Sunday, March 20, 2016

ज्ञानेश्वरी .अध्याय 2 / ओव्या २७८ ते ३७६ / समाप्त



ज्ञानेश्वरी .अध्याय 2 / ओव्या २७८ ते ३७६ / समाप्त   

     कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
     जन्मबंधविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥

ते कर्मी तरी वर्तती | परी कर्मफळा नातळती।
आणि यातायाति लोपती | अर्जुना तयां ॥ २७८ ॥

यातायाति=कष्ट ,जन्ममरण

मग निरामयभरित | पावती पद अच्युत।
ते बुद्धियोगयुक्त | धनुर्धरा ॥ २७९ ॥

निरामयभरित=आनंदभरित

     यदा ते मोहकलिलं बुद्धुर्व्यतितरिष्यति।
     तदा गंतासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥

तूं ऐसा तैं होसी | जैं मोहातें या सांडिसी।
आणि वैराग्य मानसीं | संचरेल ॥ २८० ॥

मग निष्कळंक गहन | उपजेल आत्मज्ञान।
तेणे निचाडें होईल मन | अपैसें तुझे ॥ २८१ ॥

निचाडें=निरिच्छ

तेथ आणिक कांही जाणावे | कां मागिलातें स्मरावें।
हें अर्जुनां आघवें | पारुषेल ॥ २८२ ॥
पारुषेल=संपेल ,थांबेल

     श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
     समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥

इंद्रियांचिया संगती | जिये पसरु असे मती।
ते स्थिर होईल मागुती | आत्मस्वरूपीं ॥ २८३ ॥

पसरु=पसरणे विस्तारणे

समाधिसुखीं केवळ | जैं बुद्धि होईल निश्चळ।
तैं पावसी तूं सकळ | योगस्थिति ॥ २८४ ॥

     अर्जुन उवाच: स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
     स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ॥ ५४ ॥

तेथ अर्जुन म्हणे देवा | हाचि अभिप्रावो आघवा।
मी पुसेन आतां सांगावा | कृपानिधि ॥ २८५ ॥

मग अच्युत म्हणे सुखें | जें किरीटी तुज निकें।
तें पूस पां उन्मेखें | मनाचेनि ॥ २८६ ॥

उन्मेखें=प्रकटपणे

या बोला पार्थें | म्हणितलें सांग पां श्रीकृष्णातें।
काय म्हणिपे स्थितप्रज्ञातें | वोळखों केवीं ॥ २८७ ॥

आणि स्थिरबुद्धि जो म्हणिजे | तो कैसां चिन्हीं जाणिजे।
जो समाधिसुख भुंजिजे | अखंडित ॥ २८८ ॥

भुंजिजे=भोगितो

तो कवणे स्थिती असे | कैसेनि रूपी विलसे।
देवा सांगावें हें ऐसें | लक्ष्मीपती ॥ २८९ ॥

तव परब्रह्मअवतरणु | जो षड्गुणाधिकरणु।
तो काय तेथ नारायणु | बोलतु असे ॥ २९० ॥

षड्गुणाधिकरणु= षड्गुणाचे निवासस्थान

     श्रीभगवानुवाच: प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
                आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥

म्हणे अर्जुना परियेसीं | हा अभिलाषु प्रौढ मानसीं।
तो अंतराय स्वसुखेसीं | करीत असे ॥ २९१ ॥

अभिलाषु=इच्छा,कामना  प्रौढ= समर्थ
प्रौढ=मोठा अंतराय =दुरावा

जो सर्वदा नित्यतृप्तु | अंतःकरणभरितु।
परि विषयामाजि पतितु | जेणें संगे कीजे ॥ २९२ ॥

माजि=मध्ये

तो कामु सर्वथा जाये | जयाचे आत्मतोषीं मन राहें।
तोचि स्थितप्रज्ञु होये | पुरुष जाणे ॥ २९३ ॥

     दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
     वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनीरुच्यते ॥ ५६ ॥

नाना दुःखी प्राप्तीं | जयासी उद्वेगु नाहीं चित्तीं।
आणि सुखाचिया आर्ती | अडपैजेना ॥ २९४ ॥

आर्ती=तळमळ अडपैजेना=अडचणीत पडणे

अर्जुना तयाचां ठायीं | कामक्रोधु सहजें नाहीं।
आणि भयातें नेणें कहीं | परिपूर्ण तो ॥ २९५ ॥

