ज्ञानेश्वरी
.अध्याय 2 / ओव्या २७८ ते ३७६ / समाप्त
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबंधविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
ते कर्मी तरी वर्तती | परी कर्मफळा नातळती।
आणि यातायाति लोपती | अर्जुना तयां ॥ २७८ ॥
यातायाति=कष्ट ,जन्ममरण
मग निरामयभरित | पावती पद अच्युत।
ते बुद्धियोगयुक्त | धनुर्धरा ॥ २७९ ॥
निरामयभरित=आनंदभरित
यदा ते मोहकलिलं बुद्धुर्व्यतितरिष्यति।
तदा गंतासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥
तूं ऐसा तैं होसी | जैं मोहातें या सांडिसी।
आणि वैराग्य मानसीं | संचरेल ॥ २८० ॥
मग निष्कळंक गहन | उपजेल आत्मज्ञान।
तेणे निचाडें होईल मन | अपैसें तुझे ॥ २८१ ॥
निचाडें=निरिच्छ
तेथ आणिक कांही जाणावे | कां मागिलातें स्मरावें।
हें अर्जुनां आघवें | पारुषेल ॥ २८२ ॥
पारुषेल=संपेल ,थांबेल
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
इंद्रियांचिया संगती | जिये पसरु असे मती।
ते स्थिर होईल मागुती | आत्मस्वरूपीं ॥ २८३ ॥
पसरु=पसरणे विस्तारणे
समाधिसुखीं केवळ | जैं बुद्धि होईल निश्चळ।
तैं पावसी तूं सकळ | योगस्थिति ॥ २८४ ॥
अर्जुन उवाच: स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम् ॥ ५४ ॥
तेथ अर्जुन म्हणे देवा | हाचि अभिप्रावो आघवा।
मी पुसेन आतां सांगावा | कृपानिधि ॥ २८५ ॥
मग अच्युत म्हणे सुखें | जें किरीटी तुज निकें।
तें पूस पां उन्मेखें | मनाचेनि ॥ २८६ ॥
उन्मेखें=प्रकटपणे
या बोला पार्थें | म्हणितलें सांग पां श्रीकृष्णातें।
काय म्हणिपे स्थितप्रज्ञातें | वोळखों केवीं ॥ २८७ ॥
आणि स्थिरबुद्धि जो म्हणिजे | तो कैसां चिन्हीं जाणिजे।
जो समाधिसुख भुंजिजे | अखंडित ॥ २८८ ॥
भुंजिजे=भोगितो
तो कवणे स्थिती असे | कैसेनि रूपी विलसे।
देवा सांगावें हें ऐसें | लक्ष्मीपती ॥ २८९ ॥
तव परब्रह्मअवतरणु | जो षड्गुणाधिकरणु।
तो काय तेथ नारायणु | बोलतु असे ॥ २९० ॥
षड्गुणाधिकरणु= षड्गुणाचे निवासस्थान
श्रीभगवानुवाच: प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
म्हणे अर्जुना परियेसीं | हा अभिलाषु प्रौढ मानसीं।
तो अंतराय स्वसुखेसीं | करीत असे ॥ २९१ ॥
अभिलाषु=इच्छा,कामना प्रौढ= समर्थ
प्रौढ=मोठा अंतराय =दुरावा
प्रौढ=मोठा अंतराय =दुरावा
जो सर्वदा नित्यतृप्तु | अंतःकरणभरितु।
परि विषयामाजि पतितु | जेणें संगे कीजे ॥ २९२ ॥
माजि=मध्ये
तो कामु सर्वथा जाये | जयाचे आत्मतोषीं मन राहें।
तोचि स्थितप्रज्ञु होये | पुरुष जाणे ॥ २९३ ॥
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनीरुच्यते ॥ ५६ ॥
नाना दुःखी प्राप्तीं | जयासी उद्वेगु नाहीं चित्तीं।
आणि सुखाचिया आर्ती | अडपैजेना ॥ २९४ ॥
आर्ती=तळमळ अडपैजेना=अडचणीत पडणे
अर्जुना तयाचां ठायीं | कामक्रोधु सहजें नाहीं।
आणि भयातें नेणें कहीं | परिपूर्ण तो ॥ २९५ ॥
ऐसा जो निरवधि | तो जाण पां स्थिरबुद्धि।
जो निरसूनि उपाधि | भेदरहितु ॥ २९६ ॥
निरवधि=अपार
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिननंदंति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
