Thursday, March 17, 2016

ज्ञानेश्वरी अध्याय १,ओव्या २०७ ते २७५ (संपूर्ण )

     
 
ओव्या २०७ ते २७५ 

निमितानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
         न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥

या कौरवां जरी वधावें | तरी युधिष्ठिरादिक कां न वधावे।
हे येर येर आघवे | गोत्रज आमुचे ॥ २०७ ॥

म्हणोनि जळो हें झुंज | प्रत्यया न ये मज।
एणें काय काज | महापापें ॥ २०८ ॥

देवा बहुतं परीं पाहता | एथ वोखटें होईल झुंजतां।
वर काहीं चुकवितां | लाभु आथी ॥ २०९ ॥

वोखटें=वाईट

         न काङक्षे विजयं कृष्ण न च राज्य सुखानि च।
         किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥

         येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
         ते इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥

तया विजयवृत्ती कांही | मज सर्वथा काज नाहीं।
एथ राज्य तरी कायी | हें पाहुनियां ॥ २१० ॥

काज= कामाचे 

यां सकळांते वधावे | मग जे भोग भोगावे।
ते जळोत आघवे | पार्थु म्हणे ॥ २११ ॥

तेणें सुखेविण होईल | तै भलतेही साहिजेल।
वरि जीवितही वेंचिजेल | याचिलागीं ॥ २१२ ॥

परीं यासी घातु कीजे | मग आपण राज्य भोगिजे।
हे स्वप्नींही मन माझे | करूं न शके ॥ २१३ ॥

तरी आम्ही का जन्मावें | कवणालागीं जियावें।
जें वडिलां यां चिंतावें | विरुद्ध मनें ॥ २१४ ॥

पुत्रातें इप्सी कुळ | तयाचें कायि हेंचि फळ।
जे निर्दाळिजे केवळ | गोत्र आपुले ॥ २१५ ॥

इप्सी =इच्छा धरी निर्दाळिजे= नष्ट करणे  

हें मनींचि केवि धरिजे | आपण वज्राचेयां बोलिजे।
वरी घडे तरी कीजे | भले एयां ॥ २१६ ॥
वज्राचेयां=कठीण 

आम्हीं जें जें जोडावें | तें समस्तीं इहीं भोगावें।
हे जीवितही उपकारावें | काजीं यांचां ॥ २१७ ॥

आम्ही दिगंतीचे भूपाळ | विभांडूनि सकळ।
मग संतोषविजे कुळ | आपुलें जें ॥ २१८ ॥

दिगंतीचे= सर्व ,अफाट , विभांडूनि= जिंकून

तेचि हे समस्त | परी कैसें कर्म विपरीत।
जे जाहले असती उद्यत | झुंजावया ॥ २१९ ॥

उद्यत=तयार सज्ज

अंतौरिया कुमरें | सांडोनियां भांडारें।
शस्त्राग्रीं जिव्हारें | आरोपुनी ॥ २२० ॥

अंतौरिया= स्त्रिया कुमरें=मुले जिव्हारें=मर्मस्थानी

ऐसियांते कैसेनि मारुं | कवणावरी शस्त्र धरूं।
निज हृदया करूं | घातु केवीं ॥ २२१ ॥
 
          आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहः।
          मातुलः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥ ३४॥

हे नेणसी तूं कवण | परी पैल भीष्म द्रोण।
जयांचे उपकार असाधारण | आम्हां बहुत ॥ २२२ ॥

एथ शालक सासरे मातुळ | आणी बंधु कीं हें सकळ।
पुत्र नातू केवळ | इष्टही असती ॥ २२३ ॥

शालक=मेहुणे मातुळ=मामा

अवधारीं अति जवळिकेचे | हे सकळही सोयरे आमुचे।
म्हणोनि दोष आथि वाचे | बोलतांचि ॥ २२४ ॥

         एतान्न हन्तुमिछामि घ्नतोऽपि मघुसूदन।
         अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं न महीकृते ॥ ३५ ॥