ऐसा जो निरवधि | तो जाण पां स्थिरबुद्धि।
जो निरसूनि उपाधि | भेदरहितु ॥ २९६ ॥

निरवधि=अपार

     यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
     नाभिननंदंति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥

जो सर्वत्रा सदा सरिसा | परिपूर्ण चंद्रु कां जैसा।
अधमोत्तम प्रकाशा - | माजीं न म्हणे ॥ २९७ ॥

अधमोत्तम=अधम उत्तम =पापी पुण्यवान

ऐसी अनवच्छिन्न समता | भूतामत्रीं सदयता।
आणि पालटु नाहीं चित्ता | कवणे वेळे ॥ २९८ ॥

अनवच्छिन्न=संपूर्ण पालटु=बदल

गोमटें कांही पावे | तेणे संतोषें तेणें नाभिभवे।
जो ओखटेनि नागवे | विषादासी ॥ २९९ ॥

गोमटें=चांगले नाभिभवे=व्यापणे फुलणे
ओखटे=वाईट नागवे=सापडत नाही

ऐसा हरिखशोकरहितु | जो आत्मबोधभरितु।
तो पां जाण प्रज्ञायुक्तु | धनुर्धरा ॥ ३०० ॥

     यदा संहरते चायं कूर्मोऽङगानीव सर्वशः।
     इंद्रियाणींद्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥

कां कूर्म जियापरी | उवाइला अवेव पसरी।
ना इच्छावशें आवरी | आपुले आपण ॥ ३०१ ॥

उवाइला= आनंदला (मनात आले तर )

तैसीं इंद्रिये आपैतीं होतीं | जयाचें म्हणितलें करिती।
तयाची प्रज्ञा जाण स्थिती | पातलीं असे ॥ ३०२ ॥

     विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
     रसवर्ज्यं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥

आतां अर्जुना आणिकही एक | सांगेन ऐकें कवतिक।
या विषयांते साधक | त्यजिती नियमें ॥ ३०३ ॥

कवतिक=कौतुक आश्चर्य

श्रोत्रादि इंद्रिये आवरती | परि रसने नियमु न करिती।
ते सहस्रधा कवळिजती | विषयीं इहीं ॥ ३०४ ॥

श्रोत्र=कान .सहस्रधा=हजार वेळा

जैसी वरिवरि पालवी खुडिजे | आणि मुळीं उदक घालिजे।
तरी कैसेनि नाशु निपजे | तया वृक्षा ॥ ३०५ ॥

तो उदकाचेनि बळें अधिकें | जैसा आडवोनि आंगे फांके।
तैसा मानसी विषो पोखे | रसनाद्वारें ॥ ३०६ ॥

येरां इंद्रिया विषय तुटे | तैसा नियमूं न ये रस हटें।
जे जीवन हें न घटे | येणेंविण ॥ ३०७ ॥

हटें =सरे दुरावे. घटे=घडणे

मग अर्जुना स्वभावे | ऐसियाही नियमातें पावे।
जैं परब्रह्म अनुभवें | होऊनि जाईजे ॥ ३०८ ॥

तैं शरीरभाव नासती | इंद्रिये विषय विसरती।
सोहंभावप्रतीति | प्रकट होय ॥ ३०९ ॥

     यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
     इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥

येऱ्हवीं तरी अर्जुना | हें आया नये साधना।
जे रहाटताती जतना | निरंतर ॥ ३१० ॥

आया = स्वाधीन  रहाटताती=वागतात

जयातें अभ्यासाची घरटी | यमनियमांची ताटी।
जे मनाते सदा मुठी | धरूनि आहाती ॥ ३११ ॥

घरटी=पहारा ताटी=कुंपण

तेही किजती कासाविसी | या इंद्रियांची प्रौढी ऐसी।
जैसी मंत्रज्ञातें विवसी | भुलवी कां ॥ ३१२ ॥

विवसी=हडळ

देखे विषय हे तैसे | पावती ऋद्धिसिद्धीचेनि मिषें।
मग आकळती स्पर्शें  | इंद्रियांचेनि ॥ ३१३ ॥

आकळती=व्यापतात

तिये संधी मन जाये | मग अभ्यासां ठोठावलें ठाये।
ऐसें बळकटपण आहे | इंद्रियांचे ॥ ३१४ ॥

संधी=तावडीत ,सवे

     तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
     वशे हि यस्येंद्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥

म्हणोनि आइकें पार्था | यांते निर्दळी जो सर्वथा।
सर्व विषयीं आस्था | सांडूनिया ॥ ३१५ ॥

