंचेनि अपरितोखें | क्षोभावें ना ॥ २६९ ॥

अपरितोखें=असंतोष 
सिद्धी न वचता=पूर्ण न  होवून क्षोभावें=दु:खी होणे रागावणे

आचरता सिद्धी गेलें | तरी काजाचि कीर आलें।
परी ठेलियाही सगुण जहालें | ऐसेंचि मानीं ॥ २७० ॥

काजाची= कामाला. कीर=खरोखर. ठेलियाही=तसेच राहिले.
सगुण=चांगलेच

देखें जेतुलालें कर्म निपजे | तेतुलें आदिपुरुषीं जरी अर्पिजे।
तरी परीपूर्ण सहजें | जहालें जाणे ॥ २७१ ॥

देखें संतासंती कर्मीं | हें जे सरिसेपण मनोधर्मीं।
तेचि योगस्थिति उत्तमीं | प्रशंसिजे ॥ २७२ ॥

संतासंती=चांगले-वाईट

     दूरेण ह्यत्वरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
     बुद्धौ शरणमन्विछ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥

     बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत्दुष्कृते।
     तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलं ॥ ५० ॥

अर्जुना समत्व चित्ताचें | तेचिं सार जाण योगाचें।
जेथ मना आणि बुद्धीचें | ऐक्य आथी ॥ २७३ ॥

तो बुद्धियोग विवरितां | बहुतें पाडे पार्था।
दिसे हा अरुता | कर्मभागु ॥ २७४ ॥

पाडे=तुलनेने अरुता=कमी प्रतीचा

परि तेंचि कर्म आचरिजे | तरीच हा योगु पाविजे।
जें कर्मशेष सहजे | योगस्थिति ॥ २७५ ॥

कर्मशेष =कर्मातून कर्मफळ कर्तृत्वमद वजा करून राहिलेले कर्म

म्हणोनि बुद्धियोगु सधरु | तेथ अर्जुना होई स्थिरु।
मनिं करी अव्हेरु | फळहेतूचा ॥ २७६ ॥

जे बुद्धियोगा योजिले | तेचि पारंगत जाहले।
इहीं उभय संबंधी सांडिले | पापपुण्यीं ॥ २७७ ॥


पारंगत=तज्ञ 

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