जो सर्वत्रा सदा सरिसा | परिपूर्ण चंद्रु कां जैसा।
अधमोत्तम प्रकाशा - | माजीं न म्हणे ॥ २९७ ॥
अधमोत्तम=अधम उत्तम =पापी पुण्यवान
ऐसी अनवच्छिन्न समता | भूतामत्रीं सदयता।
आणि पालटु नाहीं चित्ता | कवणे वेळे ॥ २९८ ॥
अनवच्छिन्न=संपूर्ण पालटु=बदल
गोमटें कांही पावे | तेणे संतोषें तेणें नाभिभवे।
जो ओखटेनि नागवे | विषादासी ॥ २९९ ॥
गोमटें=चांगले नाभिभवे=व्यापणे फुलणे
ओखटे=वाईट नागवे=सापडत नाही
ऐसा हरिखशोकरहितु | जो आत्मबोधभरितु।
तो पां जाण प्रज्ञायुक्तु | धनुर्धरा ॥ ३०० ॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङगानीव सर्वशः।
इंद्रियाणींद्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥
कां कूर्म जियापरी | उवाइला अवेव पसरी।
ना इच्छावशें आवरी | आपुले आपण ॥ ३०१ ॥
उवाइला= आनंदला (मनात आले तर )
तैसीं इंद्रिये आपैतीं होतीं | जयाचें म्हणितलें करिती।
तयाची प्रज्ञा जाण स्थिती | पातलीं असे ॥ ३०२ ॥
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्ज्यं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥
आतां अर्जुना आणिकही एक | सांगेन ऐकें कवतिक।
या विषयांते साधक | त्यजिती नियमें ॥ ३०३ ॥
कवतिक=कौतुक आश्चर्य
श्रोत्रादि इंद्रिये आवरती | परि रसने नियमु न करिती।
ते सहस्रधा कवळिजती | विषयीं इहीं ॥ ३०४ ॥
श्रोत्र=कान .सहस्रधा=हजार वेळा
जैसी वरिवरि पालवी खुडिजे | आणि मुळीं उदक घालिजे।
तरी कैसेनि नाशु निपजे | तया वृक्षा ॥ ३०५ ॥
तो उदकाचेनि बळें अधिकें | जैसा आडवोनि आंगे फांके।
तैसा मानसी विषो पोखे | रसनाद्वारें ॥ ३०६ ॥
येरां इंद्रिया विषय तुटे | तैसा नियमूं न ये रस हटें।
जे जीवन हें न घटे | येणेंविण ॥ ३०७ ॥
हटें =सरे दुरावे. घटे=घडणे
मग अर्जुना स्वभावे | ऐसियाही नियमातें पावे।
जैं परब्रह्म अनुभवें | होऊनि जाईजे ॥ ३०८ ॥
तैं शरीरभाव नासती | इंद्रिये विषय विसरती।
सोहंभावप्रतीति | प्रकट होय ॥ ३०९ ॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥
येऱ्हवीं तरी अर्जुना | हें आया नये साधना।
जे रहाटताती जतना | निरंतर ॥ ३१० ॥
मग अर्जुना स्वभावे | ऐसियाही नियमातें पावे।
जैं परब्रह्म अनुभवें | होऊनि जाईजे ॥ ३०८ ॥
तैं शरीरभाव नासती | इंद्रिये विषय विसरती।
सोहंभावप्रतीति | प्रकट होय ॥ ३०९ ॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥
येऱ्हवीं तरी अर्जुना | हें आया नये साधना।
जे रहाटताती जतना | निरंतर ॥ ३१० ॥
आया = स्वाधीन रहाटताती=वागतात
जयातें अभ्यासाची घरटी | यमनियमांची ताटी।
जे मनाते सदा मुठी | धरूनि आहाती ॥ ३११ ॥
घरटी=पहारा ताटी=कुंपण
तेही किजती कासाविसी | या इंद्रियांची प्रौढी ऐसी।
जैसी मंत्रज्ञातें विवसी | भुलवी कां ॥ ३१२ ॥
तेही किजती कासाविसी | या इंद्रियांची प्रौढी ऐसी।
जैसी मंत्रज्ञातें विवसी | भुलवी कां ॥ ३१२ ॥
विवसी=हडळ
देखे विषय हे तैसे | पावती ऋद्धिसिद्धीचेनि मिषें।
मग आकळती स्पर्शें | इंद्रियांचेनि ॥ ३१३ ॥
आकळती=व्यापतात
तिये संधी मन जाये | मग अभ्यासां ठोठावलें ठाये।