तोचि तूं जाण | योगनिष्ठेसी कारण।
जयाचे विषयसुखे | अंतःकरण झकवेना ॥ ३१६ ॥

झकवेना=फसेना

जो आत्मबोधयुक्तु | होऊनि असे सततु।
जो मातें हृदयाआंतु | विसंबेना ॥ ३१७ ॥

ऱ्हवीं बाह्य विषय तरी नाहीं | परी मानसीं होईल जरी कांही।
तरी साद्यंतुचि हा पाहीं | संसारु असे ॥ ३१८ ॥

साद्यंतुचि=संपूर्ण पणे

जैसा कां विषाचा लेशु | घेतलिया होय बहुवसु।
मग निभ्रांत करी नाशु | जीवितासी ॥ ३१९ ॥

लेशु=अंश निभ्रांत=निश्चित

तैसी या विषयांची शंका | मनीं वसती देखा।
घातु करी अशेखा | विवेकजाता ॥ ३२० ॥

शंका=विचार

     ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते।
     सङगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते ॥ ६२ ॥

     क्रोधाद् भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
     स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥

जरी हृदयीं विषय स्मरती | तरी निसंगाही आपजे संगती।
संगी प्रगटे मूर्ति | अभिलाषाची ॥ ३२१ ॥

आपजे=होते घडते

जेथ कामु उपजला | तेथ क्रोधु आधींचि आला।
क्रोधीं असे ठेविला | संमोह जाणे ॥ ३२२ ॥

संमोह=अविवेक भ्रम

संमोहा जालिया व्यक्ति | तरी नाशु पावे स्मृति।
चंडवातें ज्योति | आहत जैसी ॥ ३२३ ॥

चंडवातें=(वादळ) मोठा वारा . आहत=जोरात लागलेली (जखमी)

कां अस्तमानीं निशी | जैसी सूर्यतेजातें ग्रासी।
तैसी दशा स्मृतिभ्रंशीं | प्राणियांसी ॥ ३२४ ॥

ग अज्ञानांध केवळ | तेणे आप्लविजे सकळ।
तेथ बुद्धि होय व्याकुळ | हृदयामाजीं ॥ ३२५ ॥

जैसें जात्यंधा पळणी पावे | मग ते काकुळती सैरा धांवे।
तैसे बुद्धीसि होती भवें | धनुर्धरा ॥ ३२६ ॥

भवें= भ्रमें चक्कर

ऐसा स्मृतिभ्रंशु घडे | मग सर्वथा बुद्धि अवघडे।
तेथ समूळ हें उपडे | ज्ञानजात ॥ ३२७ ॥

चैतन्याचां भ्रंशी | शरीरा दशा जैशी।
पुरुषा बुद्धिनाशीं | होय देखें ॥ ३२८ ॥

म्हणोनि आइकें अर्जुना | जैसा विस्फुल्लिंग लागे इंधना।
मग प्रौढ जालिया त्रिभुवना | पुरों शके ॥ ३२९ ॥

प्रौढ=वाढल्यावर, मोठा झाल्यावर

तैसें विषयांचे ध्यान | जरी विपायें वाहे मन।
तरी येसणे हें पतन | गिंवसीत पावे ॥ ३३० ॥

येसणे=यामुळे

     रागद्वेषवियुकतैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
     आत्मवशैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥

म्हणोनि विषय हे आघवे | सर्वथा मनौनि सांडावे।
मग रागद्वेष स्वभावें | नाशतील ॥ ३३१ ॥

मनौनि=मनातून

पार्था आणिकही एक | जरी नाशिले रागद्वेष।
तरी इंद्रियां विषयीं बाधक | रमतां नाही ॥ ३३२ ॥

बाधक= बाधा करीत नाही

जैसा सूर्य आकाशगतु | रश्मिकरीं जगातें स्पर्शतु।
तरी संगदोषें काय लिंपतु | तेथिंचेनि ॥ ३३३ ॥

तैसा इंद्रियार्थी उदासीन | आत्मरसेंचि निर्भिन्न।
जो कामक्रोधविहीन | होऊनि असे ॥ ३३४ ॥

निर्भिन्न=एकरूप

तरी विषयां तया कांही | आपणपेवाचुनि नाहीं।
मग विषय कवण कायी | बाधीतील कवणा ॥ ३३५ ॥

आपणपेवाचुनि=आपल्यावाचून (आत्मतत्व)