हे वरी भलतें करितु | आंताचि एथें मारितु।
परि आपण मनें घातु | न चिंतावा ॥ २२५ ॥

त्रैलोक्यींचे अनकळित | जरी राज्य होईल एथ।
तरी हें अनुचित | नाचरें मी ॥ २२६ ॥

अनकळित=निष्कंटक ,सहज

जरी आज एथ ऐसें कीजे | तरी कवणांचा मनीं उरिजे।
सांग मुख केवीं पाहिजे | तुझे कृष्णा ॥ २२७ ॥

          निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
          पापनेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ॥

जरी वधु करूनी गोत्रजांचा | तरी वसौटा होऊन दोषांचा।
मज जोडलासि तूं हातींचा | दूरी होसी ॥ २२८ ॥

वसौटा= घर, आश्रय .

कुळहरणीं पातकें | तिये आंगीं जडती अशेखें।
तयें वेळी तूं कवण कें | देखावासी ॥ २२९ ॥

अशेखें=संपूर्ण  कवण कें =कुणा कसा

जैसा उद्यानामाजीं अनळु | संचरला देखोनि प्रबळु।
मग क्षणभरी कोकिळु | स्थिर नोहे ॥ २३० ॥

अनळु =अग्नी

सकर्दम सरोवरु | अवलोकूनि चकोरु।
न सेवितु अव्हेरु | करूनि निघे ॥ २३१ ॥

सकर्दम==चिखलयुक्त

तयापरी तूं देवा | मज झकों न येसी मावा।
जरी पुण्याचा वोलावा | नाशिजेल ॥ २३२ ॥

झकों=झाकणे ,पाखर घालणे माव=माया प्रेम

          तस्मान्नार्हा वयं हन्तुम् धार्तराष्ट्रान्स्वबांधवान्।
          स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७ ॥

म्हणोनि मी हें न करीं | इये संग्रामीं शस्त्र न धरीं।
हें किडाळ बहुतीं | परीं दिसतसे ॥ २३३ ॥

किडाळ =डाग ,दुष्कीर्तीकर 

तुझा अंतराय होईल | मग सांगें आमचें काय उरेल।
तेणें दुःखे हियें फुटेल | तुजवीण कृष्णा ॥ २३४ ॥

अंतराय=दुरावा हियें=हृदय

म्हणावूनि कौरव हे वधिजती | मग आम्हीं भोग भोगिजती।
हे असो मात अघडती | अर्जुन म्हणे ॥ २३५ ॥

मात=गोष्ट अघडती= अशक्य (न घडेल )
          यद्यप्यते न पश्यंति लोभोपहृतचेतसः।
          कुलक्षयकृतंदोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥

          कथं ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
          कुलक्षयकृतम् दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३९ ॥

हे अभिमानपदे भुलले | जरी पां संग्रामा आले।
ऱ्ही आम्हीं हित आपुलें | जाणावें लागे ॥ २३६ ॥

हें ऐसें कैसें करावें | जे आपुले आपण मारावे।
जाणत जाणतांचि सेवावें | कालकूट ॥ २३७ ॥

हां जी मार्गीं चालतां | पुढां सिंह जाहला अवचितां।
तो तंव चुकवितां | लाभु आथी ॥ २३८ ॥

असता प्रकाशु सांडावा | मग अंधकूप आश्रावा।
तरी तेथ कवणु देवा | लाभु सांगे ॥ २३९ ॥
अंधकूप=अंधारी विहीर

का समोर अग्नि देखोनी | जरी न वचिजे वोसंडोनी।
तरी क्षणा एका कवळूनि | जांळू सके ॥ २४०॥

वचिजे=वाचणे  वोसंडोनी=टाळणे

तैसे दोष हे मूर्त | अंगी वाजों असती पहात।
हें जाणतांही केवीं एथ | प्रवर्तावें ॥ २४१ ॥