ऐसें बळकटपण आहे | इंद्रियांचे ॥ ३१४ ॥
संधी=तावडीत ,सवे
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येंद्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥
म्हणोनि आइकें पार्था | यांते निर्दळी जो सर्वथा।
सर्व विषयीं आस्था | सांडूनिया ॥ ३१५ ॥
तोचि तूं जाण | योगनिष्ठेसी कारण।
जयाचे विषयसुखे | अंतःकरण झकवेना ॥ ३१६ ॥
झकवेना=फसेना
जो आत्मबोधयुक्तु | होऊनि असे सततु।
जो मातें हृदयाआंतु | विसंबेना ॥ ३१७ ॥
एऱ्हवीं बाह्य विषय तरी नाहीं | परी मानसीं होईल जरी कांही।
तरी साद्यंतुचि हा पाहीं | संसारु असे ॥ ३१८ ॥
साद्यंतुचि=संपूर्ण पणे
जैसा कां विषाचा लेशु | घेतलिया होय बहुवसु।
मग निभ्रांत करी नाशु | जीवितासी ॥ ३१९ ॥
जैसा कां विषाचा लेशु | घेतलिया होय बहुवसु।
मग निभ्रांत करी नाशु | जीवितासी ॥ ३१९ ॥
लेशु=अंश निभ्रांत=निश्चित
तैसी या विषयांची शंका | मनीं वसती देखा।
घातु करी अशेखा | विवेकजाता ॥ ३२० ॥
शंका=विचार
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङगस्तेषूपजायते।
सङगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते ॥ ६२ ॥
क्रोधाद् भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥
जरी हृदयीं विषय स्मरती | तरी निसंगाही आपजे संगती।
संगी प्रगटे मूर्ति | अभिलाषाची ॥ ३२१ ॥
आपजे=होते घडते
जेथ कामु उपजला | तेथ क्रोधु आधींचि आला।
क्रोधीं असे ठेविला | संमोह जाणे ॥ ३२२ ॥
संमोह=अविवेक भ्रम
संमोहा जालिया व्यक्ति | तरी नाशु पावे स्मृति।
चंडवातें ज्योति | आहत जैसी ॥ ३२३ ॥
चंडवातें=(वादळ) मोठा वारा . आहत=जोरात लागलेली (जखमी)
कां अस्तमानीं निशी | जैसी सूर्यतेजातें ग्रासी।
तैसी दशा स्मृतिभ्रंशीं | प्राणियांसी ॥ ३२४ ॥
मग अज्ञानांध केवळ | तेणे आप्लविजे सकळ।
तेथ बुद्धि होय व्याकुळ | हृदयामाजीं ॥ ३२५ ॥
जैसें जात्यंधा पळणी पावे | मग ते काकुळती सैरा धांवे।
तैसे बुद्धीसि होती भवें | धनुर्धरा ॥ ३२६ ॥
भवें= भ्रमें चक्कर
ऐसा स्मृतिभ्रंशु घडे | मग सर्वथा बुद्धि अवघडे।
तेथ समूळ हें उपडे | ज्ञानजात ॥ ३२७ ॥
चैतन्याचां भ्रंशी | शरीरा दशा जैशी।
पुरुषा बुद्धिनाशीं | होय देखें ॥ ३२८ ॥
म्हणोनि आइकें अर्जुना | जैसा विस्फुल्लिंग लागे इंधना।
मग प्रौढ जालिया त्रिभुवना | पुरों शके ॥ ३२९ ॥
प्रौढ=वाढल्यावर, मोठा झाल्यावर
तैसें विषयांचे ध्यान | जरी विपायें वाहे मन।
तरी येसणे हें पतन | गिंवसीत पावे ॥ ३३० ॥
येसणे=यामुळे
रागद्वेषवियुकतैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवशैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥
म्हणोनि विषय हे आघवे | सर्वथा मनौनि सांडावे।
मग रागद्वेष स्वभावें | नाशतील ॥ ३३१ ॥
मनौनि=मनातून
पार्था आणिकही एक | जरी नाशिले रागद्वेष।
तरी इंद्रियां विषयीं बाधक | रमतां नाही ॥ ३३२ ॥
बाधक= बाधा करीत नाही
जैसा सूर्य आकाशगतु | रश्मिकरीं जगातें स्पर्शतु।
तरी संगदोषें काय लिंपतु | तेथिंचेनि ॥ ३३३ ॥
तैसा इंद्रियार्थी उदासीन | आत्मरसेंचि निर्भिन्न।
जो कामक्रोधविहीन | होऊनि असे ॥ ३३४ ॥