जरी उदकें उदकीं बुडीजे | कां अग्नि आगी पोळिजे।
तरीं विषयसंगे आप्लविजे | परिपूर्ण तो ॥ ३३६ ॥

ऐसा आपणचि केवळ | होऊनि असे निखळ।
तयाचि प्रज्ञा अचळ | निभ्रांत मानीं ॥ ३३७ ॥

     प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
     प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ ६५ ॥

देखें अखंडित प्रसन्नता | आथी जेथ चित्ता।
तेथे रिगणें नाहीं समस्तां | संसारदुःखां ॥ ३३८ ॥

जैसा अमृताचा निर्झरु | प्रसवे जयाचा जठरु।
तया क्षुधेतृष्णेचा अडदरु | कहींचि नाहीं ॥ ३३९ ॥

तैसें हृदय प्रसन्न होये | तरी दुःख कैचें कें आहे।
तेथ बुद्धि आपैसी राहे | परमात्मरूपीं ॥ ३४० ॥

जैसा निर्वातीचा दीपु | सर्वथा नेणे कंपु।
तैसा स्थिरबुद्धि स्वस्वरूपु  | योगयुक्तु ॥ ३४१ ॥

     नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
     न चाभावयतः शांतिरशांतस्य कुतः सुखम् ॥ ६६ ॥

ये युक्तीचि कडसणी | नाहीं जयाचां अंतःकरणीं।
तो आकळिलां जाण गुणीं | विषयादिकीं ॥ ३४२ ॥

कडसणी=कसाला लावणे छाननी करणे

तया स्थिरबुद्धि पार्था | कहीं नाहीं सर्वथा।
आणि स्थैर्याची आस्था | तेही नुपजे ॥ ३४३ ॥

निश्चळत्वाची भावना | जरी नव्हेचि देखें मना।
तरी शांति केवी अर्जुना | आपु होय ॥ ३४४ ॥

आणि जेथ शांतिचा जिव्हाळा नाहीं | तेथ सुख विसरोनि न रिगे कहीं।
जैसा पापियाचां ठायीं | मोक्षु न वसे ॥ ३४५ ॥

देखें अग्निमाजी धापती | तियें बीजें जरी विरुढती।
तरी अशांत सुखप्राप्ती | घडों शके ॥ ३४६ ॥

धापती=घातलेली  

म्हणोनि अयुक्तपण मनाचे | तेंचि सर्वस्व दुःखाचें।
या कारणें इंद्रियांचें | दमन निकें ॥ ३४७ ॥

     इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
     तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥

ये इंद्रियें जें जें म्हणती | तें तेंचि जे पुरुष करिती।
ते तरलेचि न तरिती | विषयसिंधु ॥ ३४८ ॥

जैसी नाव थडिये ठाकितां | जरी वरपडी होय दुर्वाता।
तरी चुकलाही मागौता | अपावो पावे ॥ ३४९ ॥

थडिये=किनारा
वरपडी होय=उपस्थित होय दुर्वाता=वाईट वारा

तैसी प्राप्तेंही पुरुषें | इंद्रियें लाळिलीं जरी कौतुकें।
तरी आक्रमिला देख दुःखे | सांसारिकें ॥ ३५० ॥

लाळिलीं=लाड केली

     तस्माद् यस्य महाबाहो निगृहितानि सर्वशः।
     इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥

म्हणोनि आपुलीं आपणपेया | जरी ये इंद्रिये येती आया।
तरी अधिक कांही धनंजया | सार्थक असे ॥ ३५१ ॥

आया=ताब्यात

देखे कूर्म जियापरी | उवाइला अवयव पसरी।
ना तरी इच्छावशें आवरी | आपणपेंचि ॥ ३५२ ॥

उवाइला=आनंदला

तैसीं इंद्रिये आपैती होती | जयाचें म्हणितलें करिती।
तयाची प्रज्ञा जाण स्थिती | पातली असे ॥ ३५३ ॥

आपैती=स्वाधीन

आता आणिक एक गहन | पूर्णाचें चिन्ह।
अर्जुना तुज सांगेन | परिस पां ॥ ३५४ ॥

     या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
     यस्यां जाग्रति भूतानां सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥

देखे भूतजात निदेलें | तेथेंचि जया पाहलें।
आणि जीव जेथ चेइले | तेथ निद्रित तो ॥ ३५५ ॥