वाजों=पिडू लागतात आदळू लागतात  

ऐसें पार्थ तिये अवसरीं | म्हणे देवा अवधारीं।
या कल्मषाची थोरी | सांगेन तुज ॥ २४२ ॥
कल्मषाची=पापाची
           कुलक्षये प्रणश्यंति कुलधर्माः सनातनः।
           धर्मे नष्टे कुलं कृत्सनमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ ४० ॥

जैसें काष्ठें काष्ठ मथिजे | येथ वन्हि एक उपजे।
तेणें काष्ठजात जाळिजे | प्रज्वळलेनि ॥ २४३ ॥

मथिजे=घासणे

तैसा गोत्रींची परस्परें | जरी वधु घडे मत्सरें।
तरी तेणें महादोषें घोरें | कुळचि नाशे ॥ २४४॥

म्हणवूनि येणें पापें | वंशजधर्मु लोपे।
मग अधर्मुचि आरोपे | कुळामाजि ॥ २४५ ॥

आरोपे=लिंपे, चिकटणे 

             अधर्माभिभवात् कृष्ण प्रदुष्यंति कुलस्त्रियः।
             स्त्रीसु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥ ४१ ॥

एथ सारासार विचारावें | कवणे काय आचरावें।
आणि विधिनिषेध अघवे | पारुषति ॥ २४६ ॥

पारुषति=दुरावती

असता दीपु दवडीजे | मग अंधकारीं राहाटिजे।
जे उजूंचि का आडळिजे | जयापरी ॥ २४७ ॥

उजूंचि=सरळ (मार्गावरचा) आडळिजे=अडखळणे 

तैसा कुळीं कुळक्षयो होय | तये वेळी तो आद्य धर्मु जाय।
मग आन कांहीं आहे | पापांवाचुनि ॥ २४८ ॥

जैं यमनियम ठाकती | तेथ इंद्रियें सैरा विचरती।
म्हणवूनि व्यभिचार घडती | कुळस्त्रियांसी ॥ २४९ ॥

ठाकती=थांबती ,सरती

उत्तम अधमीं संचरती | ऐसे वर्णावर्ण मिसळती।
तेथ समूळ उपडती | जातिधर्म ॥ २५० ॥

उपडती=उपटली जातात ,नष्ट होती

जैसी चोहटाचिया बळी | पाविजे सैरा काऊळीं।
तैसीं महापापें कुळीं प्रवेशती ॥ २५१ ॥

चोहटाचिया=चव्हाट्यांवरील सैरा=स्वैर

           संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
           पतंति पितरि ह्येषां लुप्तपिंडिदकक्रियाः ॥ ४१॥

मग कुळा देखा अशेखा | आंणि कुळघातका।
येरयेरा नरक | जाणें आथी ॥ २५२ ॥

येरयेरा=दोघांना

देखें वंशवृद्धि समस्त | यापरी होय पतित।
मग वोवांडिती स्वर्गस्थ | पूर्वपुरुष ॥ २५३ ॥

वोवांडिती=परत येतात 

जेथ नित्यादि क्रिया ठाके | आणि नैमित्तिक पारुखे ।
तेथ कवणा तिळोदकें | कवण अर्पी ॥ २५४ ॥

तिळोदकें=(तीळ उदक वाहणे)श्राद्धविधी 

तरी पितर काय करिती | कैसेनि स्वर्गीं बसती।
म्हणोनि तेही येती | कुळापासी ॥ २५५ ॥

जैसा नखाग्रीं व्याळु लागे | तो शिखांत व्यापी वेगें।
तेवी आब्रह्म कुळ अवघें | आप्लविजे ॥ २५६ ॥

नखाग्रीं= नखाच्या टोकाला व्याळु=विषारी साप. 
शिखांत =शेडी पर्यंत      
    
     दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
          उत्साद्यंते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वतः ॥ ४३ ॥

          उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
          नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ४४ ॥

          अहो वत महत् पापं कर्तुं व्यवसिता वयमं।
          यद् राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४५ ॥