जैसा सूर्य आकाशगतु | रश्मिकरीं जगातें स्पर्शतु।
तरी संगदोषें काय लिंपतु | तेथिंचेनि ॥ ३३३ ॥
तैसा इंद्रियार्थी उदासीन | आत्मरसेंचि निर्भिन्न।
जो कामक्रोधविहीन | होऊनि असे ॥ ३३४ ॥
निर्भिन्न=एकरूप
तरी विषयां तया कांही | आपणपेवाचुनि नाहीं।
मग विषय कवण कायी | बाधीतील कवणा ॥ ३३५ ॥
आपणपेवाचुनि=आपल्यावाचून (आत्मतत्व)
जरी उदकें उदकीं बुडीजे | कां अग्नि आगी पोळिजे।
तरीं विषयसंगे आप्लविजे | परिपूर्ण तो ॥ ३३६ ॥
ऐसा आपणचि केवळ | होऊनि असे निखळ।
तयाचि प्रज्ञा अचळ | निभ्रांत मानीं ॥ ३३७ ॥
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ ६५ ॥
देखें अखंडित प्रसन्नता | आथी जेथ चित्ता।
तेथे रिगणें नाहीं समस्तां | संसारदुःखां ॥ ३३८ ॥
जैसा अमृताचा निर्झरु | प्रसवे जयाचा जठरु।
तया क्षुधेतृष्णेचा अडदरु | कहींचि नाहीं ॥ ३३९ ॥
तैसें हृदय प्रसन्न होये | तरी दुःख कैचें कें आहे।
तेथ बुद्धि आपैसी राहे | परमात्मरूपीं ॥ ३४० ॥
जैसा निर्वातीचा दीपु | सर्वथा नेणे कंपु।
तैसा स्थिरबुद्धि स्वस्वरूपु | योगयुक्तु ॥ ३४१ ॥
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शांतिरशांतस्य कुतः सुखम् ॥ ६६ ॥
ये युक्तीचि कडसणी | नाहीं जयाचां अंतःकरणीं।
तो आकळिलां जाण गुणीं | विषयादिकीं ॥ ३४२ ॥
कडसणी=कसाला लावणे छाननी करणे
तया स्थिरबुद्धि पार्था | कहीं नाहीं सर्वथा।
आणि स्थैर्याची आस्था | तेही नुपजे ॥ ३४३ ॥
निश्चळत्वाची भावना | जरी नव्हेचि देखें मना।
तरी शांति केवी अर्जुना | आपु होय ॥ ३४४ ॥
आणि जेथ शांतिचा जिव्हाळा नाहीं | तेथ सुख विसरोनि न रिगे कहीं।
जैसा पापियाचां ठायीं | मोक्षु न वसे ॥ ३४५ ॥
देखें अग्निमाजी धापती | तियें बीजें जरी विरुढती।
तरी अशांत सुखप्राप्ती | घडों शके ॥ ३४६ ॥
धापती=घातलेली
म्हणोनि अयुक्तपण मनाचे | तेंचि सर्वस्व दुःखाचें।
या कारणें इंद्रियांचें | दमन निकें ॥ ३४७ ॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥
ये इंद्रियें जें जें म्हणती | तें तेंचि जे पुरुष करिती।
ते तरलेचि न तरिती | विषयसिंधु ॥ ३४८ ॥
जैसी नाव थडिये ठाकितां | जरी वरपडी होय दुर्वाता।
तरी चुकलाही मागौता | अपावो पावे ॥ ३४९ ॥
थडिये=किनारा
वरपडी होय=उपस्थित होय दुर्वाता=वाईट वारा
वरपडी होय=उपस्थित होय दुर्वाता=वाईट वारा
तैसी प्राप्तेंही पुरुषें | इंद्रियें लाळिलीं जरी कौतुकें।
तरी आक्रमिला देख दुःखे | सांसारिकें ॥ ३५० ॥
लाळिलीं=लाड केली
तस्माद् यस्य महाबाहो निगृहितानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥
म्हणोनि आपुलीं आपणपेया | जरी ये इंद्रिये येती आया।
तरी अधिक कांही धनंजया | सार्थक असे ॥ ३५१ ॥
आया=ताब्यात
देखे कूर्म जियापरी | उवाइला अवयव पसरी।
ना तरी इच्छावशें आवरी | आपणपेंचि ॥ ३५२ ॥
उवाइला=आनंदला
तैसीं इंद्रिये आपैती होती | जयाचें म्हणितलें करिती।
तयाची प्रज्ञा जाण स्थिती | पातली असे ॥ ३५३ ॥
आपैती=स्वाधीन
आता आणिक एक गहन | पूर्णाचें चिन्ह।
अर्जुना तुज सांगेन | परिस पां ॥ ३५४ ॥