पाहलें=पहाट, पाहणे

तैसा तो निरुपाधि | अर्जुना तो स्थिरबुद्धि।
तोचि जाणे निरवधि | मुनीश्वर ॥ ३५६ ॥

     आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
     तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥

पार्था आणिकही परी | तो जाणो येईल अवधारीं।
जैसी अक्षोभता सागरीं | अखंडित ॥ ३५७ ॥

जरी सरिताओघ समस्त | परिपूर्ण होऊनि मिळत।
तरी अधिक नोहे ईषत् | मर्यादा न संडी ॥३५८ ॥

ईषत्=किंचित

ना तरी ग्रीष्मकाळीं सरिता | शोषूनि जाति समस्ता।
परी न्यून नव्हे पार्था | समुद्रु जैसा ॥ ३५९ ॥

तैसा प्राप्तीं ऋद्धिसिद्धी | तयासि क्षोभु नाहीं बुद्धी।
आणि न पवतां न बाधी | अधृति तयातें ॥ ३६० ॥

अधृति=असंतोष

सांगे सूर्याचां घरी | प्रकाशु काय वातीवेरी।
की न लविजे तरी अंधारीं | कोंडेल तो ॥ ३६१ ॥

देखें ऋद्धिसिद्धि तयापरी | आली गेली से न करी।
तो विगुंतला असे अंतरीं | महासुखीं ॥ ३६२ ॥

से=पर्वा विगुंतला=ओतप्रोत भरला

जो आपुलेनि नागरपणें | इंद्रभुवनातें पाबळें म्हणे।
तो केवि रंजे पालविणें | भिल्लांचेनि ॥ ३६३ ॥

पाबळें =कमी प्रतीचे   पालविणें=झोपडे

जो अमृतासि ठी ठेवी | तो जैसा कांजी न सेवी।
तैसा स्वसुखानुभवी | न भोगी ऋद्धि ॥ ३६४ ॥

ठी ठेवी=नावे ठेवी

पार्था नवल हें पाहीं | जेथ स्वर्गसुख लेखनीय नाही।
तेथ ऋद्धिसिद्धि कायी | प्राकृता होती ॥ ३६५ ॥

लेखनीय=खिजगणतीत प्राकृता=सामान्य

     विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः।
     निर्ममो निरहंकरः स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥

ऐसा आत्मबोधें तोषला | जो परमानंदें पोखला।
तोचि स्थिरप्रज्ञु भला | वोळख तूं ॥ ३६६ ॥

पोखला= संतुष्ट झाला (पुष्ट झाला)

तो अहंकाराते दंडुनी | सकळ काम सांडोनि।
विचरे विश्व होऊनि | विश्वाचिमाजीं ॥ ३६७ ॥

     एष ब्राह्मो स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
     स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ ७२ ॥

हे ब्रह्मस्थिती निःसीम | जे अनुभवितां निष्काम।
पातलें परब्रह्म | अनायासें ॥ ३६८ ॥

जे चिद्रूपीं मिळतां | देहांतीची व्याकुळता।
आड ठाकों न शके चित्ता | प्राज्ञा जया ॥ ३६९ ॥

तेचि हे स्थिति | स्वमुखें श्रीपति।
सांगत अर्जुनाप्रति | संजयो म्हणे ॥ ३७० ॥

ऐसे कृष्णवाक्य ऐकिलें | तेथ अर्जुने मनीं म्हणितलें।
आतां आमुचियाचि काजा आलें | उपपत्ति इया ॥ ३७१ ॥

उपपत्ति=सिद्धांत, कार्यकारणभाव

जे कर्मजात आघवें | एथ निराकारिलें देवें।
तरी पारुषलें म्यां झुंजावें | म्हणूनियां ॥ ३७२ ॥

पारुषलें=थांबले खुंटले

ऐसा श्रीअच्युताचिया बोला | चित्तीं धनुर्धरु उवायिला।
आतां प्रश्नु करील भला | आशंकोनियां ॥ ३७३ ॥

उवायिला=आनंदला

तो प्रसंगु असे नागरु | जो सकळ धर्मासि आगरु।
कीं विवेकामृतसागरु | प्रांतहीनु ॥ ३७४ ॥

नागरु=सुंदर  आगरु=साठा

जो आपणपे सर्वज्ञनाथु | निरुपिता होईल श्रीअनंतु।
ते ज्ञानदेवो सांगेल मातु | निवृत्तीदासु ॥ ३७५ ॥


॥ दुसरा अध्याय समाप्त ॥

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