देवा अवधारी आणिक एक | एथ घडे महापातक।
जै संगदोषें हा लौकिक | भ्रंशु पावे ॥ २५७ ॥

लौकिक=लोकाचार भ्रंशु-=नष्ट

जैसा घरीं आपुला | वानिवसे वन्ही लागला।
तो आणिकांही प्रज्वळिला | जाळुनि घाली ॥ २५८ ॥

वानिवसे=अचानक

तैसिया तया कुळसंगती | जे जे लोक वर्तती।
तेही बाधु पावती | निमित्तें येणें ॥ २५९ ॥

तैसें नाना दोषें सकळ | अर्जुन म्हणे तें कुळ।
मग महाघोर केवळ | निरय भोगी ॥ २६० ॥

निरय=नरक 

पडिलिया तिये ठायीं | मग कल्पांतीही उगंडु नाही।
येसणें पतन कुळक्षयीं | अर्जुन म्हणे ॥ २६१ ॥

उगंडु=सुटका

देवा हें विविध कानीं ऐकिजे | परि अझुनिवरी त्रासु नुपजे।
हृदय वज्राचें हें काय कीजे | अवधारी पां ॥ २६२ ॥

अपेक्षिजे राज्यसुख | जयालागीं तें तंव क्षणिक।
ऐसे जाणतांही दोख | अव्हेरू ना ॥ २६३ ॥

हे वडिल सकळ आपुले | वधावया दिठी सूदले।
सांग पां काय थेकुलें | घडले आम्हा ॥ २६४ ॥

थेकुलें=कमीपण सूदले=घातले 


     यदि मामप्रतीकारमशस्त्रतं शस्त्रपाणयः।
     धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तनं मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ४६ ॥

आतां यावरी जें जियावें | तयापासूनि हें बरवे।
जे शस्त्र सांडूनि साहावे | बाण त्यांचे ॥ २६५ ॥

तयावरी होय जितुकें | तें मरणही वरी निकें।
परी येणें कल्मषें | चाड नाहीं ॥ २६६ ॥

निकें=चांगले कल्मषें=पापा

ऐसें देखोनि सकळ | अर्जुनें आपुलें कुळ ।
मग म्हणे राज्य तें केवळ | निरयभोगु ॥ २६७ ॥

निरय=पाप    


  संजय उवाचः
     एवमुक्तवार्जुन: संख्ये रथोपस्य उपाविशत्।
     विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४७ ॥

ऐसें तिये अवसरीं | अर्जुन बोलिला समरीं।
संजयो म्हणे अवधारी | धृतराष्ट्रातें ॥ २६८ ॥

मग अत्यंत उद्वेगला | न धरत गहिंवरू आला।
तेथ उडी घातली खालां | रथौनियां ॥ २६९ ॥

जैसा राजकुमरु पदच्युतु | सर्वथा होय उपहृतु।
कां रवि राहुग्रस्तु | प्रभाहीनु ॥ २७० ॥

उपहृतु-निस्तेज हतवीर्य

ना तरी महासिद्धीसंभ्रमें | जिंतला तापसु भ्रमे।
मग आकळुनि कामें | दीनु कीजे ॥ २७१ ॥

तैसा तो धनुर्धरु | अत्यंत दुःखें जर्जरु।
दिसे जेथ रहंवरु | त्यजिला तेणें ॥ २७२ ॥


रहंवरु=रथ 

मग धनुष्यबाण सांडिले | न धरत अश्रुपात आले।
ऐसें ऐके राया तेथ वर्तलें | संजयो म्हणे ॥ २७३ ॥



आता यावरी तो वैकुंठ्नाथु | देखोनि सखेद पार्थु।
कवणेपरी परमार्थु | निरुपील ॥ २७४ ॥

ते सविस्तर पुढारी कथा | अति सकौतुक ऐकतां।
ज्ञानदेव म्हणे आतां निवृत्तिदासु ॥ २७५ ॥

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