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानां सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥
देखे भूतजात निदेलें | तेथेंचि जया पाहलें।
आणि जीव जेथ चेइले | तेथ निद्रित तो ॥ ३५५ ॥
पाहलें=पहाट, पाहणे
तैसा तो निरुपाधि | अर्जुना तो स्थिरबुद्धि।
तोचि जाणे निरवधि | मुनीश्वर ॥ ३५६ ॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥
पार्था आणिकही परी | तो जाणो येईल अवधारीं।
जैसी अक्षोभता सागरीं | अखंडित ॥ ३५७ ॥
जरी सरिताओघ समस्त | परिपूर्ण होऊनि मिळत।
तरी अधिक नोहे ईषत् | मर्यादा न संडी ॥३५८ ॥
ईषत्=किंचित
ना तरी ग्रीष्मकाळीं सरिता | शोषूनि जाति समस्ता।
परी न्यून नव्हे पार्था | समुद्रु जैसा ॥ ३५९ ॥
तैसा प्राप्तीं ऋद्धिसिद्धी | तयासि क्षोभु नाहीं बुद्धी।
आणि न पवतां न बाधी | अधृति तयातें ॥ ३६० ॥
अधृति=असंतोष
सांगे सूर्याचां घरी | प्रकाशु काय वातीवेरी।
की न लविजे तरी अंधारीं | कोंडेल तो ॥ ३६१ ॥
देखें ऋद्धिसिद्धि तयापरी | आली गेली से न करी।
तो विगुंतला असे अंतरीं | महासुखीं ॥ ३६२ ॥
से=पर्वा विगुंतला=ओतप्रोत भरला
जो आपुलेनि नागरपणें | इंद्रभुवनातें पाबळें म्हणे।
तो केवि रंजे पालविणें | भिल्लांचेनि ॥ ३६३ ॥
पाबळें =कमी प्रतीचे पालविणें=झोपडे
जो अमृतासि ठी ठेवी | तो जैसा कांजी न सेवी।
तैसा स्वसुखानुभवी | न भोगी ऋद्धि ॥ ३६४ ॥
ठी ठेवी=नावे ठेवी
पार्था नवल हें पाहीं | जेथ स्वर्गसुख लेखनीय नाही।
तेथ ऋद्धिसिद्धि कायी | प्राकृता होती ॥ ३६५ ॥
लेखनीय=खिजगणतीत प्राकृता=सामान्य
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः।
निर्ममो निरहंकरः स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥
ऐसा आत्मबोधें तोषला | जो परमानंदें पोखला।
तोचि स्थिरप्रज्ञु भला | वोळख तूं ॥ ३६६ ॥
पोखला= संतुष्ट झाला (पुष्ट झाला)
तो अहंकाराते दंडुनी | सकळ काम सांडोनि।
विचरे विश्व होऊनि | विश्वाचिमाजीं ॥ ३६७ ॥
एष ब्राह्मो स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ ७२ ॥
हे ब्रह्मस्थिती निःसीम | जे अनुभवितां निष्काम।
पातलें परब्रह्म | अनायासें ॥ ३६८ ॥
जे चिद्रूपीं मिळतां | देहांतीची व्याकुळता।
आड ठाकों न शके चित्ता | प्राज्ञा जया ॥ ३६९ ॥
तेचि हे स्थिति | स्वमुखें श्रीपति।
सांगत अर्जुनाप्रति | संजयो म्हणे ॥ ३७० ॥
ऐसे कृष्णवाक्य ऐकिलें | तेथ अर्जुने मनीं म्हणितलें।
आतां आमुचियाचि काजा आलें | उपपत्ति इया ॥ ३७१ ॥
उपपत्ति=सिद्धांत, कार्यकारणभाव
जे कर्मजात आघवें | एथ निराकारिलें देवें।
तरी पारुषलें म्यां झुंजावें | म्हणूनियां ॥ ३७२ ॥
पारुषलें=थांबले खुंटले
ऐसा श्रीअच्युताचिया बोला | चित्तीं धनुर्धरु उवायिला।
आतां प्रश्नु करील भला | आशंकोनियां ॥ ३७३ ॥
उवायिला=आनंदला
तो प्रसंगु असे नागरु | जो सकळ धर्मासि आगरु।
कीं विवेकामृतसागरु | प्रांतहीनु ॥ ३७४ ॥
नागरु=सुंदर आगरु=साठा
जो आपणपे सर्वज्ञनाथु | निरुपिता होईल श्रीअनंतु।
ते ज्ञानदेवो सांगेल मातु | निवृत्तीदासु ॥ ३७५ ॥
॥ दुसरा अध्याय समाप्त ॥
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